“उस दिन बहुत बारिश हुई थी सुबह, हम स्कूल नहीं जाना चाहते थे, ज़बरदस्ती भेजे गये। जाते-जाते अपने घर को अच्छे से नहीं देख पाए थे, जब वापस आए तो घर जैसा कुछ नहीं बचा था वहाँ पर। सब कुछ टूट गया था, माँ वहां पर बैठकर रो रही थी। मेरे सारे किताब वहीं दब गये, मेरा नया वाला स्कूल ड्रेस भी वहीं दब गया।”
ये कहते हुए उसकी आवाज़ भर आयी थी और शायद डीडीए के कार्यालय के बाहर खड़े क़रीब 200 से भी अधिक लोगों की आँखें भी जब 10 साल की बच्ची हिमानी (नाम परिवर्तित) ने गुलशन चौक, दिल्ली में हुए घरों के विध्वंश की घटना सुनायी। 5 जुलाई 2017 को भारी बरसात के समय दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा क़रीब 150 से 200 घरों को ढाह दिया गया था, जिसका सबसे अधिक प्रभाव वहां के बच्चों पर पड़ा। जुलाई के पहले ही सप्ताह में उनके स्कूल शुरू हुए थे और उसी समय उनके घर तोड़ दिए गये। करीब दो महीनों तक पूरे परिवार समेत वो उसी मलबे के किनारे पन्नी डाल कर रहने को विवश रहे, फिर क्या बरसात और क्या तेज़ धूप। जो बैग में किताबें बच गयी बस वही साथ रहीं, बाकी सब ज़मींदोज़।
इस सब में यह प्रश्न उठता है कि घर के बनने से लेकर उसके ज़मींदोज़ होने तक में इन बच्चों का अपराध क्या था? जो अभी तक घर के अस्तित्व को नहीं समझ पाए थे उनके कंधे पर घर के चले जाने का भाव क्यों डाला गया? घर किसी भी तरह से टूटे उसके सबसे बड़े पीड़ित तो बच्चे ही होते हैं। क्योंकि वो इस समाज का सबसे बड़ा आश्रित वर्ग है और जो आश्रित नहीं उनमें से अधिकांश शोषित वर्ग है।
हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन) के इविक्शन रिपोर्ट 2017 के मुताबिक देश के अलग अलग हिस्सों में उजाड़ीकरण के दौरान विगत वर्ष करीब ढाई लाख घर तोड़े गये। और ये संख्या सिर्फ उस संस्था द्वारा रिकॉर्ड किए गये हैं, असली संख्या उससे भी अधिक हो सकती है। इसी तरह यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंट्री ऐक्शन (युवा) के इविक्शन रिपोर्ट 2016 में यह बात स्पष्ट रूप से रखी गयी थी कि ज़बरन बेदखली के दौरान अनेक मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है जीवन जीने के अधिकार का उल्लंघन।
शिक्षा व जीवन के अधिकार का उल्लंघन
मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणापत्र (UDHR) के अनुच्छेद 25 में यह बात स्पष्ट रूप से कही गयी है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा जीवनस्तर प्राप्त करने का अधिकार है जो उसके व उसके परिवार के स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए पर्याप्त हो और इसमें आवास तथा सामाजिक सेवाएं महत्वपूर्ण हैं। वहीं इसी घोषणापत्र का अनुच्छेद 26 शिक्षा के अधिकार की बात करता है। इसी तरह से भारत का संविधान भी अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार की बात करता है और इसके अंतर्गत महत्वपूर्ण है अनुच्छेद 21-अ जिसमें शिक्षा के अधिकार का ज़िक्र है।
