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समलैंगिकता, अब अपराध नहीं पर सफर इतना आसान भी नहीं..

समलैंगिकता, एक ऐसा विषय है जो अक्‍सर ‘सही या गलत’ की परिपाटी पर तौला जाता रहा है. सही या गलत इसलिए, क्‍योंकि इससे संबंध नहीं रखने वालों के लिए यह सिर्फ एक ‘शौक’ या ‘अमीरों में पनपता व्‍यसन’ या प्रकृति के विरुद्ध उठाया जा रहा कदम जैसा ही है. गुरुवार को आजाद भारत की आब-ओ-हवा में आजादी की एक नई इबारत लिखी गई. भारत में अब समलैंगिकता कोई अपराध नहीं कहलाएगा. यानी अब कानून के नाम पर किसी के बेडरूम में घुसने का प्रयास नहीं किया जा सकेगा. देखा जाए तो यह लगातार हर कदम पर बढ़ रही ‘मॉरल पुलिसिंग’ के एक जरिए पर करारा तमाचा है. 5 जजों की बेंच ने एक मत से जो कहा, उसे एक पूरा समुदाय लंबे समय से सुनना चाह रहा था, लेकिन यह सब अभी इतना आसान नहीं है. इसे ‘एतिहासिक फैसला’ कहते हुए भले ही सराहा जा रहा हो पर कानून की चौखट से निकलकर असल में इसकी स्‍वीकार्यता समाज में होनी है, जो अभी न के बराबर है. खासतौर पर जिस हिकारत भरी नजरों से इस समुदाय के लोगों को देखा जाता है, वह किसी से छुपा नहीं है.

दरअसल समलैंगिकता का मामला न तो पूरी तरह से यौनिकता का है और न ही ‘प्राकृतिक या अप्राकृतिक शारी‍रिक संबंधों का, बल्कि यह पूरा मामला है एक समाज के तौर पर हमारे संवेदनशील होने का. इतना संवेदनशील कि हम उस अल्‍पमत विचार को भी सम्‍मान और इज्‍जत से स्‍वीकार न सही तो सुन सकें जो हमारे पूर्व निर्धारित विचारों से इतर है. स्‍वीकार्यता की यह जंग सालों से हर वह समुदाय झेलता आया है, जिसे कमजोर या अल्‍पमत मानकर सिरे से खारिज करता रहा है.

आपको एक वाकया बताती हूं. मुंबई में काम करने के दौरान मैं अपने एक सहयोगी के साथ लोकल ट्रेन से यात्रा कर रही थी. दफ्तर से घर तक के इस सफर में मैं अपनी किताब और वह अपने मोबाइल में बिजी था. तभी कुछ देर बाद उसने कहा, ‘यार, आजकल ‘इन’ लोगों की तादाद काफी बढ़ गई है.’ मुझे ये ‘इन’ लोगों का मतलब समझ नहीं आया, तो उसने हमारे डिब्‍बे के एक कोने में बैठे एक लड़के की तरफ इशारा किया. उस लड़के ने टाइट टी-शर्ट और शॉर्ट्स पहन रखे थे. बाल थोड़े ज्‍यादा ही सलीके से सजे थे और सबसे नुकीली थी उसकी आइब्रो जो काफी सलीके से एक स्‍टाइल में थी. उसे देखकर यह तय मान लिया गया था कि ये तो ‘गे’ ही है.

मेरे मित्र ने कहा, ‘यार पूछ मत, आजकल यह लोग हर जगह दिख जाते हैं. एक दिन ‘ऐसा’ एक मेरे पास बैठा था. थोड़ी देर में मुझे लगा कि मेरे पास वाले लड़के का हाथ मेरी पेंट के आसपास है. पहले मुझे लगा कि यह गलती से हुआ है, लेकिन फिर जब दो-तीन बार हुआ तो मैं समझा कि यह कोई गलती नहीं है, बल्कि वह जान-बूझकर ऐसा कर रहा है. (इस पूरी घटना को बताते हुए वह बार-बार उस लड़केे को संबोधित करते हुए नई-नई गालियां दे रहा था.). उसने बोलना जारी रखते हुए कहा, ‘मुझे आया गुस्‍सा. मैंने गुस्‍से में उसे कहा, ‘सुन बे, अपना हाथ संभाल ले, नहीं तो हाथ ही तोड़ दूंगा..’. वह बोला, ‘यार तुम लोग यह सब कैसे झेलती हो…? उस दिन मुझे समझ आया कि जब तुम लोगों के साथ कोई लड़का ऐसा करता होगा तो तुम्‍हें कैसा लगता होगा.. यार बहुत गंदी सी फीलिंग होती है वो…’

मुझे इस पूरी घटना में उस समलैंगिक व्‍यक्ति के विवरण में ज्‍यादा दिलचस्‍पी नहीं थी, लेकिन आखिर में जो लाइन उसने कही उसने मुझे अजीब से एहसास से भर दिया. दरअसल सामाजिक तौर पर नहीं, लेकिन दोस्‍तों के ग्रुप में जब भी किसी महिला के साथ छेड़छाड़ या ऐसी कोई भी घटना का जिक्र होता है, जो दबे-छुपे शब्‍दों में अक्सर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि ‘लड़कियां भी कम नहीं हैं’ या ‘जरूरत क्‍या थी इतनी भीड़ में घुसने की, ये तो होगा ही फिर..’. लेकिन जब एक पुरुष को फुल पेंट और फुल बाजू की शर्ट में छेड़ा गया तो समझ आया कि यह तर्क कितने बेमानी होते हैं.

