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नई शिक्षा नीति: अप्रत्यक्ष रूप से गरीबों का शोषण

असभ्यता, असहजता, अशांति, दंगे, जातिवाद, कट्टरता, असहिष्णुता और भी न जाने कौन कौन से शब्दों से हमारी युवा पौध ने सामना किया होगा। यही नहीं इनका ज़रिया शिक्षा नीति ही रही होगी। आज़ाद भारत से अब तक 2020 तक तो मुझे कोई खास बदलाव नज़र नहीं आया।

यदि शिक्षा प्रभावशाली होती तो शायद आज देश कहीं और आगे होता। देश का माहौल इस समय ऐसा है कि यहां तो हक बोलने वालों को जेल में डाल दिया जाता है। यहां सरेआम कत्ल कर दिया जाता है। मरने वाले को आतंकवादी बनाया जाता है या फिर उसकी गलती निकाल कर उसको देशद्रोही करार दे दिया जाता है। कातिल को सुरक्षा दी जाती है। 

1986 शिक्षा नीति ने कौन से झंडे गाड़े?

रही बात शिक्षा की तो वर्तमान स्थिति यह है कि पढ़े लिखे लोगों को आजकल बस डिग्री होल्डर ही माना जाना चाहिए। शिक्षित लोगों के दिमाग काम करते हैं और अपने लिए ऐसे इंसान का चुनाव करते हैं जो वास्तव में देश की बागडोर सम्भालने का दम रखता हो।

फिलहाल देश के विश्वविद्यालयों के नाम तो यही रखे जा सकते हैं जैसे हिंसात्मक विश्वविद्यालय, कट्टरपंथी विश्वविद्यालय, आतंकी कॉलेज वगैरह वगे्रह। 

नाम बदलने की इस बात पर याद आया कि सरकार राज्यों के नाम को बदल-बदल कर हज़ारो करोड़ो रुपये बर्बाद कर चुकी है। अगर उन्हीं पैसों से मेधावी छात्रों को स्कॉलरशिप दे दी जाती है तो आज देश में कहीं ज़्यादा कामयाब युवा होते।

मैं यहां सिर्फ केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक जी से मुखातिब होकर उनका ध्यान अपने इस छोटे से लेख की ओर दिलाना चाहता हूं। बस गहन अध्यन करने से मुझे कुछ विचारशील समस्याएं नज़र आईं जो नई शिक्षा नीति 2020 के संदर्भ में हैं। 

नई शिक्षा नीति-2020 डॉ. कस्तूरीरंगन को समर्पित 

वर्ष 2019 में  डॉ के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली एक समिति ने वर्ष 2019 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे को केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री, श्री रमेश पोखरियाल निशंक और मानव संसाधन राज्यमंत्री श्री संजय शामराव धोत्रे के समक्ष प्रस्तुत किया था।

इस अवसर पर श्री आर. सुब्रह्मण्यम, उच्च शिक्षा विभाग के सचिव और श्रीमती रीना रे, सचिव स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग और मंत्रालय के कई अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी मौजूद थे। देश के माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने इस नई शिक्षा नीति 2020 को डॉ कस्तूरीरंगन को समर्पित किया। 

डॉ कस्तूरीरंगन जी ने इसरो एवं अंतरिक्ष आयोग के अध्यक्ष और अंतरिक्ष विभाग में भारत सरकार के सचिव के रूप में 9 साल तक भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का निर्देशन किया। ड्राफ्ट बनाते समय सभी बड़े-बड़े शिक्षाविदों, बड़े-बड़े अनुभवी प्रोफेसर एवं कुछ विद्यार्थी और अभिभावकों से सुझाव मांगे गए। सौभाग्य से इन सुझावों का कैबिनेट ने निरीक्षण तो किया परंतु लागू किया या नहीं इस बात का तो कोई साक्ष्य नहीं है।

बहरहाल 4-5 सदस्यों की बैठक में देश के 135 करोड़ नागरिकों की शिक्षा के मौलिक अधिकारों को ताक पर रख कर एक ऐसी नीति का निर्माण किया, जिसमें बहुत भारी और प्रभावशाली शब्दों का इस्तेमाल किया गया। इन शब्दों में स्वयता, स्वतन्त्रा आदि हैं लेकिन जब इन शब्दों के पीछे जाकर देखेंगे तो यही पाएंगे सीधे तौर पर न सही घुमा फिरा कर गरीबों के पेट पर लात मारी गई। 

