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ये राजनेता आखिर कब तक जनता के मुद्दों की अनदेखी करेंगे?

Poor-People-India

Poverty And Hunger Like Issues Are Missing From Present Day Politics.

कुछ वर्ष पहले दीवारों पर कई राजनीतिक स्लोगन के बोल दिखाई पड़ते थे जिन्हें पढ़कर उस दौर के लोग जोश से लबरेज़ हो जाते थे। जैसे,  “जो मज़दूरों और किसानों के हक की बात करेगा, वहीं सत्ता पर राज करेगा”, “शिक्षा पर सभी का समान अधिकार हो”, “बेरोज़गारी मुक्त भारत का सपना सच कर दिखना है” वगैरह-वगैरह। खासतौर पर आज़ादी के बाद ये नारे विपक्षी पार्टियों द्वारा सत्ता पर काबिज़ पार्टियों के खिलाफ दीवारों  पर रंगती आई है। इन नारों को देख कर ये तो अंदाज़ा लगाया ही जा सकता है कि बीते 70 सालों में तमाम वामपंथी और दक्षिणपंथी पार्टी ऐसे मुद्दों को लेकर कितनी सजग रही है। ये बात अलग है कि सत्ता पर काबिज़ होने के बाद नेताओं ने इन मुद्दों पर इस कदर काम किया कि ये मुद्दे गुमनाम हो गए।

याद कीजिए इंदिरा गांधी के उस दौर को जब उन्होंने ‘इंदिरा हटाओ’ वाले नारे को अलग तौर पर प्रयोग किया था। उनका वो नारा कालजयी बन गया जिसमें वो कहती हैं, “वो कहते हैं इंद्रा को हटाओ और मैं कहती हूं गरीबी को हटाओ।” गरीबी हटाओ वाले नारे से उन्होंने किस प्रकार व्यवस्था में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति का वोट बैंक के तौर पर प्रयोग किया। इंदिरा के सत्ता में बने रहने और मौजूदा दौर में भी अंतिम पायदान पर खड़ा रहने वाला व्यक्ति वहीं तटस्थ नज़र आता है। बस फर्क सिर्फ इतना ही है कि 90 के दशक में नवउदारवाद और भूमंडलीकरण के हसीन सपनों का बोझ ढ़ोना उस अंतिम पंक्ति पर खड़े लोगों के लिए असंभव सा था। ऐसे में इस सपने को ज़मीन पर उतारने के लिए इस वर्ग के लोगों की संख्या में वृद्धि होना आवश्यक था।

जिन नारों ने ना जाने इन 70 सालों में कितने राजनैतिक आंदोलन को दिशा देने का काम किया और ना जाने कितनी निज़ाम को पलट कर रख दिया, उसकी जड़ में वो अहम मुद्दे थे जो सामान्य मनुष्य के सरोकार से  जुड़े हुए थे। मसलन रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, रोज़गार, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों को संचार तंत्रों ने भी मुखरता के साथ उठाया है। इन मुद्दों पर अखबार में अनगिनत लेख, संपादकीय और सुर्खियां रोज़ छपती थी।

आज ये मुद्दे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से भी लुप्त होते दिखाई पड़ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति में 180 डिग्री का टर्न देखने को मिला है। अब ये स्लोगन और उनके पीछे छुपे मुद्दे व्यवहारिक नहीं रह गए, ये दिन प्रतिदिन अपना महत्व खोते जा रहे हैं। या फिर 70 सालों में इतनी तब्दिली आई है कि ये सारे मुद्दे सुलझा दिए गए और अब इसकी बात करना बकवास लगने लगा है। इसका फैसला तो आवाम को ही करना होगा।

आम लोगों को यह समझना होगा कि मौजूदा दौर में जो पार्टी केन्द्र की सत्ता पर बैठी है, उन्होंने इन्हीं मुद्दों को हथियार बनाकर राजनीति की है। फिर ऐसे मुद्दों पर आज उनकी खामोशी समझ से परे है। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोज़गार जैसी ज़रूरतों की पूर्ति क्या हो गई है? सबसे दिलचस्प यह है कि विपक्ष के लिए भी अब ये मुद्दे उतने माईने नहीं रखते हैं।

वो कौन सी बातें हैं जो अब सियासत का मुखौटा बनती दिखती है। मौजूदा दौर में हिन्दु और मुसलमान के आधार पर दो मज़हब के बीच दंगे कराए जा रहे हैं। कार्ल मार्क्स ने कभी लिखा था, “धर्म अफीम के समान है”। ये सुन कर कई लोग भड़क जाते हैं ,और कहते हैं कि ये वामपंथियों का ढ़कोसला है। मगर इस कथन को स्वीकार करने के लिए वामपंथी का बिल्ला सर पर चिपकने की आवश्यकता नहीं है। जो कोई भी अपनी आंखे और कान खुली रख कर देखने की क्षमता रखता होगा, वह इस बात को समझ सकता है कि आज भी मार्क्स की ये बात कितनी प्रासंगिक है।

आज वो दौर बन चुका है जब जनता की आंखों पर धर्म का चश्मा पहनाकर उन्हें बुनियादी मुद्दों से भटकाया जा रहा है। केवल सत्ता पक्ष को इसके लिए ज़िम्मेदार बनाने से काम नहीं चलने वाला है, सभी विपक्षी दल भी इन चीज़ों के लिए दोषी हैं। जो पार्टी अपने आप को धर्मनिर्पेक्षता की रक्षक बताती है, उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष को जनेऊ दिखाकर खुद को हिन्दुत्व साबित करना पड़ता है। प्रतिद्वंदिता इस बात की है कि कौन असली हिंदुओं की पार्टी है और इसी द्वंद में नागरिकों के सरोकार पराजित हो रहे हैं।

टीवी डिबेट के दौरान भी अकसर हिन्दुओं में से किसी भगवा वस्त्रधारी और मुसलमानों में से किसी मौलवी को बिठाकर बहस कराई जाती है, जिससे लोगों का ध्यान भटक सके। इन डिबेट में धार्मिक ध्रुवीकरण और समाज मे अलगाव उत्पन्न कराने के सभी साधन मौजूद रहते हैं ।

बदलते भारत के नारे भी अब नए हो चले हैं जहां अब दीवारों पर धार्मिक कट्टरतावाद के नारे हर तरफ दिख जाते हैं, जहां समान्य लोग बस बीच में पिसते रहते हैं। ये वो लोग होते हैं जिनकी बातें सड़क के पीछे ही छूट जाती है। हमारे देश का सच आज अंग्रेज़ी के उस शब्द “New Normal” जैसा हो गया है। यानी कि जो बातें पहलें मौजूद नहीं थीं, उसकी जड़ें इतनी मज़बूत हो चुकी है कि अब वो सहज और सामान्य लगते हैं। साल 2019 का लोकसभा चुनाव काफी नज़दीक आ चुका है और हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ रहा है। ये चुनाव अब अंधेरे से अंधेरे तक का सफर लगता है। अब देखना ये है कि अंधेरे के किस ओर उजाले की किरण देखने को मिलती है।

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