इतने सारे आधिकारिक संरक्षण होने के बावजूद जब बस्तियों में घर तोड़े जाते हैं, तो उस समय शिक्षा के प्रश्न पर अधिकारी ध्यान देते ही नहीं हैं। घरों के अवैध होने से कई बड़ा और महत्वपूर्ण मुद्दा है बच्चों के शिक्षा के अधिकार की रक्षा करना। किसी भी परियोजना अथवा अतिक्रमण हटाने के दौरान इन प्रश्नों को सोचा ही नहीं जाता। नवी मुंबई के बालतू बाई नगर में जब बस्ती तोड़ी गयी तो वह बरसात का समय था। एक सरकारी आदेश के अनुसार महाराष्ट्र के किसी भी शहर में जून 1 से सितम्बर 30 तक घरों को नहीं तोड़ जा सकता। खैर, यह उल्लंघन एक मात्र उल्लंघन नहीं है। बस्ती के लोगों के अनुसार लोगों को अपने घर से सामान निकालने का समय ही नहीं दिया गया जिसके कारण बच्चों की किताबें और स्कूल ड्रेस वहीं दब गयी। करीब 2 महीने से भी अधिक समय तक पूरा परिवार एक पुल के नीचे रहा। इस दौरान बच्चे स्कूल नहीं गएं। कई बच्चों को वहीं पर पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
इससे भी अधिक भयावह घटना हुई गुवाहाटी के नज़दीक आमशांग अभयारण्य में बसे बस्तियों के उजाड़ीकरण के दौरान। 27 नवम्बर को हुए उजाड़ीकरण के दौरान करीब 700 घरों के साथ-साथ ‘नामघर’ में स्थित सरकारी स्कूल को भी ढ़ाह दिया गया। यह सब कुछ उस समय हुआ जब सरकारी स्कूलो में बच्चों की परीक्षाएं चल रही थी। ऐसे समय में हुए तोड़-फोड़ के कारण कई बच्चे परीक्षा देने नहीं गये। नबज्योति नगर तथा कांकननगर में तो बच्चों के साथ हिंसा की भी खबर आयी जिसमें बच्चों पर रबड़ बुलेट दागे गए। दो दिनों तक चले इस पूरे ड्राइव में करीब 700 घर उजाड़े गये और इसका सीधा असर बच्चों की शिक्षा और उनके जीवन पर पड़ा।
इस प्रभाव को समझने हेतु यह समझना आवश्यक है कि हाशिये पर धकेले गए लोगों के अंदर अधिकार के संरक्षण की भावना का होना महत्वपूर्ण क्यों है? शहर में बढ़ते ‘जगह की राजनीति’ में बच्चों के अधिकार की मांग रखने वाले बहुत कम लोग हैं। इसका एक कारण तो यह है कि बच्चों को हमेशा आश्रित समझा गया है और दूसरा बचपना हमारे यहां नासमझी का पर्याय है। परंतु ऐसा नहीं है। बचपना एक खास सोच है जो एक खास अनुभव और अनुभूति से निकलता है। एक खास उम्र में एक व्यक्ति जो सोच रखता है उसे नासमझी तो नहीं कहा जा सकता। इसीलिए शहर के अधिकार की जब बात की जाए तो उस समय बच्चों के अनुसार उनके अधिकार की परिकल्पना में उनके जीवन जीने का अधिकार और उनके शिक्षा का अधिकार के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
पुनर्स्थापन परंतु पुनर्वास नहीं
विभिन्न आवासीय योजनाओं के अंतर्गत अथवा किसी परियोजना के अंतर्गत हुए बस्तियों का पुनर्स्थापन किसी आवासीय तथा सामाजिक आपदा से कम साबित नहीं हुआ है। सामाजिक परिक्षेत्र में यह बात वर्षों से चल रही है कि अपने वर्तमान आवास से दसियों किलोमीटर दूर हुए पुनर्स्थापन बस्तियों के लिए अन्य समस्याएं पैदा करता है। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है जीविका, शिक्षा और स्वास्थ्य। वस्तुतः यह देखा गया है और सामाजिक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर शोध द्वारा सामने भी लाया गया है कि पुनर्स्थापित कॉलनियां (आर एंड आर कॉलोनी) में किस तरह बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।
उदाहरण के लिए दिल्ली के तीन कोनों में स्थित बड़े-बड़े आर एंड आर कॉलोनी जैसे बवाना, बपरौला और सावदा घेवदा। वर्षों बाद भी इन जगहों पर वो सुविधाएं पूर्ण रूप से नहीं पहुंच पाईं जो यहां पर पुनर्स्थापित किए हुए लोगों के पास पहले से थी। इंदौर, चेन्नई तथा मुंबई में तो स्थिति और भी भयावह है। विभिन्न केंद्रीय आवासीय परियोजनाओं के अंतर्गत हुए बस्ती पुनर्स्थापन के कारण बच्चों को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
