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कोरेगांव गिरफ्तारी पर SC का अंतरिम फैसला पुलिस के एक्शन पर सवाल उठाता है

घटना-1

1 जनवरी 2018, भीमा कोरेगांव मामले में बाह्मणवादी समाज के खिलाफ दलितों की जीत की 200वीं सालगिरह मनाई गई। सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और कई बुद्धिजीवी इस आयोजन में शामिल हुए लेकिन कुछ हिन्दुत्ववादी तत्वों को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। जिनमें संभाजी भिडे (संस्थापक-शिव प्रतिष्ठान हिन्दुस्तान) और मिलिंद एकबोटे (समस्त हिन्दू अगाढ़ी) की महत्तवपूर्ण भूमिका रही। इन्होंने उपद्रव मचाया। पुलिस पहली FIR इन्हीं दोनों के खिलाफ दर्ज करती है।

लेकिन 6 जून 2018 को कुछ कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई, जिनमें मुंबई के प्रमुख दलित कार्यकर्ता-प्रकाशक सुधीर ढवाले, प्रमुख मानवाधिकार वकील सुरेंद्र गडलिंग, कार्यकर्ता महेश राउत और नागपुर के शोमा सेन और नई दिल्ली के कार्यकर्ता रोना विल्सन शामिल थे। इनको भड़काऊ भाषण देने और हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया लेकिन संभाजी भिडे को गिरफ्तार ही नहीं किया गया और मिलिंद एकबोटे को सिर्फ SC/ST act में गिरफ्तार किया गया। महाराष्ट्र के मुख्‍यमंत्री ने तो ये तक कह दिया था कि संभाजी के खिलाफ कोई सबूत ही नहीं मिले।

घटना -2

10 अगस्त को वैभव राऊत नाम के एक गौरक्षक को ATS ने हिरासत में लिया जो कि सनातन संस्था से जुड़ा हुआ था। इस संस्था का हाथ गौरी लंकेश की हत्या में होने का भी शक जताया गया है। वैभव के ठिकानों से काफी मात्रा में असलहें, बारूद और बम मिलते हैं और कुछ लोग वैभव के समर्थन में तिरंगा यात्रा भी निकालते हैं।

इन दो घटनाओं का वर्णन इसलिये किया क्योंकि 28 अगस्त वरवर राव, सुधा भारद्वाज, वर्नोन गान्जल्विस, अरुण फरेरा और गौतम  नवलखा को पुलिस गिरफ्तार करती है। इनपर भीमा कोरेगांव में भड़काऊ भाषण देने और शहरी नक्सली होने का आरोप लगाया गया है। यह सभी लोग बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और वकील हैं। जबकि भीमा कोरेगांव का मुख्य आरोपी संभाजी बाहर खुलेआम घूम रहा है और वैभव राउत के समर्थन मे रैलियां निकलना ये बताता है कि कहीं ना कहीं इन दोनों को राजनीतिक सहयोग मिल रहा है।

अपनी गिरफ्तारी के बाद गौतम नवलखा ने बयान जारी करते हुए कहा,

ये मामला बदला लेने पर उतारू, कायर सरकार का सियासी हथकंडा है। सरकार भीमा कोरेगांव के असली अपराधियों को बचाने पर आमादा है। इसके ज़रिए कश्मीर से केरल तक अपने घोटालों और नाकामियों से ध्यान हटाना चाहती है। गिरफ्तार सभी कार्यकर्ता दलितों के हितैषी ही हैं और उनको लेकर लेख लिखते रहते हैं और उनके मुकदमे लड़ते रहते हैं।

पुलिस ने कोर्ट में यह पक्ष रखा कि कार्यकर्ताओं का नक्सलियों से सम्बन्ध है लेकिन कोई सबूत पेश नहीं किये। तीन जजों की पीठ ने खचाखच भरी अदालत में कहा, “असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है और अगर आप इन सेफ्टी वॉल्व की इजाज़त नहीं देंगे तो यह फट जाएगा।” राज्य सरकार की दलीलों पर कड़ा संज्ञान लेते हुए पीठ ने कहा, “यह (गिरफ्तारी) वृहद मुद्दा है। उनकी (याचिकाकर्ताओं की) समस्या असहमति को दबाना है।” पीठ ने सवाल किया, “भीमा-कोरेगांव के नौ महीने बाद, आप गए और इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया?”

मंगलवार को जिस हड़बड़ी में यह गिरफ्तारियां हुईं और दिल्ली से इन्हें पुणे ले जाने की कोशिश हुई, उसे देखते हुए सब कुछ सामान्य नहीं लगता। इस मामले में पुलिस और सरकार को सारे संदेह हटाने होंगे, वरना उनकी कार्रवाई पर सवाल उठते रहेंगे।

इन कार्यकर्ताओं पर UAPA (unlawful activities prevention act) के तहत केस दर्ज किया गया है। यह Act भी विवादास्पद रहा है। UAPA को वर्ष 1967 में ‘भारत की अखंडता तथा संप्रभुता की रक्षा’ के उद्देश्य से पेश किया गया था और इसके तहत किसी शख्स पर ‘आतंकवादी अथवा गैरकानूनी गतिविधियों’ में लिप्तता का संदेह होने पर किसी वॉरेंट के बिना भी तलाशी या गिरफ्तारी की जा सकती है। इन छापों के दौरान अधिकारी किसी भी सामग्री को ज़ब्त कर सकते हैं। आरोपी को ज़मानत की अर्ज़ी देने का अधिकार नहीं होता और पुलिस को चार्जशीट दायर करने के लिए 90 के स्थान पर 180 दिन का समय दिया जाता है। इसी साल जून माह में भी पांच अन्य कार्यकर्ताओं को इसी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को राहत दी है जो पुलिस की कार्यवाही को सवालिया घेरे में लाती है।

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