मेरे मित्र की इस बात से मुझे लगा कि इस एक घटना ने कम से कम इस ‘पुरुष’ को तो कुछ हद तक संवेदनशील बना दिया है. यह महज एक घटना नहीं है. ऐसा ही कुछ तब भी मुझे सुनने को मिला जब एक और लड़के ने ऐसी ही एक घटना का जिक्र करते हुए कहा, ‘यार मैं तो अकेला फंस गया था… और वो 2-3 थे. मैं अपना मेट्रो का कार्ड रीचार्ज करा रहा था. स्‍टेशन से बाहर निकला तो देखा, वो मेरे पीछे हैं. भाई साहब, मेरी तो हालत खराब हो गई. यार.. तुम लड़कियां कैसे हैंडल करती हो ऐसी सिच्‍युएशंस को…?’

आखिर में पूछा गया सवाल था, ऐसा भयानक सवाल जो अक्‍सर मुझे गुस्‍सा दिला देता है, लेकिन उस दिन यह सारी बातें एक लड़के के मुंह से सुनकर मुझे काफी ‘सुकून’ मिला. जी हां, पढ़ने-सुनने में यह अटपटा लग सकता है, लेकिन सच यही है. दरअसल इन दो घटनाओं का जिक्र करने वाले पुरुषों के साथ कुछ भी ऐसा नहीं हुआ, जिसे महिलाएं आए दिन सड़कों-बसों या ट्रेनों में झेलती हैं और इग्‍नोर करती हैं. यह सुकून दरअसल इस बात का था कि कम से कम यह कुछ पुरुष तो कुछ हद तक संवेदनशील हुए और यह महसूस कर पाएं कि अपने आसपास चलते-फिरते ‘स्‍तनधारियों’ को एक सजीव के रूप में देख सकें. वह कुछ पलों के लिए ही सही, महसूस कर पाए कि कपड़ों के पीछे चलते हाड़-मांस के लोथड़े महज छूकर देखने वाली वस्‍तु नहीं हैं.

कोर्ट के इस फैसले के बाद यह घटनाएं मुझे इसलिए याद आईं, क्‍योंकि इस तरह के फैसले हमें यह एहसास दिलाते हैं कि एक समाज के तौर पर हम कितने स्‍वीकार्य हैं. दरअसल यह सब हमारी संवेदशीलता और उसके साथ आती स्‍वीकार्यता से जुड़ा है. चाहे यह स्‍वीकार्यता और संवेदनशीलता महिलाओं के प्रति हो, समलैंगिक समुदाय के प्रति, सड़क किनारे पटरी पर बर्तन मांजते और चाय देते बच्‍चे के प्रति या फिर किसी दूसरे धर्म-मत-तर्क को मानने वाले व्‍यक्ति के प्रति… सबसे जरूरी हैं संवेदनाएं जो खुद से अलग लोगों के प्रति भी हमें स्‍वीकार्यता की शक्ति देती हैं.

महिलाओं की यौनिकता हो या फिर ‘अप्राकृतिक’ और ‘फैशन’ मानी जाने वाली समलैंगिकता.. अक्‍सर बिना भावनाओं को समझे, परखे और तौले हम सिरे से इन संवेदनाओं को समाज के विरुद्ध घोषित कर खारिज कर देते हैं. सोशल मीडिया पर भले ही कई पोस्‍ट शेयर हो रहे हों, लेकिन इस मुद्दे पर बंद कमरों और दफ्तरों में होती हंसी-ठिठोली आपने भी सुनी ही होगी. ‘पुरुष सत्‍तात्‍मक समाज’ की आधारशिला पर फलता-फूलता यह समाज आखिर कब तक अपने दंभ के आगे इस समाज के लगभग हर अन्‍य वर्ग की संवेदनाओं को, भावनाओं को और उसकी जरूरतों को अपने ‘पौरुष’ से कुचलता रहेगा, उसका मजाक बनाता रहेगा… यह यक्ष प्रश्‍न है. पर यह साफ है कि ट्विटर, फेसबुक से निकलकर सड़कों, घरों, बसों-ट्रेनों और समाज में इन संवेदनाओं को सम्‍मान मिलने के लिए अभी इंतजार काफी लंबा है….

दीपिका शर्मा, पत्रकार

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