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“पुरुषवादी समाज को मां चाहिए, पत्नी चाहिए, बहन चाहिए लेकिन बेटी नहीं चाहिए”

जब किसी लड़की की तुलना किसी लड़के से की जाती है, तब ये लड़की के साहसी होने का प्रतीक होता है लेकिन अगर किसी लड़के की तुलना लड़की से की जाती है तब लोग उसका मज़ाक उड़ाना शुरू कर देते हैं। लोगों को लगता है कि नारी कायरता और कमज़ोर होने का प्रतीक है।

भारत को 1947 में आज़ादी ज़रूर मिल गई लेकिन समाज का एक बड़ा हिस्सा अभी भी गुलाम की तरह जी रहा है। ज़रा आप खुद ही सोचिए जो स्त्री एक नया जीवन देने की क्षमता रखती है क्या वह वाकई में कमज़ोर हो सकती है?

जब हमारे घर में लड़का जन्म लेता है तब हर तरफ खुशहाली छायी रहती है लेकिन जब लड़की का जन्म होता है तब कुछ लोग होते हैं जो मुंह फुलाने से पीछे नहीं हटते। उन्हें क्या पता कि झांसी की रानी, पीवी सिंधु, इंदिरा गांधी, सुष्मिता सेन, भावना कंठ और सुषमा स्वराज से लेकर रक्षा मंत्री के पद पर निर्मला सीतारमण का नियुक्ति होना क्या दर्शाता है। शायद इन लोगों के पास आंखें तो हैं लेकिन ये देखना कुछ नहीं चाहते। इन सभी को मां चाहिए, पत्नी चाहिए, बहन चाहिए फिर ना जाने बेटी क्यों नहीं चाहिए।

लोग कहते हैं लड़कियों के प्रति समाज में बड़ी कुरीतियां हैं। हम कहते हैं सरकार दहेज प्रथा हटा क्यों नहीं रही है। सरकार? क्या सच में सरकार कुछ कर सकती है अगर हम खुद ना चाहें। हम कहते हैं यह एक अभिशाप है लेकिन अपनी बेटी के लिए दहेज के पैसे उसके जन्म के बाद से ही इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। हैरानी तो यह देखकर होती है कि देने वाले दहेज देते समय इसे एक बुरी आदत कहते हैं लेकिन दहेज लेते समय उन्हें ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं होती है ।

अगर हम यह पैसा उनकी पढ़ाई में लगाएं तो शायद वह अपने पैरों पर सफलतापूर्वक खड़ी हो सकें। तब शायद एक 50000 कमाने वाले लड़के और 50000 कमाने वाली लड़की को समाज बराबर समझे। घर-बाहर की दोहरी ज़िम्मेदारी निभाने वाली महिलाओं से यह पुरुष प्रधान समाज चाहता है कि वह अपने को पुरुषों के सामने दोयम दर्जे पर समझे।

प्राचीन काल से देखा गया है कि समाज त्याग की उम्मीद केवल स्त्री से ही रखता है। आपको सीता जी की अग्नि परीक्षा तो याद ही होगी। अभी भी उन लोगों की कमी नहीं है जो समझते हैं कि त्याग करना महिलाओं का ही काम है। देखा जाए तो लड़की जन्म लेने के साथ ही त्याग करना शुरू कर देती है, कभी अपने घर को त्यागना, तो कभी अपने सरनेम को, तो कभी अपने परिवार के लिए अपने सारे सपनों को।

आए दिन लड़कियों के साथ बदसलूकी होती रहती है, लोग कहते हैं लड़की ने गलत कपड़े पहन रखे थे। अब क्या बताऊं कपड़े से तो केवल पर्दा होता है जनाब, हिफाज़त तो नज़रों से होती है। मैं सारे अभिभावकों से यह विनती करती हूं कि अगर वह अपनी बेटी के घर लौटने का समय निर्धारित कर रहे हैं तो बेटों के साथ भी यही करें। दोनों को सही और गलत के बीच में अंतर करना सिखाएं। लड़कियों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ समाज को यह भी बताने की ज़रूरत है कि लड़की भगवान की बनाई गई सृष्टि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

हमारे समाज में कहने के लिए तो स्त्री को देवी का रूप माना जाता है लेकिन बहुत कम ही लोग होंगे जो इस बात को समझते होंगे। शायद यही वजह है कि आए दिन हम स्त्रियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहारों की खबरों को सुनते रहते हैं। शायद हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हरेक महिला को अपना फैसला करने और अपना विचार रखने का ना केवल पूरा हक है बल्कि पूर्ण अधिकार भी है।

आखिर में मैं यह कहना चाहूंगी कि इस प्रकार के भेदभाव का अंत केवल आप लोगों के सहयोग से संभव हो सकता है। तभी हमें एहसास होगा कि भारत का हर एक नागरिक आज़ाद है।

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