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“हिंदी” को “नई हिंदी” में बदलने दीजिए सब ठीक हो जायेगा

साल 2016 के दिसंबर में मैं भारत के उच्च हिमालयी राज्य उत्तराखंड के दुर्गम ज़िले बागेश्वर में 2100 मीटर की ऊंचाई पर बसे गांव शामा में अपने और अपने फेलोज़ के रहने लिए घर तलाश रहा था। हमें हमारे रहने के मनमुताबिक मकान नहीं मिल रहा था।

एक घर बड़ी मुश्किल से हमें पसंद आया तो उसके मकान मालिक हमें कमरा देने के लिए राज़ी नहीं हुए, वजह उनकी चाहे जो भी रही हो। वहां एक महिला खड़ी थी जिसका बेटा अभी-अभी स्कूल जाना शुरू किया था और वो भी वहां किराये पर ही रहती थी। वह महिला मकान मालकिन को अंदर ले गयी और जब वह कुछ बातचीत करके बाहर आई तो हमें वो मकान देने पर राज़ी हो गये, उस वक्त मैंने इस विषय पर बात नहीं की पर जब हम वहां रहने गये तो एक दिन बातों ही बातों में मैंने उस महिला से उगलवा लिया कि उन्होंने क्या कहा था मकान मालकिन से?

वो तुम्हारे साथ वाले इंग्लिश में बात कर रहे थे ना मेरा बच्चा भी इंग्लिश सीख जाए तुम्हारे साथ इसलिए मैंने उन्हें रखने के लिए मनाया।

मेरे लिए ये कोई नई बात नहीं थी। हमारे हिंदी बेल्ट के राज्य में सबको इंग्लिश घोलकर पीने का मन करता है जिससे वो अंग्रेज़ी में बतियाने लगे।

दिक्कत कभी इस बात की नहीं है कि कोई अंग्रेज़ी सीखना चाहता है, दिक्कत इस बात से है कि हमें हिंदी नहीं आती। हिंदी बेल्ट के युवाओं से बातचीत के दौरान ये बात बहुत निकल कर आती है कि उनका इंटरव्यू इसलिए नहीं निकला क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती पर मेरा अनुभव हमेशा ये रहा कि वो युवा अपना परिचय ठीक से हिंदी में भी नहीं दे पाते।

हिंदी ने अपना आकर्षण खोया है और उसकी कई सारी वजहों में सबसे बड़ी वजह ये है कि हिंदी अब ‘रोज़गार’ की भाषा नहीं है। आर्थिक रूप से विकसित होते समाज के बीच हिंदी ने अपनी जगह को खत्म किया है या यूं कहें कि खत्म होने के लिए मजबूर किया गया है। केंद्र तथा राज्य सरकारों ने हिंदी पर ध्यान देना कम किया है साथ में प्राइवेट सेक्टर तो अंग्रेज़ी का दिवाना है ही।

वर्तमान स्कूली शिक्षा में हिंदी ने अपनी ज़मीन खोई है क्योंकि हम सभी को अपने बच्चे अंग्रेज़ बनाने हैं। बच्चों ने हिंदी पढ़ना छोड़ दिया है। अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में तो हाल बुरा है ही पर हिंदी मीडियम में भी बच्चे हिंदी में काला अक्षर भैंस बराबर हैं। हिंदी और संस्कृत को पिछड़ी नज़रों से देखा जाता है और मज़ाक बनाया जा रहा है। एक जोक आया था मेरे पास

भाषा की क्लास में गुरूजी ने पूछा- राजू इस श्लोक का अर्थ बताओ,
“बहुनि में व्यतीतानि, जन्मानि तव चार्जुन।”
राजू- मेरी बहू के कई बच्चे पैदा हो चुके हैं, सभी का जन्म चार जून को हुआ है।
गुरूजी गुस्सा हो गये फिर पूछा
“तमसो मा ज्योतिर्गमय”
राजू- तुम सो जाओ मां मैं ज्योति से मिलने जाता हूं।

ये जोक केवल मज़ाक उड़ने तक सीमित नहीं है, ये आईना है हमारे सामने का कि कैसे हमारी मुख्य भाषाएं धीरे-धीरे किनारे हो रही हैं।

हिंदी भाषा के पतन के लिए हिंदी के मठाधीश भी शामिल हैं जिसे हम साहित्यकार और वरिष्ठ साहित्यकार भी कह सकते हैं। गुटबंदी के दौर में वे लोग इतने गुटों में बदल चुके हैं कि हिंदी भाषा की कमर तोड़ दी है। भाषा की क्लिष्टता बच्चों में भाषा के मनोवैज्ञानिक विकास को रोकती है और ऐसे में साहित्यकारों द्वारा रचा जा रहा साहित्य बच्चों को रचना धर्मिता से दूर ले जा रहा है।

सोशल मीडिया के आ जाने से साहित्यकार और ज़्यादा गुटों में बंट गये हैं, एक दूसरे ग्रुप की पोस्ट लाइक नहीं करता तो दूसरा पहले ग्रुप की रचनाओं की खामियां निकालता रहता है और नेताओं में पहचान के हिसाब से साहित्यकार अपनी रचनाओं को पाठ्यक्रम में या सरकारी पुस्तकालयों में घुसवाते रहते हैं।

हम डरते हैं कि हिंदी भाषा में नए शब्द आने से हिंदी खत्म हो जायेगी जबकि ऐसा नहीं है। समय के साथ हिंदी में भी नए शब्द जुड़े हैं जो कि प्रचलित हैं जिनमें सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला शब्द पैंट है।

सोशल मीडिया के आने पर नए लेखक भी सामने आये जिन्होंने हिंदी को नया स्वरूप दिया, उन्होंने हिंदी को आम बोलचाल वाली भाषा के साथ लिखना शुरू किया और यह प्रयोग सफल रहा जिसे “नई वाली हिंदी” कहा जाता है। दिव्य प्रकाश दुबे, सत्य व्यास, गौरव सोलंकी जैसे लेखकों ने युवाओं के बीच अपनी लेखनी से अच्छी पहचान बनाई है।

भाषा के प्रसार में केवल लेखक ही काम नहीं करते बल्कि प्रकाशक का भी मुख्य हाथ रहता है, किताबों की गुणवत्ता की समस्या से जूझ रहा हिंदी साहित्य अब नए कलेवर में आ रहा है एक तरफ जहां किताबों की डिज़ाइनिंग वाला पार्ट सुधरा है वहीं किताबों के रेट भी कम हुए हैं जिससे आम लोगों के बीच हिंदी का क्रेज़ फिर से बढ़ रहा है।

हिंदी दिवस के दिन कई स्टेजों से ये कहा जाता है कि 14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध मनाया जाता है पर नई हिंदी जिस तरह से आगे बढ़ रही है उम्मीद है हम हिंदी को नए कलेवर में ढालकर उसे नया रूप दे देंगे। रोज़गार के आयाम भी हिंदी के साथ जुड़ने से युवाओं का हिंदी के लिए क्रेज़ बढ़ेगा।

खासकर हिंदी बेल्ट के युवाओं, हां कूल दिखने के कोई दिक्कत नहीं है तुम अंग्रेज़ी सीखो पर दिक्कत तब शुरू होती है जब तुम हिंदी में अपने बारे में 5 लाइन भी नहीं बोल पाते।

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