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जेल में बंद हज़ारों विचाराधीन कैदियों की आज़ादी पर क्यों नहीं होती बात

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हर किसी को अपनी आज़ादी प्यारी होती है, फिर चाहे वह इंसान हो या फिर पशु-पक्षी। आज हम अपनी आज़ादी की 72वीं वर्षगांठ का उत्सव मना रहे हैं। साल में एक दिन ही सही, लेकिन हम अपनी इस आज़ादी को महसूस तो करते हैं, लेकिन हमारे देश की जेलों में वर्षों से बंद उन कैदियों के बारे में कभी सोचिए, जो इस एक दिन की आज़ादी के लिए भी वर्षों से तरस रहे हैं। इस आज़ादी की बाट जोहते न जाने कितनी आंखें पथरा गयीं, कितने जिस्मों में झुर्रियां चढ़ आयीं और कितनी ही ज़िंदगियां काल के ग्रास में समा गईं। क्या इनकी आज़ादी सरकार और प्रशासन के लिए कोई मायने नहीं रखती?

वर्ष 2016 में फिल्म निर्देशक ओमंग कुमार ने अपनी फिल्म ‘सरबजीत’ के ज़रिये लोगों को यह बताने की कोशिश की थी कि किस तरह से एक निर्दोष और गरीब किसान नशे में धुत होकर भारत की सीमा पार करके पाकिस्तान चला जाता है और फिर वहां उसे उस गुनाह के लिए, जो उसने कभी किया ही नहीं था, तमाम तरह की यातानाएं सहनी पड़ती हैं। भारत की जेलों में भी ऐसे ना जाने कितने ‘सरबजीत’ बंद हैं। और ज़्यादा अफसोस की बात है यह है कि वे पाकिस्तानी नहीं, बल्कि ‘हिंदुस्तानी’ होने के बावजूद यातनापूर्ण कैद का दंश झेल रहे हैं।

ऐसे कैदियों में से करीब 67 फीसदी ऐसे विचाराधीन कैदी हैं, जिन्हें ट्रायल, इंवेस्टीगेशन अथवा इंक्वॉयरी के दौरान प्रतिबंधित (detained) कर दिया गया, लेकिन अब तक न्यायालय द्वारा उन्हें अपराधी घोषित नहीं किया गया है। अंतराष्ट्रीय परिपेक्ष्य में देखें, तो भारत के जेलों में बंद कैदियों की ये संख्या यूके (11%), यूएस (20%) और फ्रांस (29%) की तुलना में कहीं ज़्यादा है।

इनमें भी जमानती कैदियों की संख्या शामिल नहीं है। अर्थात वैसे कैदी, जो जमानत मिल जाने के बावजूद गरीबी या किसी अन्य मजबूरी की वजह से अपनी जमानत देने में सक्षम नहीं हो पाते, वे निरपराध घोषित होने के बावजूद भी जेलों में सड़ने को मजबूर हैं। अगर विचाराधीन कैदियों में इन कैदियों की संख्या को भी मिला लिया जाये, तो यह संख्या शायद लाखों में पहुंच जायेगी।

भारतीय जेल सांख्यिकी : 2015 के अनुसार, भारतीय जेलों की सबसे बड़ी समस्या क्षमता से अधिक संख्या में कैदियों का होना है> 31 दिसंबर, 2014 तक भारत में कुल 1387 जेल हैं, जिनकी कुल क्षमता 3,56,561 कैदियों की है, जबकि वास्तव में वहां 4,18,536 कैदी  (114.4 फीसदी) रह रहे हैं। इस कारण यहां साफ-सफाई को मेंटेन करना या कैदियों को आधारभूत सुविधाएं भी उपलब्ध करवाना मुश्किल होता है।

