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धार्मिक अंधभक्ति में सांप्रदायिक बनने से बेहतर इंसानियत की भक्ति है

ये बड़ी ही अजीब बात है कि हम अपने आप को मनुष्य पीढ़ी की सबसे सफल और सबसे बुद्धिमान पीढ़ी मानते हैं लेकिन, क्या सच में ऐसा है? क्या हमसे पहले बुद्धिजीवी नहीं हुए, अगर हुए तो क्यों उनके विचारों को हम तक पहुंचने से रोका गया, शायद हम एक बेहतरीन, शालीन, सभ्य और उस समाज की स्थापना कर देते जिसकी कल्पना हर क्रान्तिकारी, हर दार्शनिक, हर सैनिक और हर उस व्यक्ति ने की होगी जो सुकून से जीवन जीना चाहता होगा।

खैर! अभी मुद्दा ये है कि आज के पत्रकार और लेखक धर्म और साम्प्रदायिकता के बारे में लिखते तो हैं पर एक झिझक उनके शब्दों में झलकती रहती है। शायद उनका डर उनको रोकता हो, या ये भी हो सकता है कि वो अन्दर से खुद ही धार्मिक और साम्प्रदायिक हो लेकिन, दौलत और शोहरत के लिए ये सब लिखते हों।

चलिये आज मैं आपके सामने धर्म और साम्प्रदायिकता पर वो लेख पेश करता हूं जो आज से लगभग कई वर्ष पूर्व लिखा गया था, जिसमें ना कोई डर है और ना ही कोई झिझक और इस सोच तक आने में हमें अभी थोड़ा वक्त लगेगा क्योंकि जिस इंसान ने ये लेख लिखा था वो इंसान को इंसान समझता था और पूर्ण रूप से इंसानी भावनाओं और इंसानी सोच को भी, कोशिश कीजिएगा कि पूरा पढ़ सकें, हो सकता है एक-आधी पंक्ति पल्ले पड़ ही जाये।

संसार के सारे महान और पवित्र कार्य मनुष्य अकेले ही करता है, उसने ये काम अकेले ही किये हैं, इतिहास गवाह है। आप प्रेम करते हैं यह आपकी व्यक्तिगत उपलब्धि है, आप अकेले करते हैं, क्या आप भीड़ ले जाते हैं कि आओ प्रेम करें। आप कविता लिखते हैं, आप प्रार्थना करते हैं, आप दान-पुण्य करते हैं, आप पौधों को पानी पिलाते हैं। ये सब आपके आत्म-अनुभव हैं, एकांतिक, नितांत व्यक्तिगत।

ज़रा सोचिये और बताइये कि महावीर को ईश्वर अकेले में मिले या भीड़ में, बुद्ध को ज्ञान अकेले में मिला या भीड़ में।

अकेला आदमी कभी किसी धार्मिक स्थल में आग नहीं लगाता, भीड़ लगाती है, भीड़ दंगे करवाती है, भीड़ निर्दोषों को मरवाती है, भीड़ जानवरों में बदल जाती है, भीड़ भेड़ हो जाती है।

अब वक्त है धार्मिक चेतना और पुर्नजागरण की। ज़रूरत है कि अब हम धार्मिक अंधविश्वास और धार्मिक कट्टरपंथ के खिलाफ सोचे, बोलें, विचार करें, आवाज़ उठायें, वैसे भी पिछले पांच सौ वर्षों के इतिहास में धर्म ने सिवाए नफरत और दंगों का साम्राज्य खड़ा करने के अतिरिक्त कहीं भी अपनी उपयोगिता साबित नहीं की है। आज ज़रूरत है इस खोखले पाखंड पर चोट करने की, आज ज़रूरी है एक धार्मिक क्रान्ति की।

धर्म जब राजनीति के साथ घुल-मिल जाता है तो वो एक घातक विष बन जाता है जो राष्ट्र के जीवित अंगों को धीरे-धीरे नष्ट करता रहता है, भाई को भाई से लड़ाता है और इंसान को इंसान से, जनता के हौसले पस्त करता है, उनकी दृष्टि को धुंधला करता है, असली दुश्मन की पहचान कर पाना मुश्किल कर देता है, जनता की जुझारू मनोस्थिति को कमज़ोर करता है और इस तरह राष्ट्र को साम्राज्यवादी साजिशों की आक्रमणकारी योजनाओं का लाचार शिकार बना देता है।

हम सब लड़ रहे हैं और जबकि हमें ये भी नहीं मालूम कि वजह क्या है, हम उसके लिए लड़ रहे हैं जिसे हमने देखा तक नहीं। क्या ईश्वर, मनुष्य द्वारा निर्मित मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरुद्वारों में सम्भव है, यदि है तो स्वयं मनुष्य ईश्वर का निर्माता भी है और यदि ईश्वर कण-कण में बसा हुआ है तो इन सब की ज़रूरत ही नहीं है।

तो आइये बजाय उसके जिसे हमने देखा भी नहीं, हम उसकी बात करें, जो हमारे सामने है, इंसान की बात, मनुष्य की बात, उसके दुख-सुख की बात, यदि संसार का सबसे बड़ा और सबसे ऊपर कोई सत्य है तो वो मनुष्य है।

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