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“किसान आंदोलन में लाल झंडा देखने वाली सरकार को आत्महत्या के आंकड़े क्यों नहीं दिखते”

कुछ रोज़ पहले दिल्ली की सड़कों पर हाथ में लाल झंडा लिए एक हुजूम उमड़ा। वो हुजूम भारत के अन्नदाता कहे जाने वाले किसानों का था। अन्नदाता को भारतीय संस्कृति में ईश्वर का दर्जा प्राप्त है। कुछ इसी तरह का हुजूम कुछ महीनों पहले मुंबई और उसके बाद मध्यप्रदेश के मंदसौर में भी दिखा था। पहले मुंबई और अब दिल्ली, क्या वजह रही कि खुद ईश्वर को हाथों में झंडा थामे सड़क पर उतरना पड़ा?

वो किसान अपनी बद से बदतर होती जा रही स्थिति से तंग आकर अपनी मांगों को लेकर सड़क पर उतरें। भारत का प्रमुख पेशा कही जाने वाली कृषि आज कर्ज़ में डूबी है और इसकी कई वजहे हैं। सबसे पहली वजह है किसानों को उनका न्यूनतम समर्धन मूल्य ना मिलना। सरकार ने कई फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किये हैं मगर ज़मीनी स्तर पर किसान उनसे वंचित हैं।

न्यूनतम मूल्य ना मिलने से किसानों को उनके उत्पादन के लिए मिलने वाली राशि और उसके बाज़ार मूल्य में ज़मीन आसमान का अंतर उत्पन्न हो जाता है। नतीजा सरकारों तक उनका टैक्स और व्यापारियों तक उनकी पूंजी तो पहुंच जाती है मगर किसानों तक उनका मेहनताना नहीं पहुंच पाता।

यही घटता मेहनताना किसानों के दूसरे और प्रमुख संकट का कारण है जो है उनका बढ़ता कर्ज़। ज़ाहिर है जब किसानों तक उनका पैसा पर्याप्त रूप से नहीं पहुंचेगा तो वो कर्ज़ चुकाने में अक्षम होंगे। कर्ज़ किसानों पर सिर्फ एक आर्थिक संकट नहीं बल्कि सामाजिक उपहास का कारण भी बनता है। किसान ज़्यादातर गांव में रहते हैं जहां लोगों का लोगों से जुड़ाव शहर की तुलना में काफी अधिक होता है। ज़ाहिर है कर्ज़ वापसी के लिए जब बैंक दरवाज़े पर दस्तक देगी तो गिरवी ज़मीन-जायदाद के साथ इज्ज़त की भी नीलामी होगी।

घटती आमदनी, फसलों का नुकसान और कर्ज़ का बढ़ता बोझ किसान को आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने पर मजबूर करती है। 2016 में सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश के 17 राज्यों के किसानों की सालाना आमदनी 20,000 से भी कम है और देश के तकरीबन 52% किसान कर्ज़ में डूबे हैं। गौरतलब है कि 2.3 ट्रिलियन डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था का 17% कृषि के द्वारा ही प्राप्त होता है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के डेटा की मानें तो 1995 से अब तक कुल 300,000 किसानों ने आत्महत्या की है। ये भी मुमकिन है कि असली आंकड़े इससे भी ज़्यादा हों क्योंकि पंजाब विश्वविद्यालय के आंकड़े बताते हैं कि 2000 से लेकर 2016 तक पंजाब जैसे समृद्ध राज्य में 16,600 किसान आत्महत्या कर चुके हैं यानि हर साल तकरीबन 1000 किसान। जबकि अगर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हिसाब से चलें तो ये आंकड़ा 300 किसान प्रतिवर्ष का हो जाता है। 2011 की जनगणना के हिसाब से हर दिन तकरीबन 2400 किसान कृषि छोड़कर शहर कमाने चले जाते हैं।

कर्ज़ माफी और वार्षिक न्यूनतम आय किसान की प्रमुख मांगे हैं और इन्हीं कुछ मांगों को लेकर वे सड़क पर उतरने को मजबूर हैं। मगर सरकार किसानों की मांगों के साथ राजनीति करने के अलावा कुछ नहीं करती। चुनावी वादों में प्रमुख रूप से सम्मलित कृषि-आधारित मुद्दे अचानक ही सरकार बनने के बाद उनके मानस पटल से गायब हो जाते हैं। कर्ज़ माफी पर सरकार का कहना है कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ सकता है और ये वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाईजेशन के नियमों के अधीन नहीं आते। आश्चर्य करने वाली बात है कि यही सरकारी अर्थशास्त्री कॉर्पोरेट लोन राइट ऑफ करने में सबसे आगे रहते हैं और इसके अर्थव्यवस्था पर फायदे गिनने से बाज़ नहीं आते।

इतिहास गवाह रहा है कि बड़े जन-आंदोलन बदलाव का आधार बने हैं, उम्मीद है कि जल्द ही सरकारों को किसानों के हाथ में लाल झंडे के अलावा उनके पैरों में पड़े, खून से सने लाल छाले भी दिखेंगे।

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