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हबीब तनवीर जिन्होंने लोककलाओं को रंगमंच का हिस्सा बनाने की क्रांतिकारी पहल की

उन दिनों दिल्ली के नाट्य-उत्सवों में कॉलेज की नाट्य-मंडली एवं शौकिया कलाकारों का एकाधिकार था। यह मंडलियां प्रमुख रूप से अंग्रेज़ी प्रस्तुतियां दे रहे थीं। कुछ लोग मूल यूरोपीय नाटकों का हिन्दी रूपांतरण प्रस्तुत कर रहे थे। एक तरह से दिल्ली का रंगमंच यूरोपीय प्रभाव में आकार ले रहा था। इनमें रंगमंच की अवधारणा, अभिनय, प्रस्तुति और अन्य तत्व ‘यूरोपीय मॉडल’ से प्रेरित थे। इस चलन को तनवीर के ‘आगरा बाज़ार’ ने चुनौती दी। आपके ‘आगरा बाज़ार’ से पहले परंपरागत भारतीय तत्वों को दिल्ली के रंगमंच से बेगाना सा कर दिया गया था।

तनवीर की प्रस्तुति ने सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति नागरिकों के अप्रतिम लगाव को ताज़ा किया। प्रस्तुति में लोगों को भारतीयता की सच्ची अनुभूति हुई। आगरा बाज़ार नज़ीर अकबराबादी की रचना थी, उनकी शायरी व सांस्कृतिक रुचि को ‘आगरा बाज़ार’ में सशक्त अभिव्यक्ति मिली। तनवीर साहब की शैली ने ‘आगरा बाज़ार’ को अधिक दर्शनीय बना दिया था। आगरा बाज़ार की सफल प्रस्तुति से प्रोत्साहित होकर विश्व स्तर की रंगमंच प्रस्तुतियों की खोज में विदेश का रुख किया, उस सफर में मशहूर नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त के रंगमंच विद्यालय एवं रंगमच की रॉयल अकेडमी में अनुभव बटोरे। आपने यूरोपीय रंगमंच का जायज़ा लिया और बारिकियों को भी समझने का प्रयास किया। इसी क्रम में ब्रेख्त की प्रस्तुतियों से देखने का प्रर्याप्त समय मिला था।

हबीब तनवीर का बचपन रायपुर में गुज़रा। खानदान के कुछ लोग वहां ज़मींदार थे। परिवार के कुछ सदस्यों के संयोग से ग्रामीण जीवन से परिचित हुए। बचपन के दिनों में उन्हें गांवों में जाने के अनेक अवसर प्राप्त हुए, आपमें जीवन-संस्कृति के प्रति आकर्षण बनना शुरू हो गया था। पारंपरिक देशज संगीत के ज़रिए अपनी माटी से गहरा जुड़ाव हुआ, इस अनुभव से अक्रांत हुए।

आप लोक कलाओं से अक्रांत हुए। कलाओं की साधना का सफर शुरू हुआ। सतत साधना के दम पर वह ‘लोक-कला’ की नाट्य विधा के संवेदनशील पथ-प्रदर्शक बने। शुरुआती शिक्षा रायपुर के नगर निगम विद्यालय में हुई। कॉलेज की पढ़ाई के लिए नागपुर चले आएं, वहां उन्होंने माउरिस कालेज में दाखिला लिया। फिर अलीगढ विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर के लिए आएं। अलीगढ़ में रहते हुए लेखन की ओर रुझान हुआ। शुरुआत कविताओं से की, तनवीर नाम से कविताएं लिखी। तकदीर की तालाश में बंबई चले आएं, ऑल इंडिया रेडियो में काम मिला। सृजनात्मक साधना को जारी रखते हुए आगे भारतीय जन नाट्य संघ एवं प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े। फिर वहां से दिल्ली चले आएं, जहां कुदसिया ज़ैदी के हिन्दुस्तानी रंगमंच में नए अवसर आपका इंतज़ार कर रहे थे।

