आज 14 सितम्बर है यानी हिंदी दिवस का मौका। हर साल की तरह देश में इसको लेकर कई समारोह आयोजित किये जा रहे हैं, स्कूलों में भाषण, वाद-विवाद, लेखन, नाटक, कवि सम्मेलन आदि प्रतियोगिताएं आयोजित की जा रही हैं। हिंदी भाषा का छात्र होने के नाते, आज मेरा फर्ज़ है कि मैं हिंदी भाषा की मौजूदा स्थिति से जुड़ी कुछ बातें लिखूं।
मैं यह बताऊं कि आज हिंदी भाषा जिस जगह पर खड़ी है, उसके लिए कौन से लोग और घटनाक्रम ज़िम्मेदार हैं। इससे पहले मैं अपनी बात लिखना शुरू करूं, मैं यह साफ कह देना चाहता हूं कि इस पोस्ट में लिखी बातें मेरा सत्य हैं, जिन्हें मैंने अपने 23 साल के जीवन से प्राप्त हुए अनुभवों से हासिल किया है। ये सत्य आपको बुरा और आहत करने वाला लग सकता है, मगर एक लेखक होने के नाते मेरा यह दायित्व बनता है कि मैं आपको आहत करूं और आपकी सोई हुई चेतना को जगाऊं।
इस पोस्ट को मैंने तीन हिस्सों में बांट दिया है, जिससे यह स्पष्ट रूप में समझा जा सके कि हिंदी की यात्रा किस तरह होते हुए वर्तमान गंतव्य तक पहुंची है।
सबसे पहले अगर हम उस घटना या बिंदु की बात करें, जिसने हिंदी भाषा के पतन की नींव रखी तो उसके लिए हमें इतिहास में जाना पड़ेगा। अंग्रेज़ जब भारत में आए और उनके मन में भारत पर शासन करने की महत्वकांक्षा ने जन्म लिया तो उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि इतने बड़े देश पर राज कैसे किए जाए। इस सवाल का जवाब खोजने के लिए कई अंग्रेज़ विद्वानों ने चिंतन किया और उससे एक निष्कर्ष निकला। वह ये कि हर राष्ट्र की बुनियाद उसकी सभ्यता, संस्कृति और भाषा के गौरव पर खड़ी होती है। कला, भाषा वे जड़े हैं जिनको सींचने से राष्ट्र मज़बूत और स्वाभिमानी बनता है।
अत: अगर किसी राष्ट्र को गुलाम बनाना है तो सबसे पहले उसके नागरिकों के मन में उनकी सभ्यता, संस्कृति, कला, भाषा के प्रति हीन भावना पैदा करो। साथ ही उनके विचारों को इस तरह परिवर्तित करो कि उन्हें दूसरों की भाषा, संगीत, सभ्यता उत्तम दिखाई देने लगे। जब ऐसा हो जाता है तो उस राष्ट्र का पतन शुरू हो जाता है।
19वीं शताब्दी के मध्य तक इसी विचार को अमल में लाते हुए अंग्रेज़ों ने सबसे पहले भारत की शिक्षा व्यवस्था को बुनियादी स्तर पर बदल दिया। इसके साथ ही उन्होंने यह स्थापित किया कि भारत की शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है और वह वैश्विक बदलाव के सामने मौज़ू (relevant) नहीं है। अत: अगर भारतीयों को अपने जीवन स्तर को सुधारना है और वक्त की रफ्तार के साथ चलना है तो उन्हें अंग्रेज़ी भाषा, सभ्यता को अपनाना पड़ेगा। इस तरह भारत की दासता का काल शुरू हुआ, साथ ही शुरू हुआ हिंदी भाषा के पतन का दौर।
इसके बाद जो बड़ी घटना हिंदी की यात्रा को प्रभावित करती है वह है भारत की आज़ादी या कहिए भारत का विभाजन। सन् 1947 भारत विश्व का पहला राष्ट्र था, जो मज़हबी बुनियाद पर बंट रहा था। इसमें कई करोड़ लोग विस्थापित हुए और कई लाख लोगों की जान गई। इसके साथ ही हमेशा-हमेशा के लिए दिलों को बांटने वाली प्रक्रिया की नींव रख दी गई थी। अचानक से हिंदी हिन्दुओं की और उर्दू मुसलमानों की ज़ुबान बन गई थी।
