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राजस्थान और पंजाब यूनिवर्सिटी छात्रसंघ में दलित और महिला कैंडिडेट की जीत बड़ा बदलाव है

विश्वविद्यालय नाम से स्पष्ट है कि इस शिक्षा के इस स्तर पर विचारों पर सभी बाध्यताएं समाप्त हो जाती हैं, ताकि स्टूडेंट्स समाज में कुछ नया ज्ञान उत्पादित कर सकें। छात्र राजनीति परंपरागत सामंतवादी राजनीति के विपरीत ‘विकल्प’ की राजनीति का केंद्र है, जो समाज के सामने एक ‘मॉडल’ बन सके, जैसे-जेएनयू चुनाव।

लेकिन बदकिस्मती से परंपरागत प्रतिक्रियादी वर्ग ने इसे भी अपनी जर्जर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बचाने का केंद्र बना लिया है। उदाहरण के लिए राजस्थान की राजपूत बनाम जाट की राजनीति ने राजस्थान विश्वविद्यालय व जयपुर को केवल जाति प्रभुत्व का अखाड़ा बना दिया, जयपुर में 17 जाति आधारित छात्रावास इसी का संस्थागत रूप है। इसी प्रभुत्व की लड़ाई ने शिक्षा गुणवत्ता को हाशिये पर धकेल दिया। इसी कारण राजस्थान के सबसे बड़े विश्वविद्यालय का रैंक भारत के विश्वविद्यालयों में टॉप 100 में भी नहीं है।

विक्टर ह्यूगो का कथन है, “जब किसी विचार के आने का समय हो गया हो, तो उसे पृथ्वी पर कोई ताकत नहीं रोक सकती”। यह कथन वर्तमान संदर्भ में बिल्कुल सही प्रतीत होता है, जहां नई युवा पीढ़ी ने ब्राह्मणवादी, प्रतिक्रियादी ताकतों के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया है। हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय में एक महिला कनुप्रिया की अध्यक्ष पद पर जीत और सामंतवादी व्यवस्था के गढ़ राजस्थान विश्वविद्यालय में पहले दलित छात्र विनोद जाखड़ की अध्यक्ष पद पर जीत इसी का उदहारण है।

वो सामंती, ब्राह्मणवादी व्यवस्था ही थी जिसके कारण एक वर्ग की नेतृत्व क्षमता को दबाया गया, इसी कारण 70 साल से स्थापित राजस्थान विश्वविद्यालय को पहली बार आज दलित वर्ग से एक अध्यक्ष मिला। अनगिनत काबिल लोग आज भी इस व्यवस्था से लड़ रहे हैं। यह जीत विनोद जाखड़, अरावली छात्रावास (राजस्थान विश्वविद्यालय) के संघर्ष, धैर्य की जीत है।

यह उस मिशन के पथ में मिली एक सफलता है, जिसका उद्देश्य प्रतिक्रियावादी ताकतों, सामंती वर्ग की पुरानी जर्जर व्यवस्था की तरफ जाना नहीं, बल्कि समाज को समानता का उदाहरण देना है। यह जीत उस सामान्य स्टूडेंट की जीत है, जो प्रतिक्रियावादी वर्ग के विरुद्ध अधिकारों, अवसरों की समानता का वर्ग बनाना चाहता है।

जहां एक ओर सेंट्रलिस्ट, सामाजवादी कहलाने वाली पार्टी धन बल के सहारे चल रही थी और राष्ट्रवादी कहलाने वाली पार्टी विश्वविद्यालय में भी मंदिर का मुद्दा लेकर आ गई थी, वहीं दोनों पार्टी अपने आंतरिक मतभेद को भुलाकर ब्राह्मणवाद को बचाने के लिए सोशल मीडिया पर जाति ढूंढने के अभियान में लग गई थी। वही दूसरी ओर एक वर्ग सामान्य स्टूडेंट्स के हितों, समानता के विचार से इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए संघर्ष में जुटा था। अंत में समानता के विचार, संघर्ष की धन बल, और जातिवाद पर विजय हुई। आशा है अगली पीढ़ी समानता मूलक समाज देखेगी।

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नोट- लेखक, जेएनयू के स्टूडेंट हैं।

 

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