पिछले चार सालों में मौजूदा सरकार और टीवी चैनल पर बैठने वाले प्रवक्ताओं ने जेएनयू पर तमाम हमले किये और सिर्फ हमला नहीं बल्कि पूरे देश के जनमानस के मन में जेएनयू और उसके छात्रों के प्रति नफरत पैदा की। छात्रसंघ चुनाव के इतर कैंपस पूरे साल आंदोलन और नारेबाज़ी से गूंजता रहता है। कैंपस में संवाद की परंपरा की तूती पूरे भारत में बोलती है और छात्रसंघ चुनावों में सबसे आदर्श चुनाव में भी जेएनयू की छात्र राजनीति शुमार है।
पिछले चार सालों से लेफ्ट की तमाम पार्टियां साथ लड़ने लगी हैं। इस साल तो विचारधारा को किनारे लगाकर सभी लेफ्ट पार्टी एक साथ लेफ्ट यूनिटी के नाम पर एक हो गई। इस एकता के पीछे तर्क ये दिया है कि जंग फासीवादी से है और उसे हराने के लिए सबको एक होना पड़ेगा। फर्ज़ कीजिए ये सच है लेकिन फासीवाद सिर्फ जेएनयू कैंपस में नहीं बल्कि भारत में हर जगह है। जिस फासीवाद से लड़ने की तर्क लेफ्ट यूनिटी दे रही है, तो क्या फासीवाद दिल्ली यूनिवर्सिटी में नहीं है?
क्या फासीवाद सिर्फ जेएनयू कैंपस में है? दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव में लेफ्ट यूनिटी नहीं बनी है, इसका मतलब है कि लेफ्ट पार्टियां मानती है कि डीयू में फासीवाद नहीं है। ये तो विचारधारा नहीं बल्कि डर की राजनीति है, जो कॉंग्रेस करती आई है, मुसलमानों के साथ कि कॉंग्रेस को वोट दो वरना भाजपा आ जाएगी।
खैर चीज़ें बदल चुकी हैं। विचारधारा का दंभ भरने वाले वाम दल महज़ अब चुनाव जीतने की राजनीति करने लगे हैं। जब चुनाव जीतना है, तो भाजपा और कॉंग्रेस से भी गठबंधन किया जा सकता है। क्या फासीवाद से लड़ने के लिए किसी के साथ भी जाया जा सकता है? चुनाव के लिए मार्क्स को गोलवलकर में भी तब्दील किया जा सकता है?
फासीवाद आज से नहीं बल्कि हमेशा से रहा है, ये मत कहो कि फासीवाद से लड़ने को एक हुए बल्कि स्वीकार करो कि कमज़ोर हुए इसलिए एक हुए। स्वीकार करना सकारात्मक राजनीति है। भारत में लोग वामदल से भले ही सहमत ना हो लेकिन भारत में सभी लोग मानते हैं कि विचारधारा के मामले में वामदल मज़बूत हैं लेकिन छात्रसंघ चुनाव देखकर लगता है कि अमित शाह वाला गुण आ गया है कि बस सत्ता लेनी है, उसके लिए विचारधारा तेल लेने जाए। डर की राजनीति शुरू करना वो बेचैनी है, जो अमित शाह को बिहार चुनाव में हुई थी कि अगर भाजपा हारी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे।