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गौरी लंकेश की मौत के साल भर बाद भी कुछ बदला है?

आज से तकरीबन साल भर पहले 5 सितम्बर 2017 को बैंगलोर की एक काबिल पत्रकार गौरी लंकेश की उनके घर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। गौरी ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ नामक कन्नड़ पत्रिका की संपादक थीं। अंग्रेज़ियत के इस दौर में जहां तमाम बुद्धिजीवी एवं पत्रकार अपनी फर्राटेदार अंग्रेज़ी वार्तालापों से एक कुशल हिन्दी भाषी को नीचा दिखाने में सक्षम हों वहां क्षेत्रीय भाषा में पत्रिका निकालना अपने आप में एक बड़ी बात है।

गौरी की हत्या हुई, विशेष जांच समितियां गठित हुईं, सड़कों पर हाथ में मोमबत्तियां थामे लोग निकले, आक्रोश मार्च और ना जाने क्या-क्या हुआ मगर नतीजा, कुछ नहीं। कुछ एक गिरफ्तारियां ज़रूर हुईं मगर जिस माहौल में गौरी नाम की स्वछंद आवाज़ को मौत के घाट उतारा गया था कमोबेश आज भी वैसा ही माहौल है।

आज भी सरकारी दबाव में कलमें भारी हैं और पत्रकारों के सामने पन्नों की जगह नोट बिछे पड़े हैं। ज़ाहिर है आज़ाद ख्यालों को कैद करने की जो कवायद तेज़ हुई थी वो अब भी जारी है। तो क्या बदला इस एक साल में? क्या फायदा सड़क पर उन सैंकड़ों मोमबत्तियों के टिमटिमाने से? 

कुछ ही दिनों पहले दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में उमर खालिद पर चली गोली इस बात का सुबूत है कि हम अभी भी उसी ज़हरीली मानसिकता वाले समाज का हिस्सा हैं जहां मंदिर-मस्जिद हमारी दैनिक ज़रूरतों से ज़्यादा महत्व रखती है। इस्लामोफोबिया इस कदर हावी है कि आंखें बंदकर उमर खालिद का नाम लो तो दिमाग में अफगानी टोपी पहने, हाथ में राइफल लिए एक दाढ़ी वाले की छवि ही आती है।

सच तो ये है कि बतौर समाज हमने गौरी लंकेश की शहादत को ज़ाया होने दिया। मोमबत्तियां जलाने से ना तब कुछ बदला था ना अब कुछ बदला है। निर्भया के लिए हज़ारों मोमबत्तियां खाक होने के बावजूद आज भी हमारी बहनें रात को अकेली घर से नहीं निकलती हैं। आज भी शॉर्ट्स पहनी लड़कियां सड़कों पर वैसे ही घूरी जाती हैं जैसे पहले। अभी भी मकान किराये पर देने से पहले हमारी जाति पूछी जाती है। जवाब में ब्राह्मण सुनाई देने पर मकान मालिक की टेबल पर नाश्ते की प्लेटें सज जाती हैं और दलित सुनाई देने पर अचानक से मकान का किराया आसमान छूने लगता है।

हर एक बात के लिए सरकार को कोसना बड़ा अच्छा सा लगता है, अंदर से क्रांतिकारी जैसी भावना भी आती है, मगर सच्चाई यही है कि सरकार ने हमारे समाज के स्याह पक्ष को उजागर भर किया है और हमें दिखाया है कि बाहर से भले ही हम सुसज्जित परिधानों में विचरण करते हों मगर भीतर से हम सब नंगे हैं। पितृसत्ता हमारी नस-नस में मौजूद है और जातिवाद हमारे सेंस ऑफ ह्यूमर में।

इतनी सिनिसिज़्म के बावजूद भरोसा है उन लोगों पर जो काम कर रहे हैं, मेरी उम्र के युवाओं का जो विश्व की सबसे बड़ी वर्क फोर्स होने का दावा करती हैं। बदलाव की बयार धीरे-धीरे ही सही मगर बह ज़रूर रही है। उम्मीद है कि गौरी और निर्भया ने जिस बेहतर समाज के लिए अपनी शहादत दी थी वो एक दिन ज़रूर सार्थक होगी और फैज़ ने जिस सुबह-ए-आज़ादी का ख्वाब देखा था वो मुकम्मल होगा।

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