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“समय आ गया है यह बताने का कि अब पति, पत्नी का मालिक नहीं है”

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भले ही महाभारत में “नियोग प्रथा” से पैदा हुई संतानों का टीवी सीरियल पर मर्दवादी प्रदर्शन समाज और उसके संस्थाओं के पौरुष के अभिमान को संतुष्ट करता हो लेकिन वही समाज कल सुप्रीम कोर्ट की धारा 497 की नई व्याख्या से परेशान होकर एक ऐतिहासिक फैसले पर अपनी आपत्ति दर्ज कर रहा है।

परिवार के दायरे में ही नहीं परिवार के बाहर भी आज़ाद औरतें उसको स्वीकार्य नहीं। अगर होती तो खाप पंचायत कबका आदर्श की खूंटी पर टंग गया होता और ऑनर किलिंग की अर्थी उठ चुकी होती। समाज अपनी चौधराहट की मूंछ तानकर खुश रहना चाहता है, उदार होना उसने सीखा ही नहीं है।

जबकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले स्त्री को पारिवारिक संपत्ति का अधिकार देकर उसकी लैंगिक बराबरी का रास्ता बनाया था और अब 158 साल पुराना कानून रद्द कर या पुर्नपरिभाषित करके महिलाओं की यौनिक आज़ादी का रास्ता खोल दिया है।

गौरतलब है कि केरल के एनआरआई जोसेफ शाइन की दायर याचिका, जिसमें आईपीसी की धारा 497 की संवैधानिक वैधता को चुनौती पिछले साल अक्टूबर के महीने में दी गई थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि धारा 497 असंवैधानिक है क्योंकि वह पुरुषों और महिलाओं में भेदभाव करता है तथा संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करता है।

मौजूदा याचिका पर साल भर सुनवाई करते हुए कल सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

यह कानून महिला को पति की गुलाम के तरह देखता है। महिलाओं को भी गरिमा के साथ जीने का हक है, इसे छीना नहीं जा सकता है। समय आ गया है कि ये कहा जाए कि पति महिला का मालिक नहीं है।

नई व्याख्या के बाद सुप्रीम कोर्ट ने धारा 497 को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है, यानी अब इस कानून के तहत केस दर्ज नहीं हो सकेगा। हालांकि शादीशुदा होते हुए अगर कोई शख्स किसी दूसरे के साथ संबंध बनाता है तो पति या पत्नी को तलाक के लिए अर्ज़ी दाखिल करने का अधिकारी है। अगर बेवफाई के कारण किसी ने आत्महत्या कर ली हो तो सबूत के आधार पर आत्महत्या के लिए उसकाने का केस दर्ज किया जा सकता है।

मौजूदा फैसले के आने के बाद लोगों की प्रतिक्रिया है कि संयुक्त परिवार के बाद व्यक्तिगत परिवार भी टूटने लगेंगे। औरतों को आज़ादी मिलना आसान नहीं है, इससे समाज में यौनिक अपराध बढ़ेगा या अब बेवफा को भी सहना पड़ेगा। सर्वोच्च न्यायालय अधिक लिबरल बन रहा है, जैसी व्याख्या सुनने को मिल रही है।

समाज महिलाओं की यौनिक आज़ादी के लिए तैयार नहीं होना चाहता है, इन दलीलों का तर्क यह है कि समाज में जिन चीज़ों को नियंत्रित करने के लिए विवाह जैसे रिवाज़ बनाए गए हैं, उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। दिल्ली महिला आयोग तक मौजूदा फैसले को परिवार के विघटन के रूप में देख रहा है।

वैसे, इस तरह की प्रतिक्रिया नई नहीं है, जब 1884 में रुखमाबाई ने अपने पति से अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए बम्बई उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था, तो फैसले के आते-आते कई तरह के सामाजिक नाटक सामने आए थे, जो उस दौर के अखबारों में दर्ज है।