वर्ष 20015 से प्रभावी आइपीसी की धारा-436A के प्रावधान के अनुसार, जिन विचाराधीन कैदियों ने अपने द्वारा किये जानेवाले ‘अपराध’ (अगर वे साबित हो जाते) के लिए मिलनेवाले दंड का आधा समय जेल में गुज़ार लिया हो, वे व्यक्तिगत अनुबंध अथवा जमानत पर रिहा हो सकते हैं। इसके बावजूद विचाराधीन कैदियों को अक्सर लंबे समय तक सलाखों के पीछे रहना पड़ता है। यह प्रावधान मृत्यु दंड अथवा उम्रकैद प्राप्त कैदियों पर लागू नहीं होती है और जेल सांख्यिकी- 2014 के अनुसार, आइपीसी के तहत करीब 39% अपराधियों मृत्यु दंड या उम्र कैद की सज़ा नहीं दी जा सकती है।

भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार, भारत में जेलों के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। प्रत्येक राज्य में जेल प्रशासन तंत्र एक सीनियर रैंक के आइपीएस अधिकारी के अधीन होता है जिसे जेल अध्यक्ष कहते हैं। भारतीय जेलों की तीन प्रमुख समस्याएं हैं, क्षमता से अधिक कैदियों की संख्या, पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों का ना होना और समुचित फंड की कमी। इस वजह से कैदी अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर होते हैं और आये दिन जेल प्रशासन के साथ उनकी झड़प की खबरें भी आती रहती हैं।

उचित कानूनी एवं सामाजिक समर्थन का अभाव

”जिस इंसान के पास सामाजिक स्वतंत्रता नहीं है, उसकी कानूनी स्वतंत्रता भी किसी काम की नहीं होती।”- भगत सिंह

भारतीय संविधान द्वारा प्रदत मूल अधिकारों के संदर्भ में देखा जाये, तो कानून की नज़र में जब तक किसी व्यक्ति का अपराध साबित नहीं हो जाता, उसे ‘अपराधी’ नहीं माना जा सकता। इसके बावजूद हज़ारों विचाराधीन कैदी आज अपराधियों की तरह जेल की यातनाएं सहने पर मजबूर हैं। आये दिन उन्हें जेल के अंदर होनेवाली हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है। इन सबका सीधा असर उनके मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। जेल में रहने के दौरान कई कैदियों की मौत हो जाती है, कई अपने परिवार या पड़ोसियों को खो देते हैं, कईयों के घर की पीढ़ियां बचपन से जवानी या जवानी से बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच जाती हैं। इसके अलावा हमारे समाज में जेल की सज़ा काट कर आये कैदी को हमेशा से ही हिकारत भरी नज़रों से देखा जाता रहा है। अगर किसी को जमानत मिल भी गयी, तो भी बार-बार अदालत में पेशी होने की वजह से उसे कहीं जॉब मिलने में परेशानी होती है।

विचाराधीन कैदियों को कानूनी सहायता भी मुश्किल से मिल पाती है। ऐसे ज़्यादातर कैदी गरीब हैं जिन पर छोटे-मोटे अपराध करने का आरोप है। बावजूद इसके वे लंबे समय से जेलों में बंद है, क्योंकि ना तो उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी है और ना ही कानूनी सलाहकारों तक उनकी पहुंच है। महात्मा गांधी के शब्दों में- ”जिस स्वतंत्रता में गलती कर पाने का अधिकार शामिल नहीं हो उस स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है।”  भारतीय संविधान की धारा-21 ने भी भारत के हर व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार दिया है। संविधान यह कहता है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जायेगा। इसी को ध्यान में रखते हुए पिछले वर्ष माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक अहम फैसले में अधीनस्थ न्यायालयों को सभी आपराधिक मामलों की जल्द-से-जल्द स्पीडी ट्रायल के लिए सुलझाने का निर्देश जारी किया था। यह फैसला निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है, किंतु पर्याप्त बुनियादी सुविधाओं के अभाव में इस फैसले को वास्तविक रूप से अमलीजामा पहनाना उतना ही मुश्किल है।

