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क्या इमरान खान के हाव-भाव भी भारत से तल्ख रिश्ते रखने वाले ही हैं?

इमरान खान पाकिस्तान की सत्ता संभाल चुके हैं। भूतपूर्व क्रिकेटर इमरान खान पिछले 22 सालों से राजनीति में अपना हाथ आज़माते आ रहे हैं और इस दौरान देश-विदेश के तमाम मंचों से विवादित-अविवादित बयानबाज़ी के लिए चर्चा में बने रहे हैं।

क्रिकेट, राजनीति और पाकिस्तान के इतिहास और भविष्य पर इमरान ने लगातार अपनी बात रखी है। उनकी दो किताबें “इंडस जर्नी: ए पर्सनल व्यू ऑफ पाकिस्तान” (1991) और “पाकिस्तान: ए पर्सनल हिस्ट्री” (2011) बहुत बेहतरीन किताबें हैं जिसे ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए।

इमरान खान ने चुनाव में भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाया और युवाओं में घर करती जा रही हताशा को टारगेट किया। बेशक बाकी चीज़ों के साथ इन दोनों का कॉम्बिनेशन उनकी जीत का एक कारण बना है।

हालिया चुनाव के कुछ समय पहले ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की स्थिति पर चिंता जताई थी। युवा रोज़गार, स्वास्थ्य और मूलभूत सुविधाओं जैसे तमाम मुद्दे पाकिस्तान को एक कमज़ोर देश की श्रेणी में खड़ा करते हैं। द डॉन से लेकर विदेशी नीतियों तक इमरान खान के नए पाकिस्तान का हर एंगल से विश्लेषण जारी है।

यह समय की आवश्यकता है कि इमरान खान और पाकिस्तान पर एक लम्बी चर्चा हो। सहमति-असहमति बाद के विषय हैं और उनके लिए तमाम लिटमस टेस्ट मौजूद हैं।

इस लेख का एक बड़ा हिस्सा विजय शंकर सिंह (रिटा. आई.पी. एस.) ने अपने ब्लॉग में कुछ दिनों पहले लिखा था, जिसमें मैंने अपनी बात जोड़कर यहां रखी है।

प्रारंभ-

1947 में जब मुहम्मद अली जिन्ना ने एक स्टेनोग्राफर और एक टाइपराइटर के बल पर पाकिस्तान प्राप्त कर लिया तो, दुनिया में एक ऐसे देश का जन्म हुआ जिसका आधार केवल और केवल मज़हब था। जिन्ना मूलतः मज़हबी व्यक्ति नहीं थे पर यह भी एक विडंबना थी कि गांधी जो पूर्णतः एक धर्मपरायण व्यक्ति थे उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राज्य की बात की और उसे चुना जबकि जिन्ना जो स्वाभाविक रूप से सेक्युलर और घोषित रूप से गैर मज़हबी थे, ने एक मज़हबी मुल्क के लिये तमाम कवायद की।

1947 से जनरल जिया उल हक के शासन तक, पाकिस्तान एक मज़हबी मुल्क तो था पर इस्लामी कट्टरता के लिये पाकिस्तान में कोई जुनून नहीं था। पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल बनने के बाद जिन्ना ने मुल्क को संबोधित करते हुए अपने प्रथम भाषण में साफ-साफ कहा था कि पाकिस्तान भले ही एक इस्लामी मुल्क के रूप में बना हो पर यह देश उन सबका है जो इसमें रहते हैं।

जिन्ना का आशय हिन्दू, सिख, ईसाई जिसमें बाद में अहमदिया भी जुड़ गए थे आदि अल्पसंख्यकों से था। 1947 से जिया के राष्ट्रपति बनने तक ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के लिये सुविधाजनक देश रहा हो पर पाकिस्तान का इस्लामीकरण उतनी तेज़ी से नहीं हुआ था, जितनी तेज़ी से जनरल जिया के शासनकाल में हुआ।

