Site icon Youth Ki Awaaz

संत गुरू रैदास जी: रजत नारायण गौतम

संत गुरू रैदास जी : रजत नारायण गौतम

संत गुरू रैदास जी:रजत नारायण गौतम

वैदिक युग से आज तक चली आ रही भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था ने मानव जाति के साथ बहुत अन्याय किया है। छोटे बड़े के नाम पर अलग­अलग सिद्धाँत बनाए गए जिनका कि अभी तक पालन किया जाता रहा है। और इन सिद्धाँतों के कारण सवर्ण और अवर्ण लोगों के बीच की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक खाई इतनी गहरी हो गई कि उसे कम कर पाना अत्यंत कठिन हो गया है। कठोर कानून बनाने के बावजूद आज भी निम्न जातियों के साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है। इसके कारण न जाने कितने दंगे हुए, कितने लोगों को आज भी मन्दिर प्रवेश की अनुमति नहीं है।
भक्तिकालीन कवियों ने इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ़ सबसे पहले आवाज़ बुलन्द की। राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टि से निस्तेज मध्ययुग को स्वर्ण युग बनाने का श्रेय निस्संदेह भक्तिकालीन संत कवियों और मुख्य रूप से उनकी लोकचेतना को जाता है । संतकाव्य ईश्वर के नाम पर जातिगत और धार्मिक भेदभाव के विरूद्व बिगुल है।

संत गुरू रैदास जी उदात्त मानवतावादी प्राणधारा के उन कवियों में से थे जिन्होंने मध्यकालीन युग में गरीब और हताश लोगों को अपनी बानी से प्रोत्साहित कर उनका मार्गदर्शन किया। वर्णभेद, जातिभेद एवं सांप्रदायिकता का विरोध और निर्गुण की उपासना आदि कुछ ऐसी समानताएँ है जो हमें संत गुरू रैदास में ही देखने को मिलती हैं।संत गुरू रैदास जी की पैदाइश काशी की थी और जाति से वह एक चमार थे। स्वयं जातिगत भेदभाव से पीड़ित होने के बावजूद संत गुरूरैदास जी कविताओ मे छाती ठोंककर अपनी जाति का उल्लेख अपनी बानिय में किया।
कहे रैदास खलास चमारा।
संत गुरू रैदास जी स्वयं का उदाहरण देकर कहते हैं कि सच्चे भक्त की कोई जाति नहीं होती और सच्ची भक्ति के कारण नीच जात में उपजा मानव भी श्रद्धेय बन जाता है।

जाके कुटंब के ढेढ सब ढोर ढोवंत फिरहिं, अजहूँ बनारसी आसा पासा।
आचार सहित बिप्र करहिं दंडौति तिन तनै रैदास दासानुदास।।

जहाँ शूद्रों को मन्दिर प्रवेश पर मनाही थी वहाँ संत गुरू रैदास जी जैसे संतो ने मन्दिरों का ही विरोध किया, उसमें रखी उन मूर्तियों का विरोध किया जो सिर्फ़ सवर्णाें की संपत्ति समान थीं। दरअसल, इन संतो का मानना था कि जब सबका रचियता एक है चाहे वह सवर्ण­अवर्ण हो या हिन्दू­मुस्लमान। तो उस रचियता पर सबका एकसमान अधिकार होना चाहिए। संत गुरू रैदास जी कहते हैं-

जब सभ करि दो हाथ पग,दोउ नैन दोउ कान।
रविदास पृथक कैसे भये,हिन्दु मुसलमान।।
संत गुरू रैदास जी की मानवतावादी दृष्टि सब को धार्मिक व सामाजिक समानता का दर्जा देती है और उन्हें एक­दूसरे के करीब लाने का कार्य करती है। ऐसा नहीं है कि पुरोहितों और मौलवियों पर कठोर शब्दवार करते हैं तो यह माना जाए कि उनकी दृष्टि सांप्रदायिक थी। बल्कि सच तो यह है कि संत गुरू रैदास जी ने हिन्दु­मुस्लिम में कोई भेद नहीं किया। दोनों ही उनके लिए एकसमान थे। उन्हें कुछ नापसन्द था तो वह थोथा ज्ञान और पाखण्ड जो मावन­धर्म के विरूद्ध था। सच तो यह है की संत गुरू रैदास जी ने साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल कायम की है।

भाई रे दुई जगदीश कहां ते आया,कहु कौन भरमाया।

दरअसल, सांप्रदायिक सद्भाव का यह प्रयास उस समय की सबसे बड़ी ज़रूरत थी क्योंकि इन दोनों धर्मों के मालिक बने बैठे लोग एक­दूसरे के धर्म का न केवल दुष्प्रचार कर रहे थे बल्कि मन्दिर मस्जिद भी तुडवा रहे थे। हिन्दुओं में केवल सवर्णों के लिए ही ईश्वर पूजनीय था और शूद्रों के लिए सवर्ण पूजनीय थे। सदियों से चली आ रही जाति प्रथा की बुराईयों को पहचानकर इन्होंने कर्म को महत्व दिया।संत गुरू रैदास जी का मानना है –

