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“दिक्कत कानून से भी ज़्यादा लोगों के नज़रिए में है, इश्क को देखने के नज़रिए में”

भारत के सुनहरे संविधान के परचम तले आज देश के बेहद संवेदनशील मामलों में से एक समलैंगिकता के मामले पर सुना है फैसला जैसा कुछ सुनाया जाने वाला है। माने धड़कनों को कह दिया गया हो कि तब तक थमी रहें जब तक की आपके प्रेम करने की आज़ादी पर सही या गलत का कानूनी ठप्पा ना लगा दिया जाए।

तो चलो भैया रुके रहो, थाम के रखो सांसों को, मंदिर की सीढ़ियों पर मस्ज़िद की अज़ान पर टेक दो अपनी प्रार्थनाएं इस उम्मीद में कि कोई सुकून की खबर आए।

ये हिंदुस्तान है साहब, वही हिंदुस्तान जहां हम एक कंधे पर विविधता में एकता का फकर लिए घूमते हैं और दूसरे कंधे पर पड़ोसी के प्रमोशन पर त्योरियां चढ़ाकर निकल लेते हैं।

वही हिंदुस्तान जहां एक तरफ राधा और कृष्ण की प्रेम की कसमें खाते हैं लोग तो दूसरी तरफ प्रेमियों को खाप की सूली पर तिल-तिल करके मार ही डालते हैं। इसी हिंदुस्तान में आज अगर इतिहास रच भी गया। अंग्रेज़ों का लगाया गया कानून 377 हट भी गया तो क्या आप सोच सकते हैं कि इस फैसले से आपके होंठों पर खिलखिलाती सतरंगी मुस्कान कितनी दूर चलेगी?

कितनी दूर, शायद टीवी की स्क्रीन से हटते ही बाहर निकलकर उन शर्मा जी को देखते ही दम तोड़ दे जो आए दिन पापा को और तुम्हें किसी डॉक्टर से इलाज कराने की सलाह देते हैं। कानून उनके नज़रिए को नहीं बदल सकता या कानूनी रज़ामंदी के साथ खुली सड़क पर अपने पार्टनर के साथ चलते हुए उन लफंगों को देखकर, ये आज़ादी हवा हो जाएगी जो ये कहते हुए नहीं थकते की इतनी गरमी है तो हमारे पास आजा तुझे मर्द बना दें?

आज अगर इतिहास रच भी गया तो यकीनन कानून व्यवस्था पर यकीन में इज़ाफा होगा मगर किस-किस को कानून बताएंगे हम? किस-किस को ये पाठ पढ़ाएंगे हम जब उनकी नज़र, उनकी सोच, समाज का नज़रिया समलैंगिकता को सिरे से नकारता है इसे गलत और मानसिक रोग साबित करता है।

होंठों पर रक्स करती डुप्लीकेट मुस्कान और ज़हनी तौर से महसूस किया गया सुकून, इन दोनों में बड़ा फर्क होता है साहब। दिक्कत नज़रिए में है, इश्क को आखिर किस जात से जोड़ता है समाज और कब इतना अधिकार जमा बैठता है कि वो ये फैसला करेगा कि क्या गलत है क्या सही? क्यों किसी को इतना अधिकार है कि वो फरमान सुना दे क्यों?

मुझे ऐतराज़ है इस बात से बहुत ज़्यादा ऐतराज़ है कि समलैंगिकता कोई मनोरोग है। आखिर कैसे कह सकता है कोई, विज्ञान की थोड़ी सी मदद लीजिए गूगल कीजिए, थोड़ा सा जानिए, क्योंकि कम ज्ञान सबसे ज़्यादा घातक साबित होती है।

हमारे समाज में कई धर्म के ठेकेदारों को या साफ तौर पर कहिए तो लोगों को किन्नरों से भी दिक्कत है। दिक्कत ही नहीं बल्कि चिढ़ है इतनी चिढ़ कि उनका बस चले तो बीच सड़क पर चाकू घोंप दें।

क्यों है ऐसा? क्या उनको भी (किन्नरों को) कोई मनोरोग है जिसे बदलने की ज़रूरत है जिसे इलाज से ठीक किया जा सकता है? बताएं ज़रा? अरे वो भी तो उसी औरत के पेट से जन्मते हैं जिसे स्त्री या देवी माना गया है जिसके पेट से मैंने या आपने जन्म लिया फिर किन्नरों और समलैंगिकों के प्रति इतनी घृणा क्यों?

अगर वो आपकी खुशी में नाचने आएं तो माला-माल कर देते हैं उन्हें और अगर वो राह चलते दिख जाएं तो नाक सिकोड़ कर गरियते हुए आगे बढ़ गए, क्यों?

मेरी हथेली पर लिखा हुआ 6 का अंक आपको 9 ही दिखाई देगा। मैं चाहकर भी तब तक आपकी (जो इसे मनोरोग मानते हैं) सोच में बदलाव नहीं ला सकती जब तक आप खुद इसे समझना ना चाहें क्योंकि हर बदलाव हृदय से जन्मता है।

कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद से समलैंगिक होना तय नहीं करता, जबकि उसे पता है कि कितनी ही बुरी और भयानक परिस्थितियों से उसे गुज़रना है ताउम्र। जबकि उसे पता होता है कि अपनी ही रूह को भींचकर अपनी ही बाज़ुओं में उसे सिसकना है ताउम्र। मैं कतई माफी नहीं मांगूगी अगर आपका खून खौलता है इस लेख पर या मेरे विचारों पर, अपने रोगी होने का प्रमाण मत दीजिए।

समलैंगिकता कोई बीमारी नहीं है ना ही इसे किसी भी इलाज की ज़रूरत है। प्रेम का, लगाव का या भावनाओं का कोई बाज़ार नहीं होता जहां से उन्हें खरीद कर दिल की मशीन में फिट कर लिया जाए। दिल बड़ा रखिए साहब प्रेम दिख जाएगा महसूस भी होगा ये मेरा दावा है।

https://youtu.be/fKOY61zPumI

 

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