भारत की साझी ज़ुबान हिन्दोस्तानी भी भारत के विभाजन के घाव अपने शरीर पर महसूस कर रही थी। इसका सीधा असर यह हुआ कि हिंदी वाले पंडित जी की दूकान अचानक चमक गयी और उर्दू वाले मौलाना साहब के फाके (भुखमरी) के दिन आ गये। स्कूलों में वह हिंदी पढ़ाई जाने लगी जिसे हम सरकारी हिंदी या संस्कृत के प्रभाव वाली हिंदी कहते हैं। इसके साथ ही मुसलमानों के मदरसों में हिन्दोस्तानी ज़ुबान उर्दू की जगह फारसी और अरबी से प्रेरित उर्दू पढ़ाई जाने लगी। यही से हिंदी को दूसरा झटका लगा और धीरे-धीरे हिंदी सरकारी कार्यालयों और लाइब्रेरी में सिमटती चली गई।
हालत अभी भी काबू में थे जब तक हिंदी तो तीसरा और सबसे तगड़ा झटका नहीं लगा। यह झटका था भारत में वैश्विकरण के दौर की शुरुआत का। सन् 1991 में भारत के बाज़ार विश्व के लिए खुले तो उसके साथ कई बदलाव आए। अब भारत में सुई से लेकर हवाई जहाज बनाने के लिए विश्व की तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने कारखाने स्थापित करने लगी थीं। भारत एक बहुत बड़ा बाज़ार था और इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रूप में हिन्दुस्तानियों को नई तकनीक के ज़रिए आरामदायक ज़िंदगी का ख्वाब दिखाई देने लगा था।
अब इन कंपनियों को अपने कारखानों में काम करने के लिए मानव संसाधन की ज़रूरत थी। एक ऐसा कामगार जो स्किल्ड हो। इसी के साथ भारत में कॉन्वेंट स्कूलों का चलन शुरू हुआ। हर कोई अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में अंग्रेज़ी शिक्षा के लिए भेजने लगा ताकि उनके बच्चों को आगे अच्छी नौकरी मिले।
अंग्रेज़ी अब कारोबार और रोज़गार की भाषा बन रही थी। इन सबका यह असर हुआ कि सरकारी स्कूल और सरकारी हिंदी धीरे-धीरे अपने सबसे बुरे कालखंड में प्रवेश कर गई। जो बच्चे अंग्रेज़ी मीडियम में पढ़ते वह हिंदी बोलने पर जुर्माना भरते। अब ऐसे माहौल में कैसे हिंदी सांस लेती। उसपर निरंतर इन कॉन्वेंट स्कूलों में हिंदी की दयनीत हालत का मातम मनाया जाता। इन सबके चलते समाज में हिंदी को लेकर दोगलापन अपने चरम पर था।
इन सबमें उन लोगों की बड़ी भूमिका रही जो खुद को हिंदी भाषा के स्वयंभू कहलवाते थे। इन मठाधीशों ने अपनी-अपनी दूकान जमाने के सिवाय कुछ ना किया। अलग-अलग यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए इन विभूतियों ने अपने लिए पुरस्कार और सम्मान बंटोरे और हिंदी को उसके हाल पर मरने दिया।
उस समय जो भी लेखक अच्छा और सच्चा साहित्य रचकर हिंदी की सेवा कर रहे थे, उनके पास रोटी खाने के लिए पैसे नहीं थे। चाहे निराला हों, बाबा नागार्जुन हों, शैलेश मटियानी हों, सआदत हसन मंटो हों, प्रेमचंद हो या अन्य कुशल लेखक हों सभी का शोषण प्रकाशकों और हिंदी समाज के स्वघोषित भगवानों ने किया।
हरिशंकर परसाई और मनोहर श्याम जोशी इस विषय में यह कहते पाए जाते हैं कि बिना चापलूसी, चाटुकारिता और पांव दबाने के कोई भी नवयुवक साहित्य का छात्र, हिंदी साहित्य के क्षेत्र में शिखर पर नहीं पहुंच सकता है। उसे अगर सम्मान और पुरस्कार चाहिए, उसे अगर हिंदी पत्रिकाओं में नाम चाहिए तो उन्हें प्रकाशकों से लेकर मठाधीशों के तलवे चाटने होंगे। इसका नतीजा यह हुआ कि हिंदी का साहित्यकार साहित्य रचना से विमुख होने लगा।
इसका एक उदाहरण और है। हिंदी के वरिष्ठ लेखक पंकज बिष्ट बताते हैं कि हिंदी समाज में हिंदी के लेखक को जायज़ मेहनताना देने का रिवाज़ ही नहीं था। जब एक साल खर्च करने के बाद उसे अपने उपन्यास को बेचकर 1 लाख रुपये नहीं मिल सकते तो वह कैसे जीवन यापन करेगा।