पाकिस्तान में लोकतंत्र बहुत दिनों तक उतनी स्वतंत्रता और स्वाभाविकता के साथ नहीं पनप सका, जितना भारत में वह मज़बूत हुआ। प्रधानमंत्री लियाकत अली की हत्या के बाद सेना ने देश के शासन पर कब्ज़ा जमा लिया। जनरल अयूब खान, जनरल याहिया खान, जनरल जिया उल हक, जनरल मुशर्रफ इन चार सेनाध्यक्षों ने देश पर फौजी हुकूमत की।

पाकिस्तान और देश-दुनिया-

पाकिस्तान की विदेश नीति मूलतः अमेरिकी खेमे की रही है। पाकिस्तान में एक मुहावरा बहुत प्रचलित है कि पाकिस्तान के तीन निगेहबान हैं, अल्लाह, आर्मी और अमेरिका। सेना ने ना केवल वहां शासन किया बल्कि उसने वहां की सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं में हस्तक्षेप करके पाकिस्तान को एक सैनिक तानाशाही में तब्दील कर दिया।

भारत को पाकिस्तान अपना शत्रु मानता है। 1948, 1965, 1971 और कारगिल के युद्धों में लगातार हारने और 1971 में बांग्लादेश के बनने से पाकिस्तान की सेना की पेशेवराना छवि को बहुत आघात पहुंचा है। वह इन पराजयों का बदला लेने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहती है लेकिन पाकिस्तान की सेना यह अच्छी तरह समझ गयी है कि किसी भी प्रत्यक्ष युद्ध में वह भारत से जीत नहीं सकती है, अतः उसने भारत को तोड़ने और परेशान करने के लिये प्रच्छन्न युद्ध का सहारा लिया।

उधर अफगानिस्तान में भी सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी दखलंदाज़ी बढ़ गयी थी। वहां की रूस समर्थक सरकार को अस्थिर करने के लिये अमेरिका ने तालिबान को प्रश्रय दिया, जिसका केंद्र अमेरिका ने पाकिस्तान को बनाया। जिसके परिणामस्वरूप पाकिस्तान में आतंकियों की एक नई जमात पैदा हुई। कुछ तो उनके दबाव में और कुछ उनको पनपने देने के लिये अवसर हेतु पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता बढ़ती गयी और देश में एक नया दबाव ग्रुप बना जो इन आतंकी गुटों का था।

आतंकियों को लक्ष्य दिया गया भारत को अस्थिर करने का और यह कमान पर्दे के पीछे से संभाली आईएसआई ने जो सेना का ही एक अंग और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी थी। यह क्रम पहले खालिस्तान आंदोलन की शक्ल में पंजाब में खेला गया अब 1990 से यह कश्मीर में खेला जा रहा है।

कश्मीर-

कश्मीर, पाकिस्तानी हुकमरानों का पसंदीदा मुद्दा है। दिल्ली आए परवेज़ मुशर्रफ जिनके माता-पिता दिल्ली से ही 1947 में पाकिस्तान गये थे, से जब दिल्ली में एक पत्रकार ने यह पूछा कि पाकिस्तान, कश्मीर का मुद्दा क्यों नहीं छोड़ देता, तो मुशर्रफ ने कहा कि कश्मीर का मुद्दा मैं अगर छोड़ दूंगा तो मुझे यहीं दिल्ली में ही आकर रहना होगा।

यह उत्तर था तो परिहास में पर यह सभी पाकिस्तानी हुक्मरानों की मानसिकता को बयां करता है। तभी जुल्फिकार अली भुट्टो अपने अंतिम समय तक भारत से जंग की बात करते रहें, उनकी पुत्री बेनज़ीर ने भी कश्मीर की आज़ादी की बात को महत्वपूर्ण मुद्दा रखा, उनके पुत्र बिलाल ने कुछ साल पहले भी ‘कश्मीर हम लेंगे’ का मुद्दा जारी रखा। इसी प्रकार जब आज क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने इमरान खान पाकिस्तान के वज़ीरे आज़म बन चुके हैं तो उन्होंने भी सबसे पहले राग कश्मीर का ही आलाप लिया।