इस मुकदमे के दौरान ही यह स्पष्ट हो गया था कि सर्वोच्च उपनिवेशीय न्यायापालिका की प्रवृत्ति भी भेदभाव करने वाली सामाजिक परंपराओं और संबंधों को बनाए रखने में थी। उस दौर में यह स्पष्ट होने लगा था कि स्त्री का अपना कोई स्पष्ट अस्तित्व नहीं है। आज सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं के सम्मान को रिवाज़ और समाज से भी ऊपर रखा है यह महिलाओं के अस्तित्व की एक बड़ी जीत है।

मौजूदा फैसला यही बताता है कि पुरुषों की तरह महिला भी स्वाधीन है, शादी उसे सामाजिक और नैतिक बंधन में बांधती ज़रूर है लेकिन दोनों का स्वायत्त व्यक्तित्व भी है। चूंकि फैसले की पुर्नपरिभाषा से मर्दानगी को झटका मिला है, क्योंकि अब महिलाओं को अपनी आज़ादी के लिए किसी आदेश की ज़रूरत नहीं है इसलिए मर्दवादी ग्रंथियां तनाव में है।

महिलाओं को मिलने वाले मौजूदा फैसले से महिलाओं को वास्तव में कितनी आज़ादी मिल सकेगी यह प्रश्नवाचक चिह्न तो ज़रूर मौजूद है। भले ही घर और बाहर दोनों जगहों पर महिलाओं की हैसियत में इज़ाफा हुआ है, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई हैं पर सशक्त नहीं।

इसका मुख्य कारण यही है कि समय के साथ सबकुछ बदलने को तैयार है और बदल भी रहा है। अगर नहीं बदल रही है तो पुरुषों की मानसिकता, ना ही पुरुषवादी सोच बदल रही है और ना ही पुरुषवादी सामाजिक व्यवहार। 

यही पुरुषवादी सोच मौजूदा फैसले को इस तरह प्रचारित कर रही है कि सर्वोच्च अदालत ने महिलाओं को विवाहेतर संबंधों की छूट दे दी है। जबकि अदालत ने इसे सिर्फ जु़र्म मानने से इंकार किया है। जो लोग इसे परिवार के विघटन के कारण के रूप में ले रहे हैं, उनको समझना चाहिए कि विवाह और परिवार संस्था इसलिए टूट रहे हैं क्योंकि वह गैर-बराबरी पर टिके हुए हैं। भरोसे और प्यार पर नहीं टिके हुए संबध ही स्त्री या पुरुष किसी को भी विवाहेतर संबध की तरफ बढ़ने की तरफ मजबूर करते हैं और इसको गैरकानूनी नहीं माना गया है।

दो बालिग लोगों का विवाह या परिवार तभी टिक सकता है जब दोनों के बीच आपसी बराबरी और भरोसे का रिश्ता कायम हो। मौजूदा फैसला इसको ही पुष्ट करता है। भले ही समाज को महिलाओं की यौन शुचिता के सवाल परेशान कर रहे हैं पर कालांतर में यह कानूनी व्याख्या नई नैतिकता को भी गढ़ेगी।

ज़ाहिर है महिलाओं को अपनी खुदमुख्तारी केवल अदालती फैसलों से नहीं मिलेगी, अपने बाकी संघर्षों की तरह इस अधिकार के लिए भी अपने संघर्ष के खून-पसीने बहाने पड़ेंगे। समाज में अपने सम्मान के साथ जगह लेने के लिए संवैधानिक रास्ते से समाज को उदार बनाना होगा, जैसे कई विषयों पर पहले भी बनाया है।

जब तक व्याभिचार के लिए हर पुरुष और हर महिला आज़ाद है तो फिर ज़ाहिर तौर पर कानून के सामने धारा 497 से जुड़े मामले नहीं आएंगे लेकिन पत्नी की बेवफाई का शक तालाक के मामलों में बढ़ोतरी ज़रूर करेगा। सरकार ने भी स्त्री-पुरुष विवाहेतर संबंधों को परिवार संस्था के लिए खतरा बताया था, जिसको सिरे से खारिज़ नहीं किया जा सकता है।

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