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स्वाति की कविता: “चार दिवारी की औकात”

आज नींद ज़्यादा ही गहरी थी

आंखें अब भी थकान से चूर थी

मन की ये हलचल

दिन की खामोशी

आज कुछ ज़्यादा ही नोच रही थी

 

मगर ये क्या बाहर शोर कैसा

देखने की हिम्मत की तो वहीं रोज़ का नज़ारा

मर्द का औरत पर हावी होना

उसके नाज़ुक बालों को खींचते हुए बाहर फेंकना

गालियां मार पीटाई

रात होते ही पति होने का हक जताने वाले मर्द

 

खैर मेरे समाज का चलन यही है

अपने बदन के घाव टटोल कर एक खुशी हुई

बड़े मकान की चार दिवारी में जो चीखें

सिसकियां लिया करती हैं

कम-से-कम झोपड़ पट्टी में रहने वाली चीखें

चीख तो सकती हैं

शायद चार दिवारी की औकात

औरत को ही औरत से अलग बना देती है।

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