वर्तमान और भविष्य-

इमरान खान के सत्ता संभालने के बाद पाकिस्तान के अंदरूनी हालात जो भी हों पर भारत के साथ उनके समीकरण क्या होंगे इसपर विदेश नीति के विशेषज्ञ चर्चा कर रहे हैं। कुछ उन्हें तालिबान खान कहकर सम्बोधित कर रहे हैं क्योंकि इमरान ने हिंसक अलगाववादी गुटों से बात करने की वकालत कभी की थी तो कुछ उन्हें इस पद के ही अयोग्य बता रहे हैं।

कुछ यह भी आशंका जता रहे हैं कि वे सेना के चंगुल में रहेंगे क्योंकि सेना नहीं चाहती थी कि नवाज़ की पार्टी पीएमएल की जीत हो क्योंकि नवाज़ के साथ सेना का तालमेल अच्छा नहीं था।

सेना से निकटता, आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति और उग्रवादी समर्थक इमरान खान के बयानों के कारण यह आशंका घर कर रही है कि हो सकता है भारत और पाकिस्तानी के सम्बंध और खराब हों, क्योंकि सेना और आतंकियों का भारत विरोध और कश्मीर के प्रति दृष्टिकोण जगजाहिर है।

भारत को तोड़ना ही उनका अभीष्ट है। चीन के साथ पाकिस्तान का संबंध आपको दो देशों का आपसी कूटनीतिक रिश्ता भले ही दिखे, पर बेहिसाब चीनी निवेश के कारण पाकिस्तान धीरे-धीरे चीन का एक व्यापारिक उपनिवेश बने लगा है। उधर चीन और भारत के रिश्ते भी सामान्य नहीं हैं बल्कि हिन्द महासागर और हिमालय में चीन की अनावश्यक दखलंदाज़ी भारत के लिये एक प्रकार का अशनि संकेत है। ऐसे अंतर्राष्ट्रीय ऊहापोह के माहौल में इमरान खान का यह बयान कि भारत, पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ के साथ षड्यंत्र करके पाक सेना को कमज़ोर करना चाहता है इमरान खान का इरादा तो स्पष्ट करता ही हैं साथ ही यह भी साफ है कि यह बयान सेना द्वारा स्क्रिप्टेड और सिखाया पढ़ाया है। यह राजनैतिक बयान है भी नहीं।

पाकिस्तान के सभी चुनावों में कश्मीर एक स्थायी मुद्दा रहा है। चाहे फौजी हुकूमत हो या लोकतंत्र, कश्मीर पर सभी के सुर सदैव से एक रहे हैं लेकिन पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी ने अपने घोषणापत्र में कश्मीर का उल्लेख करते हुए यह वादा किया है कि वह कश्मीर का हल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के निर्देशों के अनुसार करेगा।

इससे यह उम्मीद जगती है कि इमरान खान का रूख कश्मीर के मुद्दे और भारत के साथ संबंधों पर अपने पूर्वाधिकारियों के ही नक्शेकदम पर रहेगा लेकिन फाइनेंशियल एक्सप्रेस के एक लेख के अनुसार इमरान खान की विदेश नीतियों पर सेना का वर्चस्व साफ रहेगा। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इमरान कोई राजनैतिक व्यक्ति नहीं हैं और उनकी जीत को सेना का पूरा समर्थन है। इमरान खान की इस्लामी कट्टरपंथी आतंकी संगठनों के प्रति जो सहानुभूति है वह उनकी आधुनिक और स्पोर्ट्समैनशिप पृष्ठभूमि को देखते हुए अचंभित करती है।

