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“क्यों मुझे लगता है कि यह समाज धर्म और ईश्वर से मुक्त होना चाहिए”

धर्म बहुत घिसा-पिटा शब्द है। एक चीज़ (यानि धर्म) जिसका किताब में अर्थ बहुत मीठा-मीठा है पर व्यवहार में वह बहुत कड़वा है। इतिहास के लम्बे दौर में क्या होता है? धर्म गुरुओं के कथनों और कहानियों का संकलन होता है। उसके दर्शन पर उस नए धर्म की नींव रखी जाती है और फिर एक युग के बाद सब बदल जाता है। किताबों के सिद्धांत व दर्शन में, उस धर्म के अनुयायी उसे अच्छा-अच्छा कहेंगे पर व्यवहार में लोग उस चीज़ को उसके कड़वेपन के लिए जानेंगे।

धर्म पुरानी परम्पराओं, रीति-रिवाज़, तात्कालिक नियमों आदि में हमेशा बिना परिवर्तन के उसी रूप में लागू करने की हठ के कारण, कई कुरीतियों का वाहक है। धर्म की व्याख्याएं अपने में सुधार नहीं करती और मूढ़ लोग उसके लिए तैयार भी नहीं होते। फिर गलत व्याख्या व व्यवहार ही गलत धर्म की मूलभूत विशेषता हो जाती है। धर्म ईश्वर, आडम्बर, अन्धविश्वास, जातिभेद, शोषण का भी वाहक है।

धर्म लोगों को पहले विश्वास करने को कहता है, जानने को लगातार हतोत्साहित करता है इसलिए भी यह आज के समाज के लिए खतरनाक है।

धर्म मतलब आज हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, सिख धर्म आदि है। तो यह एक ठप्पा है, जो आपस में मानवता को बांटती है और द्वेष पैदा करती है। धर्म दंगों का कारण है, राजनीति में धर्म लोगों को बेवकूफ बनाने का टूल है।

धर्म-जाति में लोगों को बांटकर और कभी-कभी दंगों तक में इंसानियत को झोंककर राजनीति सत्ता पर काबिज़ होने से गुरेज़ नहीं करता।

हो सकता है ऐतिहासिक दौर में यह मानवता के लिए ज़रूरी कॉन्सेप्ट रहा हो, जब कानून, संविधान, देश, नैतिकता बहुत परिभाषित नहीं थी पर यह आज यह इंसानियत के लिए गैर-ज़रूरी चीज़ है, जिसके नुकसान बहुत हैं, फायदे बहुत कम।  इसलिए इसका खात्मा कर नई नैतिकता गढ़ने की ज़रूरत है जो ईश्वर और धर्म से मुक्त हो।

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