हबीब तनवीर का मानना था कि आत्म सांस्कृतिक व परंपरागत संदर्भों के अभाव में रंगमंच प्रस्तुति सामाजिक उपयोगिता एवं कलात्मक मनोरंजन को प्राप्त नहीं कर सकती। वह रंगमंच के विशुद्ध भारतीय प्रारूप की खोज पर निकल पड़े, परंपरागत छत्तीसगढ़ी लोक कलाओं को लेकर आएं। वहां के लोक कलाकारों को लेकर नाट्य मंडली का गठन किया। परंपरागत छत्तीसगढ़ी क्लेवर युक्त ‘मिट्टी की गाड़ी’ का निर्माण इस क्रम में उल्लेखनीय रहा। मिट्टी की गाड़ी जिसे ‘मृचकटिकम’ के स्तरीय आधुनिक रुपांतरण का दर्जा हासिल रहा, माध्यम से आपने ‘संस्कृत नाटकों’ की शैली और तकनीक को लोकप्रिय लोककलाओं में उपयोग किया। शुरू में आप परिणामों से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे, उत्तम परिणामों की खोज में लोक कलाकारों को लेकर खुद में सुधार की आवश्यकता समझ आई। वह समझ गए कि अभिनय व प्रस्तुति का खाका पहले से बना लेना उचित नहीं, साथ ही छत्तीसगढ़ी लोक- कलाकारों को हिन्दी बोलने के लिए मजबूर करना भी ठीक नहीं।

लोक-कलाकारों के साथ काम करने के तरीके में बदलाव लाते हुए आपने उन्हें सीखने की आज़ादी दी। कलाकारों को अपनी बोली की आज़ादी देते हुए परंपराओं को उनके निराले अंदाज़ में रखने दिया। इस संदर्भ में ‘गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद’ का ज़िक्र किया जा सकता है। आपकी इस प्रस्तुति को छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक खूब प्रशंसा मिली। यह नाटक आपके रंगमंचीय सफर में महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ। मशहूर ‘चरणदास चोर’ के समय तक हबीब साहेब की छत्तीसगढ़ी रंगमंच शैली गुणवत्ता के उच्चतम स्तर को पा चुकी थी।

लोक-कलाओं के प्रति उनका जुनून परंपरागत माध्यमों की असीम कलात्मक ऊर्जा एवं रचनात्मक संभावनाओं पर आधारित थी। आपके रंगमंच की फ्यूज़न धारा किसी भी प्रारूप से पूरी तरह से प्रभावित नहीं रही। उसमें भारतीय व यूरोपीय रंगमंच प्रस्तुतियों का कुशल संयोजन गढ़ा हुआ था। आपकी नाट्य मंडली में हमेशा उन कलाकारों का स्वागत हुआ जो विशेष शैली के साथ आएं, टीम में गायन व नृत्य में निपुण कलाकारों को अवसर मिला। हबीब तनवीर की एक धारा शुरू से ही लोक तत्वों के प्रति समर्पित रही। आपने फ्यूज़न रंगमंच का आधार रखा। फ्यूज़न में छत्तीसगढ़ के पांडवनी और नाचा लोक नृत्यों को एक सांचे में पिरोने के साथ-साथ महानगरीय व ग्रामीण कलाकारों को एक मंच पर लाने का सराहनीय काम किया। उनके नाटकों की कथावस्तु परंपरागत संस्कृत थियेटर से लेकर शेक्सपियर की रचनाओं से प्रेरित रहती थी। इनमें लोक विषय एवं सामयिक यूरोपीय प्रस्तुति का सुंदर मिश्रण मिलता है। उनकी नगरीय,आधुनिक एवं परंपरागत लोक शैलियों का सबसे कुशल संयोजन ‘कामदेव का अपना, बसंत ॠतु का सपना’ और ‘साजपुर की शांतिबाई’ में बन पड़ा था। नाटकों में गीतों के दर्शनीय प्रयोग के लिए आपके नाटक याद किए जाते हैं। गीतों में लोक स्पर्श का कुशल उपयोग तनवीर की कविताई को प्रमाणिकता देती है। इस संबंध में ‘देख रहे हैं नयन’ का भी नाम लिया जा सकता है। तनवीर की किताबों में भी बहुत रूचि रही, आप पुस्तकों को आत्म-संवाद की सशक्त शक्ति के तौर पर देखा करते थे। आस्टिन-आर्थर मिलर व उर्दू अदब से जुड़ी किताबें आपके घर में शायद अब भी मिल जाएं।

