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“समाज को बेहतर शिक्षा देनी है तो शिक्षकों के वेतन में करनी होगी बढ़ोतरी”

Teacher in a Primary Schol

Educational Institutions Should Increase The Salary Of Teachers.

शिक्षक होना अपने आप में सृजन-आनंद का स्रोत है। शिक्षक अपनी कक्षा में ऊर्जावान विद्यार्थियों के साथ एक ऐसी दुनिया निर्मित करता है जहां हिन्दी, गणित और विज्ञान जैसे विषयों के साथ परिवार, समाज, राजनीति, देश-विदेश, गांव-मोहल्ला सब कुछ मौजूद रहता है। अपने विद्यार्थियों के लिए हर अध्यापक ऐसा आलंबन होता है जो बिना किसी शर्तों के हर परिस्थितियों में सहयोग के लिए मौजूद रहता है। इस सृजन-आनंद को परखने के लिए शिक्षकों की स्मृति की पोटली को पलटिए। इसमें आप अनगिनत यादें पाएंगे जिसमें न जाने कितने विद्यार्थियों के नाम, उनसे जुड़े किस्से, अनगिनत प्रयोग, सीखने और जानने के नुस्खे होगें। ये स्मृतियां किसी सिद्धान्त की उपज नहीं है, बल्कि शिक्षण के दौरान पैदा हुई सूझबूझ होती है। स्मृतियों की इस पूंजी की तुलना न तो शिक्षा के सैद्धान्तिक ज्ञान और न ही व्यावसायिक संतुष्टि के किसी मनावैज्ञानिक सिद्धान्त से की जा सकती है।

यह तो शिक्षक और विद्यार्थियों की साझा संपत्ति होती है जो स्थायी स्मृति बन कर शिक्षकों को उपलब्धि का एहसास कराती है। इस उपलब्धि की एक सीमा यह भी है कि इसमें केवल अध्यापक और विद्यार्थी ही शामिल होते हैं। जैसे ही इस दायरे से बाहर निकलकर बड़े सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक फलक पर अध्यापकों की स्थिति को देखते हैं, तो अब तक जिस सुंदर चित्र को खींचा गया है उसमें दरारें पड़ने लगती हैं। इन दरारों का अवलोकन उन सरकारी रिपोर्टों या किसी निजी संस्थान के अध्ययन में खोज सकते हैं जहां शिक्षकों की उदासीनता, उत्तरदायित्वहीनता और उपेक्षित होने जैसे पक्षों का उल्लेख होता है। ऐसी स्थितियों के लिए अकसर दोषारोपण शिक्षकों पर किया जाता है और इसे उनके व्यक्तिगत गुणों का हिस्सा बता दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि हमारी संस्थागत संस्कृति शिक्षकों की सक्रियता और उत्साह का पोषण नहीं कर पा रही है।

पिछले कुछ सालों में विद्यालय से लेकर विश्वविधायलयों तक शिक्षकों की स्थिति में आए बदलावों को हम इस प्रकार से समझ सकते हैं।

  1. सरकारी नियुक्ति में कटौतियां
  2. अस्थाई शिक्षकों के बल पर संस्थानों का संचालन
  3. निगरानी की केन्द्रीकृत व्यवस्था जिसमें क्या, कब और कैसे करना है, इसके लिए निर्णय का अधिकार शिक्षकों के कार्यक्षेत्र से बाहर करना
  4. जवाबदेही के नाम पर काम के घंटों और कार्यों का विवरण व उपलब्धियों के मापने के यांत्रिक तरीके
  5. नीतियों को त्वरित करने के बहाने निर्णयों में शिक्षकों की भागीदारी को न्यूनतम करना
  6. निजी क्षेत्र के प्रसार में सहयोग प्रदान करना

सबसे पहले तो राज्य को ये तय करना होगा कि वो शिक्षकों के प्रति अपनी जवाबदेही को न्यूनतम करें और शिक्षकों को व्यवस्था के प्रति जवाबदेह बनने के लिए मजबूर करें। इस जवाबदेही के लिए राज्य ने निजी क्षेत्रों को भी अधिकार सौंप दिए हैं। नवउदारवाद जनित अलग-अलग संज्ञाओं जैसे- पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप, फिलॉन्थ्रोपी आदि के माध्यम से शिक्षा जैसे मानवीय संबंधों और मानव निर्माण की प्रक्रिया में भी कार्पोरेट संस्कृति हावी हो रही है।

