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उन शेल्टर होम्स की बच्चियों के लिए स्वतंत्रता दिवस आया ही नहीं

आज जब मैं भारत के 72वें स्वतंत्रता दिवस पर देश के शेल्टर होम्स में बच्चियों के लिए आज़ादी के मायने के बारे में सोचता हूं तो यही लगता है कि समाज में समानता के अभाव ने स्वतंत्रता के हर भाव को खोखला ही किया है।

शेल्टर होम्स की बच्चियों के लिए आज़ादी के मायने यही हो सकते हैं कि वह किसी तरह अंधेरे, सीलन भरे कमरे और रोज़-रोज़ की यातनाओं से मुक्ति पाकर, किसी तरह खुली हवा में सांस ले सके।

आज़ादी के मायने उन बच्चियों के लिए क्या होंगे, जो भूख से मर गईं, फिर चाहे वह दिल्ली की हो, झारखंड की या नावाडीह की। शायद उनके लिए आज़ादी उनकी भूख से मुक्ति का सपना हो। समय पर पेट भर खाना ही उनके लिए आज़ादी की नेमत हो।

अपने आस-पास खोजे तो इस तरह की कई कहानियां मिल जाएंगी, जिनके लिए आज़ादी के मायने आपको झकझोड़ने के लिए काफी है। मौजूदा सरकार की प्रसिद्ध योजना “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” के आलोक में ही बच्चियों के हालात को देखने की कोशिश करें तो बच्चियों के हालात बता देंगे कि बेटियों के लिए आज़ादी के मायने आज भी मूलभूत चीज़ों के लिए मयस्यर है। जो यह सिद्ध कर देते हैं कि लालकिले के प्राचीर पर मनाया गया स्वतंत्रता दिवस का उत्सव देश की राजनीतिक आज़ादी का उत्सव है, जिसमें उच्च वर्ग के साथ मध्य वर्ग भी शामिल है और देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अपनी सामाजिक और आर्थिक आज़ादी के लिए टकटकी लगाए हुए है।

ज़ाहिर है कि देश में बच्चियों की बड़ी आबादी के लिए 15 अगस्त 1947 आया ही नहीं है। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने इन खतरों के प्रति आगह किया था कि यदि देश में आर्थिक-सामाजिक असमानता की खाई नहीं पाटी गई तो यह स्थिति राजनीतिक लोकतंत्र के लिए भी खतरा पैदा कर सकती है।

15 अगस्त 1949 को संविधान सभा में दिए अपने भाषण में उन्होंने कहा था,

राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत को मान रहे होंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक ढांचे की वजह से हम अपने-अपने सामाजिक-आर्थिक जीवन में हर व्यक्ति की एक कीमत नहीं मानते। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता को हम कब तक नकारते रहेंगे?

उनकी यह आशंका सही सिद्ध हुई।

एक बड़ा तबका अभी भी सामाजिक और आर्थिक आज़ादी से महरूम है। यह वर्ग अपनी शादी में घोड़ी चढ़े और मंदिरों में बेरोकटोक जाए, इन सामाजिक आज़ादी तक से महरूम है।

एक सामान्य युवक यह तो चाहता है कि उसे प्रेम करने की आज़ादी मिले लेकिन यही काम जब उसकी बहन करती है तो जब-तब उसकी जान भी ले लेता है। भले ही रक्षा बंधन में उसे खुश रखने की दुहाई देता है। कुल मिलाकर हम जिस राजनीतिक परिवेश में रह रहे हैं, वहां सामाजिक-आर्थिक समानता के लोकप्रिय संदेशों को पढ़ रहे हैं, समझ रहे हैं पर खुद को या अपने परिवार को इस परिवेश में चिन्हित नहीं कर रहे हैं?

समझने की ज़रूरत यह है कि आज़ादी का मतलब यह है कि अपनी आज़ादी के साथ दूसरे की आज़ादी का भी सम्मान हो। इस दिशा में बढ़ना तो दूर, सोचना भी हमें गंवारा नहीं है। इस 72वें स्वतंत्रता दिवस पर यह कामना करना चाहिए कि हर कोई एक-दूसरे की आज़ादी का सम्मान करे। हमारी अाज़ादी तभी सार्थक हो सकती है जब समाज में समानता हो और लोकतंत्र हो। हमें अपने जीवन में आज़ादी के मायने उतारने होंगे, तभी हम सामाजिक-आर्थिक आज़ादी की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे।

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