साठ के दशक में आपने पत्नी मोनिका मिश्रा के सहयोग से ‘नया थियेटर’ को स्थापित किया। इस रंगमंच मंडली के बैनर तले अनेक नाटकों का निर्माण व मंचन किया। भारत व यूरोप की प्राचीन व आधुनिक शैली का कुशल संयोजन करते हुए रोचक प्रस्तुतियां दीं। नया थियेटर ने हमें संपूर्ण भारतीय रंगमंच प्रस्तुति को अनुभव करने का अवसर दिया था।

समकालीन परिदृश्य में नया थियेटर की प्रस्तुतियां क्रांतिकारी पहल बनकर समक्ष थीं। नया थियेटर से अलग प्रस्तुतियों में ‘दुश्मन’ एवं ‘जिसने लाहौर नहीं देखा’ खासे लोकप्रिय रहें। आपमें लोक कला व परंपराओं के प्रति खास आकर्षण रहा, रंगमंच में उन तत्वों को व्यापक स्तर पर शामिल करते थे। नया थियेटर मंडली में पढ़े-लिखे अथवा आधुनिक व लोक कलाकारों का दिलचस्प समन्वय था।

मंचीय प्रस्तुति में इन कलाकारों ने सफल एकीकृत प्रस्तुतियों का उदाहरण रखा। आपमें बाज़ार की बोल-चाल को लेकर खासी दिलचस्पी रही, बाज़ार व दरबार की ज़ुबानों व तहज़ीब का तुलनात्मक अध्ययन करते थे। नज़ीर अकबराबादी रचना से प्रेरित ‘आगरा बाज़ार’ में एक रोचक सब्ज़ीफरोश की संकल्पना थी। सब्ज़ीफरोश का मानना था कि गर कोई शायर सब्ज़ियों की तारीफ में कुछ लिखता तो वो ज़्यादा बिक सकती थीं। कथा ने उस चोर की कहानी पेश की जो इज्ज़त के लिए जान जोखिम में डालने वाला इंसान था। इस नाटक से यह संदेश मिला कि सच पर अडिग रहना बहुत ही कठिन होता है। अधिकांश लोगों की तरह एक चोर भी सच-झूठ पर ज़िंदा रहता है।

तनवीर की पोंगा पंडित जिसे लोक कलाकार सुखराम व सीताराम ने लिखा था, विरोधियों ने इसे हबीब साहब की रचना कहा। यह लोग तनवीर पर मनमाना आरोप लगाकर नाटक का विरोध कर रहे थे। विरोधियों ने संवेदनशील तनवीर को हिंदू विरोधी करार देते हुए ‘पोंगा पंडित’ से जुड़े सदभाव की बड़ी हानि की। लोककलाओं के प्रति आपका नज़रिया समकालीन रंगमंच विचारधारा में क्रांतिकारी सोच का आगमन था। लोकप्रियता के पैमाने पर तनवीर का नाम वैचारिक लोककला के समकक्ष देखा जा सकता है। लोक नाट्य की समकालीन हालात उत्साहजनक नहीं थी। आप जब इस क्षेत्र में आएं तो उस समय रंगमंच लोककलाओं से प्रेरित प्रस्तुतियों के ऊपर सोच नहीं रहा था। लोककलाओं को रंगमंच का हिस्सा बनाने की क्रांतिकारी पहल हबीब तनवीर से शुरू होती है। तनवीर की कला साधना आपके समर्पित जीवन का प्रमाण है। ज़िंदादिली से जीने में यकीन रखते हुए आखिरी दिनों तक कला साधना में जुटे रहें।

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