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“मुझे अधिकार है यह तय करने का कि मैं अटल जी को किस सीमा तक स्वीकार करता हूं”

Atal Bihari vajpayee's communal speeches

भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन से कुछ घंटे पहले मैंने लिखा था कि मेरी नज़र में अटल जी सम्मानीय नेता हो सकते हैं, श्रद्धेय नहीं। अपने लेख में मैंने कहीं पर भी उनके व्यक्तिगत जीवन पर कोई टिप्पणी नहीं की थी, बल्कि मैंने उनके वैचारिक कार्यक्रमों के कारण हुई राष्ट्रीय एकता के मानस की क्षति और आज़ादी की लड़ाई में उनकी भूमिका के बारे में लिखा था।

मैंने इसी आशय के साथ कई लोगों के पोस्ट पर टिप्पणियां भी की। इसके बाद मुझे कई तरह की नसीहतें मिली, कुछ अटल जी की स्वीकार्यता के हवाले से, कुछ धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के हवाले से, कुछ संवेदनशीलता के हवाले से भी। इन नसीहतों के साथ कुछ गालियां भी मिली, मेरी परवरिश को कोसा गया, मुझे कॉंग्रेसी दलाल बताया गया, आदि-आदि।

जहां तक अटल जी की स्वीकार्यता की वजह से उनकी आलोचना का अधिकार खो देने का सवाल है, मैं यह कहूंगा कि सार्वजनिक जीवन में कोई स्वीकार्यता कभी भी निरपेक्ष और स्थायी नहीं होती है और जहां स्वतंत्र विचार करने, साथ ही स्वतंत्र प्रचार करने की भी छूट हो वहां तो बिल्कुल नहीं।

कहीं अटल जी की स्वीकार्यता उनके मर्यादित संसदीय व्यवहार की वजह से थी, कहीं उनके आचरण की वजह से, कहीं उनकी ओजस्वी कविताओं की वजह से, कहीं रणनैतिक/सांगठनिक वजह से, कहीं रामजन्मभूमि आन्दोलन या बाबरी मस्जिद ध्वंस की वजह से थी, कहीं उदार दक्षिणपंथी छवि की वजह से थी।

मतलब यह कि कोई व्यक्ति, क्षेत्र या समुदाय किसी व्यक्ति के किस गुण-आचरण की वजह से उसे स्वीकार कर रहा है, यह उस व्यक्ति, क्षेत्र या समुदाय की विचारशीलता पर निर्भर है और यह विचारशीलता प्रचार द्वारा प्रभावित भी होती है। मुझे यह अधिकार है मैं खुद तय कर पाऊं कि मैं अटल जी को किस सीमा तक स्वीकार करता हूं।

यदि स्वीकार्यता कोई तर्क है तो भारत में दक्षिणपंथी शक्तियों द्वारा जिन दो महापुरूषों का सर्वाधिक अमर्यादित, अनुचित और तथ्यहीन चरित्रहनन किया जाता है, वे दोनों ही विश्व की राजनीति में भारत के सर्वस्वीकार्य प्रतिनिधि थे, हैं और रहेंगे, मोहनदास करमचन्द गांधी और पण्डित जवाहरलाल नेहरू।

जहां तक मानवीय संवेदना की वजह से अटल जी की तत्काल आलोचना का अधिकार खो देने का सवाल है तो मैं कहूंगा कि तकनीकी रूप से, मैंने उनके प्रति मर्यादित टिप्पणी उनके निधन से कई घण्टे पूर्व ही की थी, साथ ही उनके मृत्योपरान्त उन्हें सामाजिक शिष्टाचार तथा उनके योगदान का ध्यान रखते हुए श्रद्धाजंलि भी दी थी।

हालांकि यह एक राजनैतिक परम्परा है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि उनकी श्रद्धाजंलि के लिए शब्दों का चयन करते वक्त मुझे भी राजनेताओं की तरह ही ‘पॉलिटीकली परफेक्ट’ होना चाहिए, मैं ‘पब्लिकली करेक्ट’ भी हो सकता हूं। अटल जी एक राजनेता थे, जिनके निर्णयों ने राज व्यवस्था और समाज व्यवस्था दोनों को ही प्रभावित किया था। इसलिए एक दिवंगत राजनेता को श्रद्धांजलि देते समय, या उनके सार्वजनिक जीवन के बारे में कोई टिप्पणी करते समय मैं कितना संवेदनशील होउं, इसके लिए मैं स्वतंत्र हूं।

यदि संवेदना कोई तर्क है तो क्या ट्विटर पर भारत के प्रधानमंत्री द्वारा फॉलो किए जाने वाले कट्टर दक्षिणपंथ के युवा-संवाहकों द्वारा दक्षिणपंथी हिंसाओं के विरूद्ध मुखर पत्रकार गौरी लंकेश से लेकर अन्धश्रद्धा निर्मूलन के लिए सक्रिय डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर तक की हत्या के उपरान्त अत्यन्त निन्दनीय और असभ्य शब्दों का खुलकर प्रयोग के समय इसका ख्याल नहीं रखा जाना चाहिए था?

यदि संवेदना कोई तर्क है तो क्या अटल जी जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे, उस विचारधारा ने सहस्राब्दी के सर्वाधिक अहिंसक सनातनी हिन्दू की हत्या के तुरन्त बाद मिठाइयां नहीं बांटी थी, क्या वह विचारधारा आज़ादी की लड़ाई के महानायक की हत्या को वध के रूप में प्रचारित नहीं कर चुकी है? यदि हां, तो फिर संवेदना के तर्क का दवाब क्यों?

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