क्षमता से अधिक कैदियों का भार

एनसीआरबी द्वारा जारी भारतीय जेल सांख्यिकी के अनुसार, भारतीय जेलों में उनकी वास्तविक क्षमता से करीब 14% अधिक कैदी रह रहे हैं। इनमें से करीब दो-तिहाई से भी अधिक कैदी विचाराधीन हैं। छत्तीसगढ़ और दिल्ली  क्रमश: पहले और दूसरे स्थान पर हैं, जहां यह दर दोगुने से भी अधिक है। मेघालय में यह दर करीब 77.9% , यूपी में 68.8% तथा मध्यप्रदेश में 39.8% है। विचाराधीन कैदियों के मामले में यूपी (62,669) पहले नंबर पर है. उसके बाद क्रमश: बिहार (23,424) और महाराष्ट्र (21,667) का स्थान है। राज्यवार दृष्टिकोण से विचाराधीन कैदियों की सर्वाधिक दर (82%) बिहार में है।

वर्ष 2014 में कुल 36 में से 16 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में करीब 25 फीसदी कैदी प्रतिबंधित थे, जिनमें से सर्वाधिक (54%) कैदी जम्मू-कश्मीर की जेलों में और उसके बाद क्रमश: गोआ (50%) तथा गुजरात (42%) में थे। ऐसे कैदियों की संख्या की दृष्टि से यूपी (18,214) टॉप पर था। इसकी मूल वजह बड़ी संख्या में देश के न्यायालयों में मामलों का पेडिंग होना है, जिसका कारण न्यायधीशों और अन्य कर्मचारियों की कमी है. 31 मार्च, 2016 तक भारत के विभिन्न न्यायालयों में करीब 3.1 मामले लंबित थे. करीब 43% विचाराधीन कैदी उतने समय से कहीं अधिक की सजा भुगत रहे हैं, जितना उनके द्वारा किये जानेवाले अपराध के साबित होने पर उन्हें मिलती. ऐसे 2.82 विचाराधीन कैदियों में करीब 55% मुस्लिम, दलित और आदिवासी कैदी हैं. सामूहिक रूप से अगर देखा जाये, तो ये कुल कैदियों की संख्या का करीब 39% हैं. भारतीय जनगणना- 2011 के अनुसार, इनकी आबादी का प्रतिशत क्रमश:  14.2%, 16.6% तथा 8.6% है. इससे पता चलता है कि आज भी इन समुदायों को घोर असमानता के दौर से गुजरना पड़ रहा है.

कर्मचारियों की भारी कमी

भारत के लगभग सभी जेलों में वहां की प्रशासनिक व्यवस्था के सफल संचालन के लिए ज़रूरी कर्मचारियों की भारी कमी है। देश की राजधानी दिल्ली इस कमी से सबसे ज़्यादा जूझ रही है। वहां ज़रूरत से आधे स्टाफ ही है। इसके बाद उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड राज्य आते हैं, जहां कुल ज़रूरी कर्मचारियों के करीब 65% पद रिक्त हैं। पर्याप्त संख्या में जेल कर्मचारियों की कमी होने से ही आये दिन जेलों के अंदर की कुव्यवस्था की खबरें उजागर होती रहती हैं। जेलों में बंद प्रभावशाली लोग भी इस कमी का जमकर फायदा उठाते हैं और कर्मचारियों को घूस देकर जेल में रहते हुए भी हर तरह की सुख-सुविधा का लाभ उठाते हैं।

वहीं दूसरी ओर सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े हुए कैदियों को आधारभूत सुविधाएं भी मुहैया नहीं हो पाती। इसी वजह से भारत में बड़े व प्रभावशाली लोगों को कानून का डर नहीं रह गया है. उन्हें यह अच्छी तरह पता है कि चाहे वे जेल के अंदर रहें या बाहर, उनकी सुख-सुविधाओं में कोई कमी नहीं होनेवाली।

भारत में एक मज़बूत मुखबिर सुरक्षा कानून (Whistleblower Protection Act) ना होने और क्षमता से अधिक कैदियों की भीड़ एवं कर्मचारियों की कमी को दूर करने के लिए किसी संरचनात्मक ढांचे के अभाव में, भारतीय जेल राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लोगों के लिए ‘स्वर्ग’ और गरीबों के लिए ‘नरक’ बने हुए हैं।

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