अगर साल में लिखकर 1 लाख रुपया भी नहीं कमा सकें तो व्यर्थ है ऐसा लेखक। मशहूर लेखक निर्मल वर्मा ने भी अपने एक इंटरव्यू में कहा कि उनकी तमाम किताबों से उन्हें बमुश्किल साल में 20- 30 हज़ार रुपये रॉयलिटी मिलती है। अब बताइए ऐसे में कैसे हिंदी साहित्य बचेगा और कैसे हिंदी भाषा का संवर्धन होगा। अब जब रोटी, कपड़ा, मकान, नौकरी सब अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान से मिलेगी तो क्यों कोई हिंदी की किताब लिखेगा और पढ़ेगा।
आज भी अगर हम साहित्यिक हलकों में देखें तो स्थिति वैसी ही है। चापलूसी, चाटुकारिता, मठाधीशी उसी तरह विराजमान है। प्रकाशक आज भी उसी तरह पैसे लेकर लेखकों को छाप रहे हैं। रॉयलिटी से लेखक दो वक्त की रोटी का खर्चा नहीं निकाल सकता। आज जो पैसे वाले हैं उन्होंने एक मार्केटिंग का ऐसा मायावी साम्राज्य बना दिया है जिससे लग रहा है वही सबसे अच्छा लेखन कर रहे हैं। वह कामयाब हो रहे हैं क्योंकि उनके समानांतर जो हैं वो अभी भी शोषित और कमज़ोर हैं। उन्हें कोई भी छाप नहीं रहा है। पैसे और मार्केटिंग का ज्ञान उनके पास है नहीं। जहां 50 करोड़ से ज़्यादा लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और समझते हैं वहां 10,000 हिंदी की किताब के बिकने पर उसे बेस्टसेलर और नेशनल बेस्टसेलर कह दिया जाता है। यह एसी लगे हुए कमरों में सोशल मीडिया से फैलाया गया एक धोखा है, अखंड मायाजाल। असली साहित्य अभी भी धूल फांक रहा है।
मगर ऐसा नहीं है कि उम्मीद की कोई किरण नहीं है। आज जैसे-जैसे सूचना और तकनीक के माध्यमों का विकास और प्रचार हुआ है वह हिंदी के लिए शुभ संकेत है। आज वेब से लेकर टीवी, सिनेमा, मीडिया, समाचारपत्र, इन्टरनेट ब्लॉगिंग, ऑनलाइन वेब पोर्टल्स के ज़रिये हिंदी का परिवार बड़ा हुआ है। साथ ही फेसबुक एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है, जहां हिंदी का प्रचार-प्रसार ज़बरदस्त तरीक़े से हुआ है। इन तमाम क्षेत्रों में आज लाखों जॉब क्रिएट हो रहे हैं और युवा इसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं। इसके साथ ही अमेज़न और बाकी ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट्स के आने से किताबें खोजना और खरीदना आसान हो गया है। हिंदी भाषा की किताबों को पढ़ने का चलन फिर से लौट रहा है। इसके साथ ही तमाम ओपन माइक जैसे yourquote के ज़रिये भले ही शायरी को फायदा ना हुआ हो लेकिन भाषा का दायरा और परिवार ज़रूर बढ़ा है।
यहां ये बात ध्यान रहे कि इसमें हिंदी के साहित्यिक हलकों, मठाधीशों, सरकारों, स्कूलों, पुस्तकालयों का कोई योगदान नहीं रहा है। जो लोग (कुमार विश्वास, नई वाली हिंदी) ने हिंदी के प्रसार का प्रयास किया गया है उसे भी इन मठाधीशों ने अछूत समझकर हेय दृष्टि से देखा है। यह सत्य है कि उनमें से अधिकतर के काम में गहराई का आभाव है मगर यही एक पुल बनकर नए पाठकों को हिंदी के श्रेष्ठ साहित्य तक ले जाने का माद्दा रखते हैं।
अंत में इतना ही कहूंगा कि यह हिंदी का जादू है कि इसके चाहने वालों ने इसके लिए अपना जीवन खपा दिया है और इसकी खूबसूरती को बरकरार रखा है। हिंदी किताबों को अलग-अलग माध्यम पर पढ़ने का संस्कार पैदा होकर पनपने लगा है। अच्छे और जुनूनी लेखक आगे आ रहे हैं और अपने लिए लड़कर एक मंच को हासिल कर रहे हैं।
बस मेरा यह निवेदन है कि आप सभी अपने राष्ट्र, सभ्यता, संस्कृति, कला, संगीत, भाषा से प्रेम करते रहिए, इसके बाद किसी में दम नहीं कि वह आपकी और आपकी भाषा की पहचान मिटा दे।