पहला कारण तो यह कि साल के बीच में हुए उजाड़ीकरण के कारण उनका स्कूल नयी जगह से दूर हो गया जहां रोज़ जाने के लिए पैसे नहीं जुड़ पा रहे थे और साल के बीच में नए स्कूल में प्रवेश मिलना मुश्किल था, दूसरा बड़ा कारण ये कि पुनर्स्थान स्थल शहर से थोड़ी दूरी पर था जिसके आस-पास अच्छे स्कूल नहीं थे और जो थे भी वहां प्रवेश लेकर पढ़ाई कर पाना बहुत महंगा था, तीसरा महत्वपूर्ण कारण ये कि कार्यस्थल से निवासस्थल दूर होने के कारण काम तक जाने का खर्च बढ़ गया, मतलब परिवार की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा अब यातायात पर खर्च होने लगा और काम भी कम हो गया। इसलिए अधिकांश बच्चों को पढ़ाई छोड़कर परिवार के खर्च के लिए काम करना शुरू करना पड़ा।
इन सब में जो एक कारण बहुत महतपूर्ण है वो यह है कि हर बच्चे का अपने क्षेत्र और घर से एक लगाव होता है, जो कि पुनर्स्थापन के बाद फिर से काबिज़ कर पाने में समय लगता है। उदाहरण के लिए यदि देखें तो इंदौर के सी पी शेखर नगर को जेएनएनयूआरएम के अंतर्गत शहर के मध्य से उजाड़कर करीब 14 किलोमीटर दूर बड़ा बांगर्दा में पुनर्स्थापित किया गया। यहां के लोग मुख्यतः वेस्टरीसाइक्लर के रूप में कूड़ा उठाने का काम करते थे। शहर के मध्य में इनकी बस्ती होने के कारण शहर के किसी भी कोने में पहुंचना इनके लिए ना सिर्फ आसान था बल्कि किफायती भी। बच्चे सुबह स्कूल जाते और फिर शाम को परिवार का काम में हाथ बंटाते।
परंतु पुनर्स्थापन के बाद से जीविका का एक महत्वपूर्ण प्रश्न तो उठा ही, शिक्षा का प्रश्न भी सामने आ गया। अधिकांश बच्चों को जो सातवीं, आठवीं में आ गये थे पढ़ाई छोड़कर काम करना शुरू करना पड़ा। बड़ा बांगर्दा में प्राथमिक शाला के नाम पर छोटा सा कमरा है जहां पर 5 क्लास एक साथ लगती है। उसके ऊपर वाले क्लास के लिए कुछ 4 किलोमीटर दूर गांधीनगर में एकमात्र सरकारी स्कूल है। आवासीय योजनाओं के अंतर्गत हुए विस्थापन में सिर्फ घर का पता ही नहीं बदलता, बहुत कुछ बदल जाता है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है ज़िंदगी जीने का तरीक़ा। सब कुछ ठीक चल रहा होता है, एक दिन अचानक नोटिस, बुलडोज़र और सब कुछ बदल जाता है। वो बचपन जो अभी अभी संभलना सीख रहा था, उसे समंजन सीखना पड़ता है। यह सिर्फ पुनर्स्थापन होता है पुनर्वास बिलकुल नहीं।
आवास का अधिकार अर्थात बचपन का अधिकार
दिल्ली के कठपुतली कॉलोनी से लेकर मुंबई के गरीब नगर, भुवनेश्वर के मां तारिनी बस्ती और इंदौर के भूरि टेकरी तक। हर जगह जो एक बात सबसे अधिक पीड़ादायक रही वो ये कि हर बात से बेख़बर बचपन को सबसे अधिक पीड़ा सहनी पड़ी। नवम्बर महीने में दिल्ली की सर्द रातों में सड़कों पर खुले में सोए बच्चे आवास के अधिकार और अनाधिकृत आवास के बारे में क्या ही जानते होंगे। उन्हें अपने स्कूल में बिस्तर डाल सैकड़ों लोगों के बारे में क्या पता होगा? उन्हें अपने स्कूल ना जा पाने के बारे में क्या पता होगा और अब उस 10 बाई 10 के कमरे वाले ट्रांजिट कैम्प में उनके अंदर पनपती शिक्षा को कैसे ज़िंदा रख पाते होंगे?