उनके पूर्व के कुछ बयानों को देखा जाय तो उन्होंने तालिबान के प्रति अमेरिकी सैन्य कार्यवाही की आलोचना की है। अफगानिस्तान में सत्रह साल से चल रहे अमेरिकी तालिबान सैन्य टकराव को बेमतलब मानते हुए वे ट्रम्प प्रशासन की हालिया ड्रोन हमलों की आलोचना करते हैं जब कि अमेरिका, पाकिस्तान के लिये कितना महत्वपूर्ण है यह सभी जानते हैं। इन बयानों के आलोक में यह भी कहा जा रहा है कि पाक अमेरिकी रिश्तों पर भी असर पड़ सकता है। पाकिस्तान द्वारा चीन के इतना निकट आने की एक वजह यह भी है कि दोनों की ही विदेशनीति का मूल और स्थायी भाव भारत विरोधी है। कश्मीर में पाकिस्तान की रुचि है तो हिमालयी देशों नेपाल, सिक्किम भूटान और हमारे अरुणांचल प्रदेश में चीन अपना हित देखता है।

इमरान खान द्वारा अमेरिका की अफगानिस्तान संबंधी नीतियों की आलोचना 2008 से की जा रही है और उन्होंने पाकिस्तान से सभी अमेरिकी खुफिया अफसरों और अतिरिक्त कूटनीतिक अधिकारियों को हटाने की मांग भी एक बार की थी। इमरान खान द्वारा अमेरिका का यह विरोध तब अधिक मुखर हुआ जब अमेरिका ने पाकिस्तान के कतिपय आतंकी संगठनों पर नकेल कसनी शुरू कर दी थी।

लश्करे तैयबा, जैश ए मोहम्मद आदि आतंकी संगठन जो भारत के लिये सिरदर्द बने हुए हैं, को पाकिस्तान ने भी अवांछित करार दे दिया है। पाकिस्तान सरकार को अमेरिका ने कई बार इन संगठनों पर कार्रवाई करने के लिये भी कहा, पर पाकिस्तान ने सेना के दबाव में कोई उल्लेखनीय कार्रवाई इन संगठनों के सरगनाओं पर नहीं किया, अगर किया भी तो वह एक दिखावा था। क्योंकि ये संगठन कश्मीर में पाकिस्तान का ही प्रच्छन्न युद्ध का एजेंडा जारी रखे हुए थे।

पाकिस्तानी सेना ना केवल इन आतंकियों के साथ है बल्कि वह हर तरह का सैन्य और संसाधनीय सुविधा भी इनको उपलब्ध कराती है। सेना से निकटता और उसकी कृपा पर इमरान खान के सत्ता में आने के कारण ही यह आशंका जताई जा रही है कि भारत के प्रति इमरान खान की विदेशनीति आक्रामक रहेगी।

वैसे तो इमरान ने चीन द्वारा किये जा रहे भारी निवेश, चीन पाक आर्थिक कॉरिडोर सीपीईसी आदि पर भी सवाल उठाए हैं पर कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान के लिये एक भावुक मुद्दा है, जिसे वह मज़हब और जिहाद के चश्मे से देखता है ना कि वैदेशिक पेशेवराना कूटनीतिक संबंधों के नज़रिये से।

न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख के अनुसार इमरान खान घरेलू मोर्चे पर बहुत सारे चैलेंजेज से निपटना होगा। पाकिस्तान की बिजली व्यवस्था डावांडोल है, शिशु मृत्यु दर एशिया में सबसे खराब स्तर पर है, पाकिस्तानी मुद्रा कमज़ोर है और देश कर्जे़ में डूबा हुआ है। बेरोज़गारी चरम पर है और दिहाड़ी मज़दूर, सफाई कर्मी जैसे काम करके पैसा कमाने की इच्छा रखने वाले पाकिस्तानी मिडिल-ईस्ट के देशों को लगातार पलायन करते जा रहे हैं। चीन पाकिस्तान में जिस तरह से निवेश कर रहा है उसकी भरपाई पाकिस्तान कभी कर पायेगा ऐसा लगता तो नहीं है। अमेरिका ने पिछले कुछ समय में पाकिस्तान की फंडिंग कम की है। निजी तौर पर तालिबान खान के रूप में मशहूर हुए इमरान ने एक प्लेबॉय की छवि से उभरते हुए धर्म की आड़ ली है। पाकिस्तान जैसे देश में इसके बिना ठहर पाना संभव भी नहीं है।

