पिछले कुछ दिनों से ऐसे बच्चों का अवलोकन कर रहा था, जिन्होंने इसी वर्ष स्कूल जाना शुरू किया है। इस अवलोकन ने यह समझने में मदद की कि स्कूल की संस्थागत मौजूदगी बच्चे की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में क्या बदलाव लाती है?
अक्सर बच्चे के जीवन में स्कूल के प्रभाव की चर्चा स्कूल में प्रवेश के साथ आरंभ करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि इस कहानी के सूत्र को थोड़ा पहले से पकड़ने की ज़रूरत है। आजकल स्कूल में प्रवेश लेने से पहले ही बच्चे स्कूल से परिचित हो चुके होते हैं। स्कूल से इनका परिचय अभिभावक सहित अन्य वयस्क दो तरीकों से कराते हैं। पहला, वे स्कूल में प्रवेश के पूर्व ही साक्षरता-अक्षर ज्ञान और गणित का अभ्यास कराने लगते हैं। दूसरा, वे स्कूलों के प्रतीकों जैसे-बैग, ड्रेस, टीफिन आदि से बच्चे के मन में स्कूल की छवि उकेरने लगते हैं।
क्या हमने कभी सोचा है कि साक्षरता के इन माध्यमों के अलावा प्रकृति और परिवेश में बहुत कुछ है जिसके प्रति बच्चे को संवेदनशील किया जा सकता है? मसलन फूलों के अलग-अलग प्रकार, चिड़ियों की आवाज़ें, घर और आस-पास के कीट पतंगें।
ऐसा करके बच्चे को कुदरत के निकट ले जाया जा सकता था। उसे परिवेश की संज्ञाओं के ज्ञान के बदले उनकी विशेषताओं को पहचानने और महसूस करने का अवसर दिया जा सकता था। साक्षरता से जोड़ने का उतावलापन बच्चे की दुनिया को सीमित कर देता है। इस सीमित दुनिया में अभिभावक बच्चों के परिवेश में स्कूल से जुड़े प्रतीकों को स्थापित कर देते हैं। ऐसे ही कुछ प्रतीक स्कूल का बैग, लंच बॉक्स, ड्राइंग बुक, कलर, ड्रेस आदि हैं।
इन प्रतीकों के माध्यम से बच्चा स्कूल से खुद को जोड़ता है। उदाहरण के लिए बच्चे के दूसरे या तीसरे जन्मदिन तक किसी ना किसी के द्वारा उपहार में एक बस्ता मिल जाता है। इस बस्ते के तरह-तरह के उपयोग हो सकते हैं। ज़्यादातर अभिभावक बस्ते के उसी उपयोग से बच्चे को परिचित कराते हैं जिस उद्देश्य से वह दिया गया है, कॉपी-किताब रखने वाला झोला।
जिस बच्चे ने अभी-अभी चलना ही सीखा है वह बस्ता लेकर स्कूल जाने की नकल उतारने लगता है। अभिभावक इसे शुभ संकेत मानते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं कि उनके बच्चे में पढ़ाई को लेकर सकारात्मक अभिवृत्ति है।
इन तैयारियों के साथ बच्चे का प्री-स्कूल में प्रवेश करा दिया जाता है। एक-दो दिन बच्चा स्कूल के अपरिचित माहौल में जूझता है। अंततः वह स्कूल को अपनाने लगता है। स्कूल को अपनाने के साथ बच्चे की दिनचर्या और व्यवहार में नए लक्षण प्रकट होने लगते हैं। बच्चे की दिनचर्या की सबसे बड़ी विशेषता समय के कठोर विभाजन का अभाव होती है।
स्कूल आने-जाने का चक्र शुरू होते ही बच्चे की आज़ादी समय के पालन की बाध्यता बन जाती है। बच्चे को निर्धारित समय पर उठना, तैयार होना, विद्यालय जाना, विद्यालय से आना, खेलना, कार्यों को पूरा करना आदि सीखना पड़ता है। उसे यह बोध हो जाता है कि घर और स्कूल में अलग-अलग कार्यों को करने का समय अलग-अलग और निर्धारित होता है। वह यह भी जानने लगता है कि कौन सा कार्य अधिक महत्वपूर्ण और कौन सा कम महत्वपूर्ण?
यह बोध काम और खेल में भेद करना सीखा देता है। बच्चे को लगातार बताया जाता है कि स्कूल के काम के सापेक्ष खेल एक कम महत्वपूर्ण गतिविधि है क्योंकि खेल ना तो ‘क्लासवर्क’ का हिस्सा होता है और ना ही ‘होमवर्क’ का, वह तो बस मनोरंजन मात्र है।
खेल के बदले स्कूल के कामों को प्राथमिकता देने को ‘अच्छे’ बच्चे के साथ जोड़ दिया जाता है। समझ में नहीं आता हम लोग खेल के प्रति ऐसी दृष्टि क्यों रखते हैं? जिन बच्चों के अवलोकन को मैंने इस लेख का आधार बनाया है उनके खेल में समस्या समाधान, जोड़-तोड़ और सूझ आदि को देखा गया।
फर्क इतना होता है कि इस खेल के नियंता बच्चे स्वयं होते हैं। खेल के दौरान बच्चा आसपास की वस्तुओं से खिलौनों का आविष्कार करते हैं। इन वस्तुओं को एक भिन्न अर्थ देते हैं, दोस्तों के साथ नियम बनाते हैं, एक दूसरे को स्वीकार करना सीखते हैं। वे उपलब्ध संसाधनों से समस्याओं का समाधान करते हैं। जबकि स्कूल काम की जिस अवधारणा को बच्चे को सीखाता है वह अक्सर वयस्कों के द्वारा परिभाषित कार्य होता है जिसके करने के ढंग के प्रति उसे सजग रहना होता है।
शिक्षकों की अपेक्षाओं और निर्देश के अनुसार किसी कार्य को करना होता है। उसका प्रदर्शन उसके अच्छे या बुरे होने को निर्धारित करता है। इसीलिए छोटे बच्चों की नोटबुक पर ‘स्टार’ और ‘गुड’ जैसे विशेषण होते हैं। बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के जिन सिद्धान्तों को शिक्षण का आधार माना जाता है वे भी सीखने में बाह्य नियंत्रण का समर्थन नहीं करते हैं। ना ही ये सिद्धान्त स्कूल के द्वारा संज्ञानात्मक विकास में किसी तीव्र बदलाव की पैरवी करते हैं।
इन्हीं आधारों पर बाल केन्द्रित शिक्षा के लिए ‘खेल’ को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात की जाती है। इस सुझाव के विपरीत स्कूल उन नियमों और तौर-तरीकों को स्थापित कर रहे हैं जहां खेल, स्कूल के काम के बराबर महत्वपूर्ण नहीं है। इसके पीछे खेल को असंरचित और लक्ष्यहीन मानने की धारणा है। यह धारणा एक सामाजिक उत्पाद है जिसमें यह विश्वास है कि मानसिक श्रम, शारीरिक श्रम से श्रेष्ठ है और यह डर है कि खेल को अधिक महत्व देने से बच्चा ‘व्हाइट कॉलर जॉब’ के रास्ते पर बढ़ने से भटक जाएगा।