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मोदी शासन को ‘अघोषित आपातकाल’ कहना कितना सही है?

इतिहास महज़ किसी एक घटना का साक्षी नहीं होता है बल्कि वह हर्ष-विषाद, विनोद-रंजन का भी संकलन होता है। इतिहास के साथ सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कोई उसे बदल नहीं सकता, कोई उसे खारिज नहीं कर सकता, और कोई उसके स्मरण को नष्ट नहीं कर सकता है। लेकिन इतिहास से कई बातें सीखी जा सकती हैं, उससे सबक लिया जा सकता है, और उसे दोहराया अथवा दोहराने से रोका जा सकता है। इसलिए मैं इतिहास के संकलनों को संवर्धित करने का हमेशा से पक्षधर रहा हूं।

आज देश के भीतर एक शब्द ‘अघोषित आपातकाल’ बहुत प्रचलन में है। जहां एक तरफ सरकार के आलोचक इस दौर में फासीवाद की आहट सुनने का दावा कर अघोषित आपातकाल कह रहे हैं। वहीं सरकार और शासित राजनीतिक दलों ने इस आरोप का खंडन करते हुए इसे राष्ट्रहित में उठाए गए कठोर फैसलों की उपमा दी है। लेकिन सवाल यह है कि जब 1975 के आपातकाल का ज़िक्र 2014 से हर टीवी डिबेट और बैठकों में होने लगा है तो क्यों न 1975 के आपातकाल से पहले की घटनाओं में उसकी आहट को तलाशने की कोशिश की जाए और उन्हीं घटनाओं और परिणामों को मौजूदा स्थितियों में तलाशने की कोशिश करते हैं।

आपातकाल भले ही 25 जून 1975 के मध्यरात्रि से लगाया गया था लेकिन इसकी शुरुआत कहीं न कहीं 1969 से हो चुकी थी। इंदिरा गांधी ने सबसे पहले अपनी पार्टी के भीतर ही लोकतंत्र को खत्म किया। जब काँग्रेस महासमिति के सामने इंदिरा गांधी ने ‘आर्थिक मसलों पर कुछ सोच विचार’ विषय रखा। उस पर काँग्रेस कार्यसमिति में कोई विचार नहीं हुआ था। यह काँग्रेस की परंपरा का उल्लंघन था। उसके बाद 12 जुलाई 1969 को काँग्रेस पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक हुई। राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का चयन करना था। डॉ ज़ाकिर हुसैन के निधन से पद खाली था। बैठक में किसी नाम पर आम राय नहीं बनी। बहुमत से नीलम संजीव रेड्डी का नाम तय हुआ। इंदिरा को यह नाम रास नहीं आया। उन्होंने इस बहुमत को अपने लिए चुनौती माना और ‘नतीजे भयानक होंगे’ की धमकी दी।

फिर 4 दिन बाद 16 जुलाई 1969 को उन्होंने मोरारजी देसाई को वित्तमंत्री के पद से हटा दिया। यह फैसला स्वयं में काँग्रेस के लिए अचंभित कर देने वाला था। फैसले पर काँग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई और मामला तात्कालिक काँग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा और प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया गया। निजलिंगप्पा राष्ट्रपति चुनाव में व्यस्त हो गए। इंदिरा का इरादा कुछ और था। काँग्रेस अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री से कहा कि वे काँग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने के लिए व्हिप जारी कराएं। लेकिन इंदिरा ने वी.वी गिरी को समर्थन देकर राष्ट्रपति बना दिया। 18 अगस्त 1969 को काँग्रेस अध्यक्ष ने इंदिरा गांधी से पूछा कि वे सफाई दें कि उन्होंने विरोधी उम्मीदवार को जिताने के लिए क्यों अपील की। लेकिन इंदिरा ने ध्यान नहीं दिया। इस तरह कांग्रेस दो हिस्से में बंट गई।

