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“सुकरात की तरह ही आज आप भी सरकार के खिलाफ बोलने पर मार दिए जाएंगे”

एथेंस, स्पार्टा से पेलोपोनेसियन युद्ध हार चुका था। एथेंस में स्पार्टा ने 30 लोगों का निरंकुश शासन लगा दिया था। शासन को एक शिक्षक-दार्शनिक सुकरात जो एथेंस के समाज में तर्कशीलता एवं गतिशीलता की शिक्षा बांट रहे थे ने चुनौती दी। सुकरात, एथेंस के लोगों के बीच काफी लोकप्रिय थे। वो लोगों को धर्मान्धता से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे, युवाओं को तर्कशील बनाने में प्रयासरत थे, सुकरात लोगों को लोकतंत्र के ‘बहुसंख्यक लोकतंत्र’ (भीड़तंत्र) बन जाने के खतरे से आगाह करा रहे थे। लोगों को ये बता रहे थे कि ये तीस निरंकुश शासक, एथेंस को कभी पनपने नहीं दे सकते, कभी आदर्श राज्य नहीं बनने देंगे। वैसे भी निरंकुश (अत्याचारी) शासक को सबसे ज़्यादा भय तर्क से ही होता है, इन्हें समाज के गतिमान होने से ही समस्या होती है।

गतिमान समाज में सत्ता परिवर्तन एवं सत्ता से संघर्ष की संभावना होती है इसलिए निरंकुश शासकों ने देश एवं धर्म का सहारा लिया और सुकरात पर युवाओं को अलग ढंग से सोचने एवं नए भगवान को चुनने का आरोप लगाया। ये तर्कशीलता, सोचने-समझने की स्वतंत्रता शासक को पसंद नहीं इसलिए सुकरात को गिरफ्तार किया जाता है और लोकसंसद सुकरात को सज़ा सुनाने एकत्रित होता है। सुकरात को सज़ा दिया जाना है लेकिन अहम बात यह है कि निरंकुश शासक, जनमानस के बीच उनके लोकतांत्रिक होने के दावे को मज़बूत करना चाहता है इसलिए 500 लोग, संसद की सभा में चुने गए हैं, बाकी लोग मात्र दर्शक हैं या कहें तो भीड़ हैं।

ठीक उसी तरह जैसे आज जनमानस महज़ भीड़ बनती जा रही है। सुकरात को मृत्युदंड देने के पक्ष में 280 मत पड़ते हैं और विपक्ष में 220। ये भीड़ तालियां बजाती है कि चलो कोई नहीं, सब कुछ लोकतांत्रिक ढंग से तो हुआ ही है। ठीक वैसे ही जैसे आज सरकार ईशनिंदा का कानून तक विधानसभा में पास कर देती है।

असल में एथेंस में यहां सब कुछ गलत हुआ था। ये लोकतंत्र तो कम-से-कम नहीं था और इसी का तो विरोध सुकरात कर रहे थे। सुकरात का मानना था कि लोकतंत्र में ऐसी विधा का बोलबाला हो रहा है जहां ये सबको सम्मिलित ही नहीं कर रहा बल्कि महज़ ‘बहुसंख्यकवाद’ (एक उन्मादी भीड़ जो तर्कहीन भीड़ में बदलती जा रही थी) को परिलक्षित कर रहा था। लोकतंत्र तो अब तीस लोगों का शासन (जिसे ऑलिगारकी कहते हैं) हो चुका है। ठीक आज जैसे लोकतंत्र महज़ दो-तीन लोगों के बीच कैद हो चुका है।

लोकतंत्र तो तर्कपूर्ण एवं गतिशील विचारों से चलता है लेकिन यहां तो सरकार समय की गतिशीलता पर ही रोक लगा रही थी। सुकरात पर युवाओं को करप्ट करने तथा ईशनिंदा का आरोप था, नए भगवान को लाने का आरोप था। ठीक आज की तरह जहां हर व्यक्ति को किसी एक धर्म से बांधने की कोशिश की जा रही है। अगर आपने उसे नहीं माना तो आप सुकरात की तरह मार दिए जाएंगे लेकिन सुकरात तो शायद लोकतंत्र को बहुसंख्यकवाद से, उसे तर्कहीन, गतिहीन होने से बचाना चाहते थे।

लोकतंत्र सिर्फ ‘लोगों का समूह’ नहीं बल्कि ‘सारे लोगों के विचारों’ का समूह भी तो है। बिना सारे विचारों को सुने-माने वो लोकतंत्र कहां से हो पाता। सुकरात तो राज्य के खिलाफ कभी भी नहीं थे। ठीक उसी तरह जैसे आज भी जो लोग गिरफ्तार किए जा रहे हैं वो राज्य के खिलाफ तो नहीं लेकिन राज्य की नाकामियों, राज्य के द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों की अवेहलना के खिलाफ तो ज़रूर हैं और ये तो हर किसी को होना चाहिए।

सुकरात को मृत्युदंड से पहले जेल में रखा गया था और उनके मित्र क्रीटो ने उन्हें जेल तोड़कर भगा ले जाने का प्लान भी दिया था लेकिन सुकरात ने साफ मना कर दिया और कहा कि अगर वो जेल से भाग गए तो मृत्युदंड के निर्णय का उल्लंघन होगा और ये तो राज्य के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर देगा। उन्होंने कहा कि मेरा विरोध राज्य की संकल्पना से नहीं बल्कि लोकतंत्र को बहुसंख्यवाद, भीड़ में बदलने से है।

सुकरात को ज़हर का प्याला (हेमलोक) पीने दिया गया और उन्होंने खुशी-खुशी उसे स्वीकार किया। सुकरात उस वक्त भी दार्शनिक चर्चा कर रहे होते हैं, प्लेटो ने अपनी किताब मेनो एवं फेदो में इसकी चर्चा भी की है। सुकरात मर चुके थे और राज्य में कुछ लोग दुखी भी थे इसके बावजूद उन्हें शायद इस बात का सुकून था कि जो कुछ भी हुआ वो सब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही हुआ था लेकिन शायद एथेंस यह नहीं समझ पा रहा था कि सुकरात क्यों लोकतंत्र को बहुसंख्यवाद (मेजोरिटी) से बचाना चाहते थे। असल में, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास भर हो जाने से हम लोकतांत्रिक नहीं हो जाते बल्कि हमें लोकतांत्रिक मूल्यों (स्वतंत्रता, समानता, न्याय, अधिकार, नागरिकता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद इत्यादि) में पूर्णतः विश्वास करना होता है, उन्हें जीना होता है। लोकतंत्र जिसमें ‘सबलोग’ थे, अब ‘बहुसंख्यक लोकतंत्र’ में बदल चुका था जिसमें ‘सबलोग’ नहीं थे लेकिन एक भीड़ थी, एक संख्या थी लेकिन लोकतंत्र संख्या का नाम तो नहीं, संख्या तो बस सहजता है, लोकतंत्र तो इस सहजता से ऊपर है, इसलिए लोकतंत्र की तो राह निश्चित रूप से कठिन है।

किसी व्यक्ति के लिए लोकतांत्रिक होना सबसे कठिन कार्य है। निरंकुश होना तो सबसे आसान है। लोकतंत्र ‘संख्या का समूह’ नहीं बल्कि ‘विभिन्न मतों’ का समूह है। लोकतंत्र सहज शासन-व्ययवस्था नहीं ये दुनिया में सबसे कठिन शासन व्यवस्था है। किसी भी शासन व्ययवस्था में सब लोग नहीं आ पाते बल्कि कुछ लोग ही होते हैं शायद इसलिए भी दुनिया ने लोकतंत्र की राह पकड़ी थी।

भारत में, हाल ही में भीमा कोरेगांव की घटना के नाम पर जगह-जगह हुई गिरफ्तारियों ने, एक बार फिर एथेंस में हुए सुकरात वाली घटना को सामने ला खड़ा किया है। लोकतंत्र के सामने फिर से वही सवाल खड़ा हो गया है कि क्या लोकतंत्र में तर्कशीलता, गतिशीलता के लिए जगह होगी अथवा नहीं? क्या लोकतंत्र बहुसंख्यकवाद से आज़ाद होगा अथवा नहीं? क्या लोकतंत्र विचारों का समूह होगा अथवा संख्याओं का गठजोड़?

मामला साफ है इन गिरफ्तारियों के ज़रिये, जनता के सवाल को गिरफ्तार किया जा रहा है, लोकतांत्रिक मूल्यों को जेल में डाला जा रहा है वो भी शायद लोकतांत्रिक प्रक्रिया का नाम देकर। जनता को ये विश्वास दिलाया जा रहा है कि उनका सवाल ही देश के खिलाफ है, राज्य के खिलाफ है। जबकि अब इस बात को कहने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि सरकार जनता के खिलाफ हो चुकी है। दुख इस बात का हो सकता है कि जनता तो अब भीड़ बन चुकी है, वो जनता रह ही नहीं गयी है इसलिए ये सवाल जो जनता के थे उनके गिरफ्तार हो जाने से भीड़ को शायद ही कोई फर्क पड़े। ये याद करना ज़रूरी है सुकरात की मृत्यु को आज भी एथेंस काले दिन के तौर पर ही देखता है। अंततः ये कहने में कोई दिक्कत नहीं कि ये गिरफ्तारियां को लोग ‘अघोषित आपातकाल’ नहीं बल्कि यह लोकतंत्र का मृत्युकाल है।

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