नई शिक्षा नीति में कई बदलाव लेकिन शिक्षा जगत की संरचना जस की तस

जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा पर लगाया जाएगा जो अभी 4 फीसदी है। बहुत उत्सुकता थी कि नई शिक्षा नीति आएगी परंतु मौलिक अधिकार के 21a की इस नीति में जमकर धज्जियां उड़ायी गईं। वास्तविक स्थिति को सही व सुचारू रूप से चलाने के लिए किसी भी नीति को नहीं बनाया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 9 लाख टीचरों की जगह अब भी खाली है। वहीं अगर स्कूलों की स्थिति पर गौर करें तो 52% ही ऐसे विद्यालय हैं जिनमें हाथ धोने और पीने के पानी की व्यवस्था है। पूरे देश में 8.3% सिंगल टीचर स्कूल हैं। 

बहरहाल इस स्थिति पर पूरी विहंगम समीक्षा की जानी चाहिए परंतु यहां भी नीति में बेईमानी की गई है। आप बात करते हैं बच्चों में शिक्षा के महत्व को आम करना केकिन 48% विद्यालयों में न तो पानी है और न ही बिजली। सरकार इस बात की ओर क्यों ध्यान नहीं देती कि न जाने कितनी प्रतिभाओं को आप कुचलने की नीति बना रहे हैं। राइट तो एजुकेशन को बढ़ावा देने वाले पक्ष को अनदेखा कर दिया गया है। 

महामारी के दौरान शिक्षा में नई तकनीकों का इस्तेमाल किया गया जिसमें से सिर्फ 27% बच्चों के पास साधन है। जैसे ऑनलाइन शिक्षा के अवसर को हासिल करने का, बाकी बच्चों की पढ़ाई का क्या? मैंने खुद जाकर यमुना खादर और गीता कॉलोनी जाकर निरीक्षण किया और पता लगाया कि वहां पर कितने बच्चों ने लॉक डाउन के दौरान अपनी कक्षाएं लीं। 20 परिवारों में से सिर्फ एक घर के बच्चे ने कक्षा ली। बाकियों का कुछ नहीं हुआ। उनको यही नहीं पता कि ज़ूम एप क्या होती है। ऑनलाइन पढ़ाई होती किस तरह है। उन्होंने एक भी कक्षा नहीं ली और ऐसे महामारी के दौरान आपने नई शिक्षा नीति किस आधार पर लागू करने की घोषणा कर दी। 

बनेगी अनिश्चितता की स्थिति

कक्षा 6 में बच्चे की उम्र 12 साल की होती है। वोकेशनल स्टडी का शुरू करना कक्षा 8वीं के बाद होना चाहिए। अब ऐसा होगा कि जिन बच्चों का दिल पढ़ाई में नहीं लगेगा वो बच्चे खुद शिक्षा से दूर हो जाएंगे और वोकेशनल पढ़ाई की तरफ बढ़ने से उनके शैक्षणिक विकास में अवरोध उतपन्न होगा। लेबर मार्किट में बच्चों का लेवल बढ़ेगा। अभी तो यह था बच्चे के अंदर एक ललक थी पढ़ाई करने की मगर अब इस शिक्षा नीति के द्वारा तो ऐसा लग रहा है जैसे अब बच्चे सिर्फ 3 कक्षा पास ही कहलाएंगे। 

जो कक्षा 8 तक ज़बरदस्ती पढ़ते भी थे अब उनके लिए विद्यालय को छोड़ना और भी आसान हो जाएगा। जिससे शिक्षा के आंकड़ों के अंतर्गत निरक्षरता में बढ़ोतरी होगी। अब अगर बात करें उच्च शिक्षा की तो इसमें सबसे संदेहास्पद बात यह है कि जिन कॉलेजों में विद्यार्थियों की संख्या 3 हज़ार से कम होगी वह कॉलेज बंद कर दिए जाएंगे या फिर उनको मर्ज कर दिया जाएगा।

अगर आँकड़ों की तरफ नज़र करें तो पाएंगे कि 50 हज़ार संस्थानों पर इस नीति से खतरा मंडराने लगा है। शिक्षा के ढांचे में एक रूपता नहीं है। दिल्ली, मुम्बई या बड़े शहरों में शिक्षा का अच्छा स्तर है वहीं अगर बात करें गरीब और पिछड़े हुए इलाकों की तो वहां पर शिक्षा का जो रूप है वह वास्तव में सोचने वाला है। यह नई शिक्षा नीति इन दोनों के बीच की खाई को बांटने के लिए क्या प्रवाधान करती है?

