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हम कब समझेंगे कि आपदाओंं को न्यौता देने वाले हम इंसान ही तो हैं

(ये लेख जितना प्राकृतिक आपदाओं के बारे में है, उतना ही सामाजिक आपदाओं (हिंसा/द्वेष) के बारे में भी है, उस नज़रिये से भी इसे पढ़ें।)

बाढ़ के वक्त जब तबाही फैली होती है, बीमारी पांव पसार रही होती है, जब नालों का पानी नदी से घुलकर हर घाट को दूषित करने को आमादा होता है, तब असली नुकसान का अंदाज़ा लगाना मुमकिन नहीं होता। हर कोई बस इसके बह जाने की प्रार्थना में लगा रहता है। उस समय किसी को ख्याल नहीं आता कि नाला अपने मौहल्ले का था, या किसी दूसरे मौहल्ले का, सारे नाले किसी बड़े स्रोत में जुड़कर अपनी भयावहता बढ़ाने की कोशिश में लगे रहते हैं, ताकि तबाही का मंज़र और बड़ा हो।

मगर इस पानी के बहाव ने ना जाने कितनी पुरानी बनी संरचनाओं को बिगाड़ा, घरों को तोड़ा, पुलों को बहाया, ये तब ही पता चल पाता है, जब बाढ़ खत्म हो जाती है। तब याद आता है कि इस आपदा का घड़ा जो फूटा, उसमें कितनी बूंदें हमने डाली थीं और ये भी पता चलता है कि इस कचरे के सागर में कितना हिस्सा हमारे घर का है। त्रासदियों के समय वो लौट आते हैं हमारे पास और किनारों पर बैठे हमें निहारते रहते हैं, एकटक और हम उन्हें निहारते हैं अचंभित, लज्जित, थोड़ा सकुचाए, थोड़ा मुंह छुपाए और थोड़ा खुद को ये दिलासा देते हैं कि इसमें मेरा हिस्सा मामूली ही है।

नियति हमें देखते रहती है, असहाय भाव से कि कैसे हम बिना समस्या के मूल पर नज़र डाले आगे निकल जाते हैं, अकड़ से, या फिर नासमझी से और फिर आखिर में हम पर तरस खाकर तूफान को वापस खींच लेती है।

तूफान के लौट जाने के बाद हमें त्रासदी का पैमाना समझ आता है और फिर हम लग जाते हैं, इन सब पर झाड़ू फेरकर, मरहम-पट्टी लगाकर, नए घर बनाने, नई सड़क बिछाने और टूटे पुलों की मरम्मत करने में। अपनी मजबूर किस्मत का बोझा लादे असहाय ज़िंदादिली की मिसाल देते हुए निकल पड़ते हैं, बिना ये सोचे कि पिछले पुलों के टूटने का कारण बाढ़ थी, या कोई कमज़ोरी, कोताही या कुछ और।

कहीं निर्माण-सामग्री ही तो खोटी नहीं थी? आखिर कुछ घण्टों की वृष्टि से ही सूखे पड़े ताल-तालाब-नदी-नाले इतने पुष्ट कैसे हो जाते हैं कि दशकों-सदियों के निर्माण को तहस-नहस कर दें?

सवाल उठता है कि आखिर दोष है कहां? लेकिन इससे किसी को फर्क नहीं पड़ता है। इसके बाद कुछ लोग आएंगे नये निर्माण करने, चील-कौओं की तरह खसोट मचाएंगे और फिर निकल जायेंगे नए शिकार पर। जब फिर कभी कोई नई आपदा आएगी तो चंद आंसू बहाएंगे। फिर से कुछ लोग आएंगे, नए निर्माण के नए वादों के साथ और उसमें लूट मचाकर फिर नई आपदा की तरफ निकल जायेंगे, नए वादों के साथ।

यही होता आया है, हमेशा से और इसी तरह से ये सिस्टम खुद को संगठित और संतुलित बनाये हुए है और पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर और स्वयंधारी (self-sustaining) बन, एक पूरक इकाई के तौर पर काम करती है। प्रजा यही पिक्चर दशकों से देख रही है, हर बार नए नायक-नायिकाओं के साथ और हमारी जनता बोर भी नहीं हो रही, क्योंकि हर बार प्रजा की पीढ़ी भी बदल जाती है।

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