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“सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानसेवक को लोकतांत्रिक आवाज़ों से डर क्यों लगता है?”

पिछले दिनों पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इन पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में वरवर राव, अरुण फरेरा, वर्नोन गान्जल्विस, सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा शामिल हैं। इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने के साथ-साथ प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने का आरोप है। सबसे पहले बात करते हैं इन पांच नामों की-

1. सुधा भारद्वाज- 57 वर्षीय सुधा भारद्वाज वरिष्ठ अधिवक्ता हैं तथा इस देश में मानवाधिकारों के लिए काम करने वालों में एक बड़ा नाम हैं। इन्होनें मज़दूरों और ट्रेड यूनियन के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी है और वर्तमान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित संस्था पीयूसीएल (पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़) की छत्तीसगढ़ इकाई की महासचिव हैं।

2. अरुण फरेरा- 48 वर्षीय अरुण, पेशे से वकील हैं और मानवाधिकारों के लिए काम करते आए हैं। इनपर पूर्व में भी कई आरोप लगते आए हैं मगर 2014 में न्यायालय द्वारा इन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया।

3. वर्नोन गान्जल्विस- 60 वर्षीय वर्नोन गान्जल्विस मानवाधिकारों के लिए लम्बे वक्त से काम करते आ रहे हैं।

4 . गौतम नवलखा- 65 वर्षीय गौतम नवलखा, पेशे से पत्रकार हैं। ये मानवाधिकार के लिए ही सजग रूप से काम करते आ रहे हैं। वर्त्तमान में ये इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में एक संपादक रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

5 . वरवर राव- 78 वर्षीय राव साहब, तेलंगाना राज्य से हैं और एक कवि तथा लेखक हैं। ये क्रान्तिकारी लेखक संगठन (रिवॉल्यूशनरी राइटर्स एसोसिएशन) के संस्थापक हैं।

बता दें कि इन सभी नामों पर ‘अर्बन नक्सल’ होने का टैग लगा दिया गया है।

इन पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कभी भी किसी भी तरह के हिंसात्मक कृत्य को बढ़ावा नहीं दिया। आश्चर्य की बात ये है कि आज के दौर में जहां दंगा-फसाद करने वालों को मंत्री सम्मानित करते हैं, वहीं मानवाधिकारों के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं और समाजसेवियों को झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल में डाला जा रहा है। जिस जयप्रकाश नारायण के नाम पर आज भी वोट बटोरे जा रहे हैं, उन्हीं की बनाई संस्था से जुड़े लोगों को तंग किया जा रहा है।

जो लोग कल तक आम जनता के मानवाधिकार के लिए काम करते थें, आज उन्हीं के मानवाधिकारों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। ऐसे-ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं, जो बेहद बचकाना है। एक लोकतंत्र के लिए ये कहां तक उचित है कि लोकतांत्रिक मूल्यों से ही समझौता किया जाए? क्या आज वो दौर आ चुका है, जब हत्यारों और समाजसेवियों में कोई अंतर कर पाने में सरकारें, न्यायपालिका और पुलिस असमर्थ साबित हो रही हैं? यूपी में किसी ज़माने में आज़म खान की भैंसे चोरी हुई थीं, तो पुलिस ने दो दिन के अंदर भैंसे बरामद कर ली थी। यहां तथाकथित रूप से प्रधानमंत्री को मारने की साजिश चल रही थी और पुलिस को पांच महीने लग गए आरोपियों को पकड़ने में?

डर और भय का एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि लोग अपने हक की बात करने से भी कतरा रहे हैं। क्या गांधी और भगत सिंह के इस देश में, लोकतांत्रिक तरीके से मानवाधिकार की बातें करना अपराध है? पिछले कुछ सालों में ऐसे सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों पर जिस तरह से शिकंजा कसा जा रहा है, वो किसी भी तरह से सही नहीं है। सबसे दुख की बात ये है कि ये उन सरकारों द्वारा किया जा रहा है, जो लोकतंत्र द्वारा चुनी गई हैं। चुनी हुई सरकारों का चुनिंदा लोगों के लिए काम करना वाकई गलत है।

किसी ज़माने में कॉंग्रेस के खिलाफ जनांदोलन इसी लिए खड़ा हुआ था क्योंकि वो लोकतांत्रिक मूल्यों से समझौता करने लगी थी। उस वक्त यही लोग, जो आज सरकार में बैठे हैं, लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं थकते थे। लोहिया और जेपी जैसे नेता क्या बस अब वोट मांगने के साधन बन गए हैं? ये सच में अंतर्मन को हिलाकर रख देने वाली घटना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक आवाज़ों को दबाया जा रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री लोकतंत्र का नायक होता है मगर सवाल ये है कि लोकतंत्र के नायक को लोकतान्त्रिक आवाज़ों से डर क्यों लगता है?
ऐसे में गोरख पांडेय की ये कविता काफी प्रासंगिक लगती है-

 वे डरते हैं

 किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद?

 वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे।

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