संसद में एससी-एसटी अधिनियम बिल को उसके पूर्व रूप में लाने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने संविधान संसोधन विधेयक पेश कर दिया है। विपक्षी पार्टियां भी इस विधेयक पर एकमत है, तो उम्मीद की जा रही है कि जल्द ही यह अपने 1989 वाले पूर्वरूप में आ जाएगी।
जिसके अंतर्गत फिर से किसी व्यक्ति पर एससी-एसटी कानून लगाए जाने पर सबसे पहले उसे गिरफ्तार किया जाएगा और वह गैर जमानती होगा। यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को हटाने के लिए है जिसमें यह संसोधन करने को कहा गया था कि गिरफ्तारी से पहले सात दिन के अंदर जाँच हो।
भारतीय न्यायपालिका में सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च संस्था है लेकिन क्या भारतीय राजनीतिक पार्टियां अपने हिसाब से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करती है?
यदि कोर्ट तीन तलाक बंद करने का आदेश देती है और वह वोटबैंक के लिए अच्छा है तो सरकार को वो आदेश मंज़ूर है और यदि सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले से कोई समुदाय नाराज़ है तो देश की लगभग 25 फीसदी आबादी को रिझाने सारी पार्टियां आगे आ जाती हैं। और कोर्ट का फैसला, फैसले से हटकर महज़ एक लकीर रह जाती है जिसे वे संसद में मिटा देंगे। वोटबैंक का सिलसिला यहां तक आ जाता है कि राजनीतिक पार्टियाँ जज आदर्श गोयल के खिलाफ हंगामा करने लगते है कि उन्हें एनजीटी का चेयरपर्सन कैसे बना दिया गया।
तो क्या हमें मान लेना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का सारा फैसला वोटबैंक की राजनीति पर आकर ख़त्म हो जाता है? पहले उसे वोटबैंक के तराजू पर तौला जाएगा फिर लागू किया जाएगा।
बहरहाल, यदि इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश करें तो ये कोई पहला वाकया नहीं है। इससे पहले 1986 में राजीव गांधी ने भी तो वोटबैंक साधने के लिए तीन तलाक बिल पर विधेयक लाकर शाह बानो केस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदल दिया था। किसी खास समुदाय को वोटबैंक बनाने के लिए राजीव गांधी जैसे युवा नेता को भी राजनीति करनी पड़ी। तो क्या हमें ये मान लेना चाहिए कि प्रचंड बहुमत की सरकार आने से सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सत्ताधीश के मर्जी की टिकटिकी घूमती रहती है?
अगले ही साल लोकसभा चुनाव हैं, विपक्षी पार्टियां गठबंधन बनाने की पेशकश कर रही है। काँग्रेस, बसपा और लोजपा सहित सभी पार्टियाँ दलित वोट साधने के लिए कानून का विरोध कर रही थी। मसलन, भाजपा के पास भी दलित वोट को अपनी ओर खीचने का कोई और चारा नहीं था। जबकि उसपर आरोप लगते रहते है कि भाजपा आरक्षण विरोधी पार्टी है।
लेकिन इस सबसे इतर ये फैसले हमें सोचने को मजबूर कर देती है कि चुनाव के मौसम में भीड़ दिखाकर राजनीतिक पार्टियों द्वारा कुछ भी करवाया जा सकता है? फिर आखिर देश के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के मायने क्या बचते है?