कॉलेज में जर्जर शिक्षा पर सरकार ने नहीं दिखाई स्पष्टता

90% देश के डिग्री कॉलेजों में शिक्षा की हालत काफी जर्जर है। इसके लिए केंद्र सरकार ने कोई स्पष्टता नहीं दिखाई है। इस बात का कोई भी ठोस प्रारूप नज़र नहीं आ रहा। वहीं बात करें आरक्षण की तो इसमें कोई भी स्पष्ट निर्देश नहीं दिया गया है। स्थाई नौकरी की बात भी नीति से पूरी तरह गायब है। वहीं इस नीति में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात को इंगित किया गया है कि “बोर्ड ऑफ गवर्नर” के तहत इस नीति को मान्यता दी गयी है। 

अब एक इंस्टिट्यूट में ग्रेडिंग के आधार पर स्वयता कर दिया जाएगा। एक विश्वविद्यालय या कॉलेज स्वयता हो जाएगा। यह शब्द अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है परंतु इस शब्द के पीछे की ज़मीनी हकीकत देखेंगे तो पाएंगे कि इसकी बागडोर सरकार के हाथ में ही होगी। वही फीस, सिलेबस, कोर्स का निर्धारण करेंगे “बोर्ड ऑफ गवर्नर” के तहत। उनको पूरी आज़ादी मिली होगी कि वह कोई से भी कोर्स चलाएं कुछ भी करें उनको सारी शक्तियां प्राप्त होंगी। 

ऐसे में परिणाम यही होगा कि इसमें उन्हीं कोर्सेज को वरीयता दी जाएगी जिसमें अधिक से अधिक फीस वसूल की जा सके। वहीं जो शिक्षक होंगे उनकी सैलरी और उनका प्रमोशन सब अलग अलग होगा। ठेके पर रखे जाने वाले शिक्षा मित्रों और गेस्ट टीचर्स  जैसी नीतियों को खत्म कर दिया जाएगा। जैसे बात करें दिल्ली विश्वविद्यालय की तो उसमें  5000 अस्थायी टीचर हैं। उनका क्या होगा? क्या अस्थायी शिक्षिक को स्थायी किया जाएगा? या उनकी नौकरी डायरेक्ट चली जाएगी। यह बेहद बुनियादी खतरा है। 

एक बहुत बड़े तबके को वंचित करने का मसौदा तैयार किया है। कैबिनेट से पास हुआ 2019 वाले ड्राफ्ट को आगे बढ़ाया गया है। सरकार को समझना होगा कि इस नीति द्वारा आप एक-एक इंसान को प्रभावित कर रहे हैं। इसके नकरात्मक पक्ष का असर सभी पर होगा। 

देश की बिकती संपत्ति के बीच शिक्षा का व्यवसायिकरण

रेलवे, एयरपोर्ट और न जाने क्या क्या बेचा जा रहा है। अब बारी आई है शिक्षा को बेचने की। देश की नींव कमज़रो करने की नीति पर देश को संभालने वालों ने ही देश की बर्बादी पर मुहर लगा दी। यह नीति देश की शिक्षा को संवारने के लिए नहीं बल्कि देश को कमज़ोर करने के लिए बनाई गई है। जिसमें दबे-कुचले गरीब ही और कुचले जाएंगे। 

बस मेरी यही विनती है कि आप कृपया इस विषय पर दोबारा गौर करें और ऐसी नीतियों का गठन करें जो गरीबी को दूर कर सके, समाज में समावेशिता का निर्माण कर सकें, धार्मिक अखण्डता को दूर कर सकें, ऐसे ही विचारों को ध्यान में रखना होगा और ये बहुत ज़रूरी है। 

देश के संविधान को बनाने के लिए हमने अधिकारों को विदेशों से उठा लिया। मगर अब स्थिति वैसी नहीं है कि आप विदेशों की शिक्षा नीतियों से प्रभावित होकर अपने देश की नीतियों का निर्माण न करें। वहां के समाज और यहां के समाज में बहुत सारी विविधताएं हैं। सब अलग-अलग हैं। हमारे देश में क्या ज़रूरी है, देश के भविष्य के लिए विकास के किस आयाम पर हमको कार्य करना है? ऐसे ही सवालों के जवाबों को ढूंढ कर एक नीति का गठन किया जाना चाहिए।

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