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‘आर्थिक गैर-बराबरी’ को चुनावी और राजनीतिक मुद्दा बनना क्यों ज़रूरी है

इस महीने की शुरुआत से ही हर रोज़ पेट्रोल-डीजल के बढ़ते हुए दाम और डॉलर के महंगे होने के दौर में मौजूदा सरकार और विपक्ष के बीच आर्थिक गतिशीलता को लेकर तू-तू, मैं-मैं की बहस छिड़ी हुई है।

सत्ता पक्ष और विपक्ष के अपने-अपने दावे यह हैं कि उनकी ही सरकार में विकास दर की गुणवता और आर्थिक गतिशीलता ज़्यादा रही है।अपने-अपने तर्कों की तलवार से सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के ही हौसले बुलंद हैं।

मुख्य मुद्दा यह नहीं है कि किस सरकार के दौरान अर्थव्यवस्था की विकास दर सबसे अधिक रही है। मुद्दा यह है कि अर्थव्यवस्था की गतिशीलता और तेज़ी से हो रही विकास का आम लोगों खासकर गरीबों और कमज़ोर वर्गों  को कितना फायदा पहुंच रहा है। इस आलोक में सारी बहसें बेमानी-सी लगती है क्योंकि ना ही बेरोज़गारी के मोर्चे पर फतह मिली है ना ही शिक्षा, पानी या स्वास्थ्य के मुद्दे पर सूचकांक में खास बदलाव दिख रहा है।

सवाल यह है कि जिस नवउदारवादी आर्थिक नीतियों जिसका समर्थन मौजूदा सरकार और विपक्ष दोनों ही करती है के समुद्र मंथन से जो आकूत संपत्ति पैदा हो रही है उससे अमीरों को क्या और कितना मिला और आम-आम लोगों के हिस्से क्या-क्या और कितना आया? यह सवाल अधिक महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश में अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का मकसद आम लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाना है।

कई अर्थशास्त्रियों ने अपने अध्ययनों में यह बताया है कि आज़ाद भारत से आत्मनिर्भर होते हुए भारत में देश की अपनाई गई अर्थव्यवस्था प्रणाली ने आर्थिक गैर-बराबरी को मज़बूत किया है। आर्थिक गतिशीलता का केंद्रीकरण देश की एक फीसदी अमीर जमातों के बीच हुआ है, जिसने देश के अंदर इंडिया और भारत की खाई को गहरा कर दिया है। जिसका प्रमाण विश्व की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में डॉलर अरबपतियों की जमात में भारतीय अरबपतियों का शामिल होना सिद्ध करता है।

अरबपतियों की जमात में भारतीयों का शामिल होना राष्ट्रवादी राजनीति को गर्व ज़रूर दे सकता है कि हमारी तुलना अब गरीब देशों में नहीं हो रही है। परंतु, यह तुलना देश में पैदा हो रही आर्थिक असमानता को कैसे पाट सकती है? इस यक्ष सवाल का जवाब क्या है? देश की अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का दंभ भरती सरकार और विपक्ष दोनों के ही पास इंडिया और भारत के बीच आर्थिक गैर-बराबरी को पाटने की कोई नीति या योजना नहीं है। ना ही आर्थिक गैर-बराबरी चुनावी या राजनीतिक मुद्दा है।

अर्थव्यवस्था को अधिक गतिशीलता देने के सरकार और विपक्ष के दावों के बीच रुपया के गिरते संकट ने फिलहाल देश के छोटे-छोटे कारोबारियों को परेशान कर रखा है, उनका आत्मविश्वास बनाना अधिक ज़रूरी है क्योंकि छोटे कारोबारी ने ही अशिक्षित और अर्धकुशल मज़दूरों को रोज़गार देकर इंडिया और भारत के बीच में फैली आर्थिक गैर-बराबरी को पांटने का काम किया है।

मौजूदा अर्थव्यवस्था में स्थिरता बनाने के लिए यह ज़रूरी है कि आर्थिक गैर-बराबरी को राजनीतिक दल और मतदाता चुनावी और राजनीतिक मुद्दा बनाए। मतदान करने वाले मतदाओं को समझना होगा कि आर्थिक स्थिरता ही देश की मूलभूत समस्या का समाधान कर सकती है।

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