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क्यों खुशहाल देशों में ही सबसे ज़्यादा होती हैं आत्महत्या की घटनाएं

अमेरिका के प्रसिद्ध रॉक बैंड ‘लिंकिन पार्क’ के लीड सिंगर चेस्‍टर बेनिंगटन ने पिछले साल जुलाई में आत्‍महत्‍या कर ली थी। चेस्‍टर बेनिंगटन के इस कदम ने सबको चौंका दिया था। एक इंसान जो प्रसिद्ध‍ी के श‍िखर पर हो, जिसकी जीवन शैली दूसरों को प्रभावित करती हो, जिसकी तरह लोग बनना चाहते हों, आखिर उसने आत्‍महत्‍या क्‍यों कर ली? इस सवाल ने सबको परेशान कर दिया। खुशहाली के जो भी मानक (शोहरत-पैसा और आलिशान जीवन शैली) हमने तय किए हैं चेस्‍टर उन सभी पर खरे उतरते नज़र आएं। इसके बावजूद आत्महत्या जैसा कदम क्‍यों? ये सवाल वो अपने पीछे छोड़ गएं।

इसी सवाल से जुड़े एक शोध में सामने आया है कि सबसे खुशहाल देशों में आत्‍महत्‍या के आंकड़े सबसे ज़्यादा हैं। इनता ही नहीं अमेरिका के खुशहाल राज्‍यों का भी ऐसा ही हाल है। यह शोध ब्रिटेन के वारविक विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क में हैमिल्टन कॉलेज और फेडरल रिजर्व बैंक ऑफ सैन फ्रांसिस्को ने संयुक्‍त रूप से किया है। यह रिसर्च सोचने पर मजबूर करता है कि खुशहाल देशों की जीवन शैली में किस बात की कमी है जो लोग आत्‍महत्‍या की ओर बढ़ रहे हैं।

शोध के मुताबिक, जो लोग आमतौर पर अपने जीवन से अधिक संतुष्ट होते हैं, उनकी आत्महत्या दर अधिक होती है। उदाहरण के तौर पर अमेरिकी राज्‍य यूटा जीवन से संतुष्‍टी के मामले में पहले स्‍थान पर है लेकिन आत्‍महत्‍या के मामले में ये नौवें स्‍थान पर है। जबकि न्यूयॉर्क को जीवन संतुष्टि में 45वां स्थान प्राप्‍त है, फिर भी यहां आत्‍महत्‍या की दर सबसे कम है।

अकेलेपन का श‍िकार हो रहें लोग-

इस शोध में शामिल वारविक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एंड्रयू ओसवाल्ड का कहना है,

खुशी और आत्महत्या दरों के बीच के लिंक को हम ऐसे समझ सकते हैं कि लोग खुद की तुलना दूसरे से करते हैं। खुशहाल जगहों में कई बार लोग एक दूसरे से मिल नहीं पाते, उन्‍हें अकेलेपन का भी श‍िकार होना पड़ता है। ऐसे में आत्महत्या का जोखिम बढ़ जाता है।

दुख को ज़ाहिर करने का तरीका बन रही आत्महत्या-

इस शोध पर किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज (केजीएमयू) के वृद्धा अवस्‍था मानसिक विभाग के हेड श्रीकांत श्रीवास्‍तव का कहना है, “मैंने यू.के. में 14 साल (1997-2011) काम किया है और वहां सुसाइड के बढ़ते आंकड़ों को देखा है। दरसअल, सुसाइड आज के वक्‍त में दुख को ज़ाहिर करने का का तरीका भी हो गया है। छोटी-छोटी बातों पर लोग नस काटने का प्रयास करते हैं या फिर पैरासिटामॉल की 5 गोलियां खा लेते हैं। ऐसे लोग सिर्फ अपने दुख को ज़ाहिर करना चाहते हैं। जब हॉस्‍पिटल में इन्‍हें ले जाया जाता है तो वहां इसे आत्‍महत्‍या की कोश‍िश के तौर पर दर्ज कर लिया जाता है”।

लोग सिस्‍टम से खुश, व्‍यक्‍तिगत तौर पर दुखी-

वहीं श्रीकांत श्रीवास्‍तव का ये भी कहना है कि बढ़ती व्‍यस्‍तता, काम का बोझ और टूटते संबंधों की वजह से भी आत्‍महत्‍या के मामले बढ़ते जाते हैं। खुशहाल देश वहां के सिस्‍टम की वजह से खुशहाल है। इस सिस्‍टम से वहां के लोग भी खुश होते हैं लेकिन व्‍यक्‍तिगत तौर पर वो कितना खुश हैं ये शोध का विषय है।

उनके मुताबिक अवसाद एक बहुत बड़ी वजह है आत्‍महत्‍या के पीछे की और अवसाद तब ज़्यादा हावी हो जाता है जब अकेलापन भी हावी हो रहा हो। मनुष्‍य एक सामाजिक प्राण‍ी है, ये हम बचपन से पढ़ते आए हैं लेकिन अब सामाजिक दायरा सिर्फ सोशल मीडिया तक सीमित हुए जा रहा है। लोग सोशल मीडिया के माध्‍यम से ही बात करते हैं लेकिन ये बात दूरी को कम नहीं कर पाती। ऐसे में लोग अकेले होते जा रहे हैं। सोशल ना होना भी एक वजह हो सकती है आत्‍महत्‍या के पीछे की।

दूसरो की फेक लाइफ स्‍टाइल से प्रभावित होना-

वहीं आज की शहरी जीवनशैली में बहुत ही तनाव है। लोग इस तनाव से हटने के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं और सोशल मीडिया झूठ का पुलिंदा है, जहां ज़्यादातर लोग खुशहाल ही नज़र आते हैं। हम अपनी खुशी के पलों को ही यहां साझा करते हैं, ऐसे में लोग खुद की जीवनशैली को दूसरे की जीवनशैली से तुलना करते हैं और बहुत हद तक कुंठित होने का ये कारण ये भी है।

ये ऐसा ही जैसे हम दो जीवन जी रहे हों, एक जो वास्‍तविक है, जिसमें हंसना, रोना, गुस्‍सा, दुख, खुशी जैसे तमाम भाव हैं, वहीं दूसरे जीवन को हमने खुद के हिसाब से बनाया है। उसमें सिर्फ और सिर्फ खूबसूरती है, खुशहाली है। ये वो जीवन है जो हम दूसरों को दिखाना चाहते हैं, जिसे हम सोशल मीडिया पर परोस रहे होते हैं। इसलिए ये पूरी तरह से फेक लाइफस्‍टाइल है। इससे प्रभावित होने की ज़रूरत नहीं है।

इस शोध से यह तो पता चल गया है कि खुशहाल देशों में सबकुछ सही नहीं चल रहा है। यहां लोग परेशान हैं और इस परेशानी की वजह पर भी एक शोध होना चाहिए क्‍योंकि जब खुशहाल देशों का ये हाल है तो हम किस खुशहाली को पाने की चाह में हैं? उस खुशहाली को जहां आत्‍महत्‍या के आंकड़े बढ़ रहे हों, जहां लोग अकेले होते जा रहे हैं। हमें तय करना होगा कि खुशहाली के असल मानक क्‍या हैं। क्‍या वो पैसा ही है या इसके इतर भी कुछ है जो हमारी नज़रों से ओझल हुए जा रहा है।

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