जन्म जात कूँ छांडि करि, करनी जात परधान। 
इह्यौ बेद को धरम है, करै रविदास बखान।।

संत गुरू रैदास जी के मानवीय­धर्म पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की यह टिप्पणी एकदम सही है कि ‘‘अन्य संतों की तुलना में महात्मा रैदास ने अधिक स्पष्ट और जोरदार भाषा में कहा है कि ‘कर्म ही धर्म’ है। उनकी वाणियों से स्पष्ट होता है कि भगवद्भजन, सदाचारमय जीवन, निरहंकार वृति और सबकी भलाई के लिए किया जाने वाला कर्म, ये ही वास्तविक धर्म है।”जब थोथे धर्म ज्ञान और पाखण्डी विचारधारा का इन्होंने विद्रोह किया तो ये विद्रोही कहलाए। देखा जाए तो यह धर्मविद्रोह नहीं बल्कि उसका शुद्धिकरण है। और संभवतः इसीलिए इन्होंने निर्गुण निराकार ब्रह्म की भक्ति की। और यह निर्गण निराकार ब्रह्म उन सभी निम्न जातियों और समाज से बेदख़ल लोगों का बहुत बड़ा धार्मिक विकल्प था जिन्हें मन्दिरों से दूर रहने की हिदायतें दी जाती थीं या धार्मिक रूप से बेदख़ल कर दिया गया था।। व्रत, तीर्थ, स्नान, मालाजाप, उपवास, रोजा आदि का विरोध कर संत गुरू रैदास जी ने सच्चे मन से निराकार ब्रह्म की भक्ति करने का रास्ता प्रशस्त कर उन लोगों को नई राह दिखाई जो किनारे पर फेंक दिए गए थे। जीवनभर आर्थिक दरिद्रता का सामना करते­करते, कपड़ा बुनते­बुनते, जूतियाँ गाँठते­गाँठते इन्होंने उस फटीचर रूढ़ियों कुरीतियों और आडंबरों से क्षीण समाज की भी बुनाई सिलाई करते रहे। उनकी जाति से बड़ा उनका जीवनयापन और जीवनदर्शन रहा जिसने न केवल ज्ञान और भक्ति की आँधी आई बल्कि श्रमिकों को सम्मानपूर्वक जीने की राह बताई और भारतीय समाज और संस्कृति के विकृत अंश का विरेचन भी किया।
ब्राह्मणवादी विचारधारा के लोगों ने समाज को बाँटने और समाज में अपना वर्चस्व बनाने के लिए भक्ति जैसे सद्भाव के साथ छेड़छाड़ कर स्वयं को उसका उत्तराधिकारी बनाया था। और इसी कुटिल सोच के कारण जातिप्रथा और अस्पृशयता जैसी कुप्रथाओं का प्रारंभ हुआ। धर्म के नाम पर हो रहे तमाशे को इन संतों ने बखूबी पहचान लिया था। और इसीलिए इस गंदगी की सफ़ाई की शुरूआत भी इन्होंने वहीं से की जहाँ से यह महामारी फैली थी। इन्होंने भी भक्ति का सहारा लिया। किंतु इनकी भक्ति में धार्मिक­ सामाजिक संर्कीणताओं के लिए कोई जगह न थी। तभी तो इनके लिए सामान्य स्थानों और तीर्थ स्थानों में कोई भेद नहीं था। इनके लिए तो सच्चा तीर्थ स्थान तो वह दिल है जो प्रेम की बानी बोलता है और वहीं प्रभु का वास भी है।

का मथुरा,का काशी ,का हरिद्वार? 
रविदास जो खोजा दिल आपना तो मिलिया दिलदार।

जो ध्वनि और मनुष्यवादी ऊर्ध्व दृष्टि मौजूद है, उसमें संत गुरू रैदास जी ने ब्राह्मणवादी पुरोहितवाद को नंगा किया है…
संत गुरू रैदास जी ने जिस ब्रह्म का पूजन किया वह निर्गुण निराकार न होकर सगुण निराकार है। और उसकी शरण के बिना जीव का उद्धार नहीं हो सकता।

बिनु रघुनाथ शरनि काकि लीजै।
संत गुरू रैदास जी ने माधव, राम, हरि नामों से ईश्वर को पुकारा अवश्य है किंतु उनके ब्रह्म का स्वरूप भी वही है जो कबीर के यहाँ हैं।

दसरथ सुत तिहुँ लोक बखना राम नाम का मरम है आना।

संत गुरू रैदास जी कहते हैं –
राम कहत सब जग भुलाना सो यह राम न होई। 
जा रामहि सब जग जानत भरम भूलै रे भाई।

संत गुरू रैदास जी की बानी में निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति और जिज्ञासा दिखाई देती है। मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, ढोंग­ढकोसलें आदि बाह्य विधानों का विरोध कर तन­मन अर्पित कर परमात्मा को प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं।

……….आगे लेखांस जारी है

Exit mobile version