पाकिस्तानी दैनिक द डॉन के दिल्ली-बेस्ड संवाददाता जावेद नकवी लिखते हैं कि इमरान खान पाकिस्तान को मो. अली जिन्ना के ख्वाबों का पाकिस्तान बनाना चाहते हैं, यह बहुत कठिन काम होगा। जिन्ना कैसा पाकिस्तान चाहते थे इसपर बहुत सारे मतभेद हैं। अतातुर्क और ईरान की शाह पर दिए गए इमरान के बयान जिन्ना को लेकर उनकी दुविधा भी दिखाते हैं। इमरान खान धर्म और आधुनिकता के बीच क्या नीतियां अपनाते हैं यह देखने वाला विषय होगा।

पाकिस्तान में नियुक्त रहे भारतीय हाई कमिश्नर टीसीए राघवन का यह कहना है कि इमरान खान की सरकार एक मिलीजुली सरकार होगी अतः यह कहना कि इमरान अपनी विदेशनीति अपनी मर्ज़ी से संचालित कर सकेंगे, अभी ज़ल्दबाजी होगी। सेना का असर तो रहेगा और यह असर तो कश्मीर के मामले में आज भी है।

राघवन ने न्यूज़ 18 से बात करते हुये एक मजे़दार बात कही है, “पाकिस्तान के सभी नेता भारत विरोधी प्रलाप करते हैं और इमरान खान भी अपवाद नहीं है लेकिन जब वे सत्ता पर काबिज़ होते हैं तो यह प्रलाप व्यवहारिकता में उतना नहीं बदल पाता जितना चुनाव प्रचार के दौरान कहा गया होता है”।

इमरान खान ने फ्री मीडिया और राजनीति में जोड़-घटाव के तमाम प्रपंचों पर अपनी चिंता भी जताई है लेकिन देश-दुनिया के तमाम अखबार इस बात को लिखते आये हैं कि पाकिस्तान की सेना और खुफिया तंत्र ने इमरान खान के विरोधियों को किनारे करते हुए उन्हें सत्ता तक पहुंचाने का काम किया है। पाकिस्तान अधमरा देश है और बिना अमेरिका के घरेलू और वैश्विक स्तर पर उसकी स्थिति बेहद कमज़ोर रहेगी। ऐसे में, अमेरिकी नीतियों का धुर विरोध करने वाले इमरान खान कैसे और क्या जादू कर पाएंगे यह देखने वाला होगा।

हालांकि इमरान खान ने भारत-पाकिस्तान को साथ बैठकर आपसी मतभेद भुलाने के लिए प्रयास करने की बात की है लेकिन अब तक इतिहास और पाकिस्तानी सेना और खुफिया तंत्र की भूमिका देखते हुए काफी हद तक यह संभव है कि भारत के प्रति इमरान खान के कार्यकाल में कोई विशेष परिवर्तन ना हो पाए। सेना पर्दे के पीछे से तब भी कूटनीतिक फैसलों पर असर डालती थी, अब भी डालेगी। कूटनीतिक वार्ताएं, शिखर वार्तालाप की बात भी की जाएगी, यह ईमानदारी भी दिखाई जाएगी कि वे कश्मीर समस्या हल करना चाहते हैं पर अंदरखाने आतंकी मदद पाक सेना करती रहेगी।

जब तक पाक सेना का असर पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार पर बरकरार रहेगा, वहां का राजनैतिक नेतृत्व सेना से दिशा निर्देश लेता रहेगा, तब तक कश्मीर समस्या का शान्तिपूर्ण समाधान संभव नहीं है।

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