शिक्षण संस्थानों में लागत को कम करने की हर संभव कोशिश की जा रही है। इसका सबसे सरल और सुलभ लक्ष्य शिक्षक ही बन गए हैं। अपने आस-पास के निजी संस्थानों को ही देख लीजिए जहां विद्यालय प्रबंधन भवन, वाहन और ए.सी. जैसी सुविधाओं पर निवेश करने से नहीं चुकते। लेकिन शिक्षकों के वेतन, कार्य संस्कृति और प्रोफेशनल विकास के लिए निवेश नहीं करना चाहते।

समाज को बेहतर शिक्षा देनी है तो शिक्षकों के वेतन में बढ़ोतरी करनी होगी। गुणवत्ता के नाम पर शिक्षकों का कार्यबोझ इस तरीके से बढ़ाया जा रहा है कि विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों तक कार्यावधि के बाद भी शिक्षक नोटबुक जांचने, प्रश्नपत्र बनाने, तरह-तरह की रिपोर्ट को तैयार करने में व्यस्त रहते हैं।

इससे तो यहीं समझा जा सकता है कि शिक्षकों को विचार करने और विचारों को कार्यरूप देने के लिए हतोत्साहित किया जाता है। उन पर अविश्वास करना एक चलन सा हो गया है। ऐसा सिद्ध किया जा रहा है कि निजी क्षेत्र में विचार करने का काम प्रबंधन कर सकता है और सरकारी क्षेत्र में अधिकारियों को इसके लिए सुपात्र माना गया है। तो फिर शिक्षक क्या कर सकते हैं? किसी और द्वारा तय की गई अपेक्षाओं पर खुद के प्रदर्शन को सही सिद्ध करने का हर संभव प्रयास। तभी तो प्रबंधन शिक्षकों के कामों पर निगरानी रखने के लिए बाकायदा चेकलिस्ट तैयार करते हैं। आजकल तो ई-मेल और व्हाट्सअप संस्कृति का चलन भी शुरू हो गया है।

वस्तुतः शिक्षकों का प्रोफेशनल संदर्भ सत्ता संबंधों पर आधारित हो चुका है। इसमें एक अच्छा अध्यापक वह है जो दिए गए संसाधनों और दबावों के बीच विद्यार्थियों की उपलब्धि के लिए समर्पित हो। जो मशीन की तरह कार्य तो करें, लेकिन विचारवान मनुष्य की तरह कोई सवाल न पूछे। आजकल तो स्कूल इंस्पेक्टरों की जगह सीसीटीवी कैमरे ने ले ली है। राज्य या विद्यालय प्रबंधन ने शिक्षक को आज्ञाकारी कर्मचारी बना दिया है।

जैसे-जैसे शिक्षण व्यवसाय पर बाज़ार का दबाव और प्रभाव बढ़ेगा, वे शिक्षक कम और टेक्नीशियन या मैनेजर अधिक लगेंगे। बाज़ार के प्रभाव की वजह से मौजूदा दौर में शिक्षकों की ऐसी हालत होती जा रही है जो ‘गुरू‘ होने के भ्रम में बिना निवेश या टूट-फूट के निजी क्षेत्र के विस्तार और लाभार्जन का माध्यम बन चुका है। इस व्यवस्था ने उसकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना और सक्रियता को पंगू बना है। शिक्षा और शिक्षक कोई बाज़ार की सामग्री नहीं है जो सेल्समैन की तरह दिए टारगेट को पूरा करने को मजबूर हो जाएं, बल्कि वे ऐसी चेतना के प्रतिनिधि हैं जिसके श्रृंखला का तार श्री अरबिंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी और सावित्रीबाई फूले से जुड़ा है। वै‍यक्तिक अस्मिता का सम्मान, समानता का व्यवहार और कार्यप्रणाली में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्वीकार्यता के बिना शिक्षक को ‘गुरू‘ की भूमिका में प्रतिष्ठित नहीं कर सकते हैं।

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