मुझे याद है बचपन में भारत बंद या बिहार बंद के साथ स्कूल भी बंद हो जाता था, तब हम बहुत खुश होते थे। वो बिना संडे और बिना फेस्टीवल वाली छुट्टी बहुत प्यारी लगती थी लेकिन अब जब बड़े हुए तो ये बंद वाला दिन आफत ही लगता है।
चाहे मुद्दा जो भी रहे, चाहे किसी भी संगठन या राजनीतिक दल का अनुसरण करने वालों का बंद हो उसमें इस तरह की हिंसा कही से जायज नहीं है। इस साल के बीते दिनों में कुछ चार ऐसे बंद हुए, जिनमें लगातार हिंसक गतिविधियां देखने को मिली। इन सबमें सबसे ज़्यादा अमानवीय लगता है, जब बंद समर्थकों के द्वारा पब्लिक से लेकर प्राइवेट प्रॉपर्टी को नुकसान पहुंचाया जाता है और एम्बुलेंस तक के आने-जाने पर रोक लगा दी जाती है।
विरोध करना, अपने हक के लिए संघर्ष करना हमारा संवैधानिक अधिकार है लेकिन पिछले दिनों संघर्ष के नाम पर जो उत्पाती लोगों का उन्माद देखने को मिला है वो कहीं से भी सही नहीं कहा जा सकता है। बंद करना, विरोध जताना ये सब आज से लगभग 100 साल पहले से चलता आ रहा है, जब हमारा देश आज़ाद नहीं था तब भी और आज भी सिस्टम में बैठे लोगों के खिलाफ संघर्ष चलता रहा है और ये कहीं से भी गलत नहीं था, फिर ऐसा क्या हुआ जो हम विरोध में बंद के दौरान आक्रमक होते जा रहे हैं?
शायद आज के सोशल मीडिया और मीडिया वाले टाइम में अपनी मांगों को पूरा कराना या अपने मैसेज को प्रभावी ढंग से सिस्टम तक पहुंचाना सिर्फ मकसद नहीं रह गया है, मीडिया के माध्यम से अपनी ताकत और वर्चस्व का दिखावा करना भी बंद के दौरान उपद्रव की बड़ी वजह बन गई है।
मुझे ऐसा लगता है कि लोग सस्ती पब्लिसिटी के लिए ये उत्पात मचाते हैं क्योंकि जितनी बड़ा कांड होगा, उतनी बड़ी फोटो छपेगी और जिन्हें उनके गली के लोग नहीं पहचानते थे कल तक, अब वो अखबार की सुर्खियों में जगह बना लेते हैं। ऐसे संवेदनहीन, मानसिक दिवालियापन के शिकार लोग हरेक बंद के दौरान थोक भाव से मिल जाते हैं और ऐसे महान लोगों का मकसद सेल्फ पब्लिसिटी है और कुछ नहीं।
इन लोगों की फोटो को सोशल मीडिया पर बिल्कुल भी पोस्ट और शेयर ना करें, इससे सिर्फ इनको बढ़ावा मिलता है और कभी भी कोई भी राजनीतिक दल इन कार्यकर्ताओं द्वारा फैलाए गए आतंक की ज़िम्मेदारी तक नहीं लेते हैं। फिर न्यूज़ पेपर से लेकर न्यूज़ चैनलों में इनकी फोटो दिखाकर इनको तथाकथित क्रांतिकारी या हीरो बनाना मीडिया की भी उत्पाती भूमिका को दर्शाता है, उन्हें मसाला न्यूज़ मिल गया बाकी देश का बेडा गर्क हो क्या फर्क पड़ता है।