बच्चों के लिए उनका घर क्या मायने रखता है वो एक बच्चे से बेहतर और कोई नहीं बता सकता। उनके लिए ज़मीन पर दौड़ लगाने से अच्छा और क्या होता है ये उनसे अच्छा कोई नहीं जानता। एक स्वस्थ बचपन एक स्वस्थ आवास में पनपता है और यहां स्वस्थ से आशय स्वच्छ से कतई नहीं है। यहां स्वस्थ आवास का मतलब है भयमुक्त आवास। जहां दीवार के बाहर ‘D’ या ‘नोटिस’ ना लगा हो, जहां तोड़-फोड़ के खिलाफ लड़ने की तैयारियां नहीं चल रही हो। बच्चे स्कूल जाएं, वापस आकर खेलें, पढ़ाई करें और जीवन के वो फैसले ले सकें जिनमें उन्हें खुशी मिलती हो, यही तो बचपन का अधिकार है। जो हर बार आवास के अधिकार के छीने जाने से दोगुणी रफ्तार से छिनता है।
इस सब में नरिवादी विमर्श को लाना भी आवश्यक है। यदि घर में आमदनी कम होने के कारण बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ता है तो उसमें सबसे पहले एक लड़की से यह अपेक्षित है। यदि काम पर जाने की बात है तो माता-पिता के साथ बेटा बाहर काम पर जाएगा और बेटी घर का खयाल रखेगी। तोड़-फोड़ के बाद होने वाले त्रासदियों में सबसे पीड़ादायक है एक बच्ची का खुले में जीवनयापन करना।
बस्ती का टूटना सिर्फ शहर की सफाई, आवासीय योजना का पूरा होना या परियोजना के लिए ज़मीन खाली करवाना मात्र नहीं है, यह एक आपदा है जिसमें कई घटनाएं एक साथ होती हैं, अलग-अलग प्रभाव के साथ। घर का छीन लिया जाना सिर्फ एक क्रिया नहीं है, यह अपने आप में एक पूरा वाक्य है जिसके शुरुआत से लेकर अंत तक अधिकारों का उल्लंघन लिखा हुआ है। बचपन पर प्रभाव सिर्फ स्कूल का छिन जाना नहीं है, यह एक पूरे जीवन के नींव का डलना है जिसके अनुसार अब पूरा जीवन कटेगा। या तो इस चक्र से बचपन बाहर निकलेगा या फिर इसी चक्र में बचपन किसी अनाधिकृत बस्ती की तरह बार-बार तोड़ा जाएगा, पुनर्स्थापित के नाम पर कोने में धकेल दिया जाएगा और फिर सब कुछ गुमनामी में घटता रहेगा- बचपन के सपने, बच्चों की शिक्षा और देश का उपेक्षित भविष्य।