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पत्रकारिता को चाटुकारिता से उठाने के लिए हमें बहुत सारे कुलदीप नैयर चाहिए

मैं कुलदीप नैयर को उनकी लिखी भगत सिंह की जीवनी “without fear” से जानती हूं। इस किताब का लहज़ा सरलता से भावनात्मक गहराई छूने वाला है। भगत के साथ, साथियों पर, उनकी मानसिक हलचल पर भी बात हुई, जो मुझे आज भी सहायता करती है। बहुत पहले पढ़ी थी तो मैं इस किताब को उनमें रखती हूं जो कच्चे मन संग पढ़ी गई और व्यर्थ महिमामंडन से बचाकर सही दिशा में ले गई।

अब भी किसी नौजवान को मैं सर्वप्रथम यही पुस्तक रेफर करती हूं। इसका उद्देश्य ही यही है कि युवा भगत को महज़ पहचाने नहीं अपितु जाने भी, और इस बात में कोई संदेह नहीं कि भगत के माध्यम से हम बहुत कुछ जान सकते हैं।

इसके अतिरिक्त मैं उनकी और कोई किताब अब तक पढ़ नही पाई हूं। हां कुछ लेख-आलेख हमेशा सामने आते रहे। चर्चा परिचर्चाओं में उनका उल्लेख प्रमाण की तरह होता रहा। आपातकाल को समझने में वो सामने आए, पत्रकारिता को समझने में भी और मौजूदा हालातों को देखकर मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में जब “वैचारिक बेबाकी” को एक हुनर की तरह देखा जाएगा तो नैयर उन लोगों में शामिल होंगे जिनमें यह देखा गया है।

जैसे आपातकाल पर वो किस भांती टूटे यह तो आज फिर से आंखों में ग्लिसरीन डाल कर, सीना चौड़ा कर, मोदीजी एवं मोदी भक्त कह ही रहे हैं, “कुलदीप नैयर ने आपात्काल का इतना विरोध किया, उतना विरोध किया, ऐसे विरोध किया, जैसे विरोध किया, उसके लिए हम उन्हें कभी नहीं भुला पाएंगे!!”

गौर कीजिएगा बस आपातकाल के दौरान की कहानी ही तैर जाएंगी social media सागर पर, दिन आगे बढ़ते-बढ़ते, कि सुबह-सवेरे ही मोदी जी व अमित जी अश्व छोड़ चुके हैं। खैर, मुझे अधिक इसपर लिखने का मन नहीं मगर आज यह पूछा जाना चाहिए कि यदि कुलदीप नैयर आज के दौर में युवा पत्रकार होतें तो?

उनके जैसे सत्ता विरोधी पत्रकार का क्या स्कोप है इस शासनकाल में? क्या उनपर देशद्रोह के आरोप नहीं होते?

शायद इसका जवाब उन्होंने खुद ही “without fear” में दिया था, “power with condition is no power at all (शर्तों के साथ मिली शक्ति दरअसल शक्तिविहीन होने जैसा है)”  सुधीर चौधरी को पद्मश्री से सम्मानित करने वाली व रवीश का प्राइम टाइम ऑफ एयर कर देने वाली सरकार में मीडिया अंगूठा ना चूसे तो क्या करे! (सरकार के पैर का अंगूठा!)

मगर, नैयर सत्ता की पैरौकार होती पत्रकारिता को हमेशा टोकते रहे थे। उन्होंने कहा था “आज मीडिया खुद ही इतना प्रो-इस्टैब्लिशमेंट है कि सरकार को उसे line पर लाने के लिए कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है।”

और सॉफ्ट हिंदूइज़्म की बढ़ती ताकतों से मुल्क को खतरे को भी जता चुके थे (भले ही अमित शाह उसे humorous कहे)। नैयर हिन्दू-मुस्लिम से बहुत आगे भारत पाकिस्तान के शांति संबंधो के अग्रिम सपोर्टर थे। इसमें इंसानियत ही नहीं राजनीतिक नाते भी बेशक रहे होंगे। भले ही वो बड़े खेद के साथ, नेहरु व जिन्नाह को बराबर ज़िम्मेदार मानते हुए, विभाजन को निश्चित बताते हैं, मगर हेराल्ड को  दिए अपने इंटरव्यू में यहां तक कह जाते हैं, “मैं एक सकारात्मक सोच हूं, और मुझे लगता है कि “एक दिन पूरा दक्षिण एशिया एक संघ होगा, एक वीज़ा, एक मुद्रा- हर कोई कहीं भी काम करने, आने-जाने और सोचने के लिए स्वतंत्र होगा।”

जबकि आज हमारी देशभक्ति पूरी तरह पकिस्तान के विरोध पर टिकी है। आपसी बैर ही सत्ता का मूल हो गया है। इतना ही नहीं, उन्होंने पत्रकारों व नेताओं के अतिरिक्त उच्च अधिकारियों पर भी निशाना साधा था और एक सटीक विश्लेषण करते हुए लिखा, “वक्त के साथ भारतीय IAS/PCS अधिकारी सामंती विचारों के आधीन हो चुके हैं! जिसने उनकी आदर्शों पर अडिग प्रतिज्ञा को कुछ ही सालों में समेट दिया है और वह जनता की सेवा से परे एक कुर्सी मात्र रह गई है।”

कितनी खुशी होती गर अफसरान को कोरी हिदायतें देते फिरते प्रधानमंत्री आज यह भी शेयर करते। मगर नहीं कहेंगे, वो क्यों कहेंगे! आ भैंस मुझे मार करने में तो महज़ जनता हुनरमंद है। ये तो सवाह पूछने पर नौकरी खा जाते हैं, इस पर बात करने से गोली मरवा देते हैं! सरकारें कभी सरकार विरोधी तथ्य पटल पर नहीं आने देती, इसलिए, इस अंधे होते नज़रियों के दौर में, हमें चाहिए कि अब हम इशारों से कुछ अलग व दूर भी देखा करें, पढ़ा करें, सुना करें।

अन्त में यह कहते हुए मुझे खेद होता है कि आपातकाल में तो मीसा लगता था,  मगर इस अघोषित आपातकाल में सीधा सज़ा ए मौत है! शेमिंग टू डेथ है! आज कुलदीप नैयर और बड़ी मात्रा में लगेंगे, जम्हूरियत का चौथा स्तम्भ खड़ा रखने को।

बाकी आलोचना कर सकूं इतना मैंने कुलदीप नैयर को पढ़ा नहीं, जो समझ सकी, उसके अनुसार कामना है, इस मुल्क के कुलदीप नैयरों को कभी चैन ना पड़े और वो इन हुक्मरानों को चैन से जीने ना दें।

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