इस घटना से काँग्रेस में एक नया अध्याय शुरू हुआ और इंडियन नैशनल काँग्रेस अचानक से इंदिरा कांग्रेस बनी। पहले पार्टी का लोकतंत्र नाश हुआ फिर बाद में ऐसी परिस्थिति बनी कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश के लोकतंत्र नाश कर इमरजेंसी थोप दिया। 25 जून 1975 के मध्य रात्रि को इमरजेंसी लगने के बाद सरकार ने दावा किया कि इमरजेंसी लगने से वस्तुओं की कीमतें घटी है। काला बाज़ारी बंद हुई। समय पर ट्रेनें चलने लगी। इमरजेंसी लगाए जाने के विरोध में मुंबई की संगठन काँग्रेस की प्रदेश कमेटी ने एक सभा घोषित की। उसमें आचार्य जे.बी कृपलानी और एस. के पाटिल बुलाए गए। दोनों ने मिलकर सरकार को चुनौती देते हुए उन दावों का मज़ाक उड़ाया और पूछा कि यह सब करने के लिए इमरजेंसी की क्या ज़रूरत थी।

जिन विपक्षी नेताओं को जेल में बंद किया, क्या वे इन बातों का विरोध कर रहे थे। उन्होंने अपनी अपील में कहा कि इमरजेंसी से ध्यान हटाने के लिए इंदिरा गांधी सरकार यह तरीका अपना रही है। इमरजेंसी के दौरान आचार्य कृपलानी ने लेख और पत्र अखबारों के लिए लिखे। एक पत्र उन्होंने 30 जून 1975 को लिखा उसे अनेक संपादक को भेजा। उसमें यह याद दिलाया कि आज़ादी से पहले भारतीय समाचार पत्रों ने अनेक कष्ट और दंड झेलकर भी अपना कर्तव्य निभाया। वह संघर्ष आज़ादी के लिए था। इमरजेंसी से आज़ादी खतरे में पड़ गई है। तब क्या अखबारों को चुप रहना चाहिए? अखबारों को तमाम खतरे मोल लेकर बताना चाहिए कि इमरजेंसी के दौरान क्या हो रहा है।

उन्होंने सलाह दी कि प्रेस सलाहकार परिषद और संपादक सम्मेलन की समीक्षा बैठक होनी चाहिए। उसमें इसका लेखा-जोखा होना चाहिए कि इमरजेंसी के दौरान क्या हो रहा है और कैसे अपनी आजादी सुरक्षित रखी जा सकती है। इस पत्र को किसी ने नहीं छापा। इमरजेंसी के दौरान जिस तरह संविधान का 42वां संशोधन किया गया। प्रेस काउंसिल परिषद को कुचला गया। वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाया गया। सरकार ने तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर उसकी स्वायत्तता को अगवा कर अपना आधिपत्य जमा लिया था। सरकार यह सब इमरजेंसी की मदमस्त छांव में कर रही थी तो आज सवाल यह भी उठता है कि क्या इमरजेंसी के लगने और होने की आहट का पैमाना यही सारी स्थितियां है।

1969 से लेकर 1977 तक जो राजनीतिक घटनाक्रम रही क्या उसकी  2014 से लेकर  तुलना करना तर्कसंगत है? यदि सरकार और शासित दलों के विरोधियों का आरोप है कि देश में अघोषित आपातकाल थोपा जा रहा है तो क्या अब अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति के औपचारिक ऐलान होना ही बाकी है। फिर तो हर सरकारी कठोर रवैया पर कोई भी अघोषित आपातकाल लगाने का आरोप जड़ सकता है।लेकिन जब ज़िक्र इतिहास से सीखने और उससे तुलना कर समझने का हुआ है तो फिर क्यों ना मौजूदा वक्त में सरकार के मई 2014 से लेकर अब तक के घटनाक्रमों की तुलना 1969 से लेकर 1977 के बीच की घटनाओं के साथ किया जाए। एक तुलनात्मक नज़र तो डाला जा सकता है कि जिस काँग्रेस के दो टुकड़े हुए तो क्या भाजपा भी आंतरिक कलह की वजह से दो टुकड़ों में बंटी है? या क्या बंटने की कगार पर है?

क्या आपातकाल के दौरान घटी हर घटना और आज घट रही घटनाओं में कोई समानता पाई जा रही है? क्या आचार्य कृपलानी ने 1975 में जो चिट्ठी संपादकों को लिखकर पत्रकारिता बचाने की बात की उस चिट्ठी की ज़रूरत आज के संपादकों को भी देने की है। इस मसले पर देश की जनता को स्वयं विचार करना होगा अथवा अघोषित आपातकाल शब्द के मायने एक राजनीतिक क्षोभ के अलावा और कुछ नहीं ज्ञात होगा।

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