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रक्षाबंधन एक त्यौहार के रूप में मनाइए ना कि बहनों की रक्षा के वादे के रूप में

हमारे समाज में परंपरा और रीति-रिवाज़ों की चार-दिवारी के बीच पर्व-त्यौहारों ने सामाजिक जीवन में जहां एक तरफ सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत किया है तो दूसरी तरफ एक विशेष प्रकार की हायरार्की का निमार्ण भी किया है। जो समाजीकरण सामाजिक संबंधों में ही नहीं पारिवारिक संबंधों में भी एक गैर-बराबरी का निमार्ण करता है।

हम जिस समाज में पैदा होते हैं, उसकी मान्य और स्वीकार्य सदस्य बने रहने के लिए उस समाज की मान्यताओं का अभ्यास करते-करते हम उस गैर-बराबरी को जायज भी ठहराते हैं पर साथ-ही-साथ बदलते हुए समय के संदर्भ में उस गैर-बराबरी को अनुचित भी मानते हैं। हालांकि, इस गैर-बराबरी को खत्म करने के लिए कोई पहल सामाजिक दवाब में नहीं कर पाते हैं।

आज ज़रूरत इस बात कि अधिक है कि अपने समाजीकरण में हम उन मान्यताओं के अभ्यास को नए तरीके से परिभाषित करें, जिससे परिवार के रिश्तों में मिठास और त्यौहारों को मनाने का उत्साह बना रहे। साथ ही साथ, वक्त के साथ हम स्वयं को और समाज को भी गतिशील बनाए रखें।

भारतीय संस्कृति में रक्षा-बंधन, भाई-बहनों के बीच संबंधों का एक ऐसा ही त्यौहार है जो अपने सांस्कृतिक अभ्यास भाई-बहन के बीच के प्यार और विश्वास के साथ-साथ, एक गैर-बराबरी का महौल भी रचता है, जिसकी बुनावट इतनी महीन है कि समान्यत: इसको महसूस नहीं किया जा सकता है।

मसलन, बहनें, भाइयों से मिलने वाले रक्षा के वादे में स्वयं को कमतर मान लेती हैं, जो कि वह कभी होती नहीं हैं। रक्षा-बंधन, सांस्कृतिक व्यवहार का बोझ भाई-बहन के रिश्ते पर डाल देता है कि बहनों की सुरक्षा का दायित्व भाइयों के ऊपर ही है, जो सामाजिक समाजीकरण में बहनों में स्वयं की सुरक्षा का भाव पैदा ही नहीं होने देता। बहनों का स्वयं पर आत्मविश्वास का ना होना, दूसरों पर निर्भरता का पर्याय बनकर उभरता है।

अपनी स्वयं की सुरक्षा की दूसरों पर निर्भरता की कडीशनिंग इस तरह सामाजिक या पारिवारिक समाजीकरण से दी जाती है कि बहनों को पता ही नहीं चलता क्या सही, क्या गलत है और जब फर्क करने की उम्र में आती है तब-तक बहुत देर हो जाती है।

यह एक ऐसे चक्रव्यूह का निमार्ण करता है जिसमें बहनों का घुसना बहुत सरल होता है पर उससे निकलना तब अधिक असंभव-सा बन जाता है, जब उनको अपने बारे में स्वयं कोई भी निर्णय करना होता है। जब वह स्वयं अपने फैसले करके खुद को इस चक्रव्यूह से निकालना भी चाहती हैं तो सबसे पहले परिवार और फिर समाज अपमान व हिकारत का भजन शुरू कर देता है।

बहनों द्वारा अपने ही आत्मविश्वास की हत्या किसी एक वर्ग की समस्या नहीं है सभी स्त्री वर्ग में समान रूप से देखी जा सकती है। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं या इसके रूप बदल सकते हैं पर हो वही रहा है जो हमेशा से होता आ रहा है।
ज़रूरत है इन बंधनों को तोड़ा जाए, क्योंकि बहनों को अपनी रक्षा खुद ही करनी होगी चाहे कोई भी बहन हो और उसके कितने भी भाई हों।

सामाजिक समाजीकरण की नई कंडीशनिंग तैयार की जाए, क्योंकि सांस्कृतिक व्यवहारों को अपनाते हुए हम भाई-बहन के रिश्तों के बीच ताकत और हैसियत का बीज भी बो रहे हैं। जिसके बारे में गर्डा लर्नर कहती हैं,

समाज की सभी संस्थाएं अपने सांस्कृतिक व्यवहारों से पुरुषों को प्रभुत्वशाली और महिलाओं को वंचित की स्थिति में पहुंचा देती हैं।

आज की बहनों को अपने भाइयों से ही नहीं परिवार और समाज से इस तरह के तोहफों की ज़रूरत है जिनमें ना सिर्फ बहनों को कदम से कदम मिलाकर चलना सिखाएं, बल्कि आज की दुनिया में स्वयं को सुरक्षित रखते हुए वे खुद ही आगे बढ़ें।

ज़रूरत इस बात कि है कि बहनों की रक्षा उनसे हो जो बहनों को आज़ादी से अपनी ज़िन्दगी जीने नहीं दे रहे हैं, जो वह जीना चाहती हैं। उसे आज़ादी उन लोगों से चाहिए जो उसे वह करने नहीं दे रहें जो वह करना चाहती हैं। प्रेम करना तो दूर, प्रेम के मायने भी समझने नहीं दे रहे हैं, उन मान्यताओं से जो उनको आगे पढ़ने नहीं दे रहें और उसकी शादी करने पर आमादा हैं और बहनों को आत्मनिर्भर बनने नहीं दे रहे हैं।

ज़ाहिर है परिवार और समाज को अपने समाजीकरण के पाठ को बदलने की ज़रूरत है। मौजूदा वक्त में अधिक ज़रूरी यह है कि हम और समाज यह समझे कि त्यौहारों में अब संबंधों की मिठास को तभी बनाए रखा जा सकता है जब कोई भी त्यौहार या सामाजिक व्यवहार यह महसूस ना कराए कि भाइयों को अपनी बहनों की रक्षा करनी है क्योंकि वह कमज़ोर है।

मौजूदा दौर में भाई और बहनों को सामाजिक-सांस्कृतिक चौहद्दियों को तोड़कर रिश्तों में आत्मविश्वास और मिठास भरना अधिक ज़रूरी है क्योंकि नई पीढ़ी परंपराओं को सहजते हुए नए रिश्तों के कैनवास पर नई तस्वीरें भी ऊकेर रही हैं।

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