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कभी खुद के खेलने के लिए कोच और पैसे नहीं थे, आज खुद कोच बनकर दे रही हैं ट्रेनिंग

आज महुआ 30 साल की है मगर ये 30 साल उसके लिए आसान नहीं थे। बंगाल के एक छोटे से गांव वर्धमान के एक मध्यम आय परिवार में जन्मी महुआ अपने माता-पिता और बड़ी बहन के साथ रहती थीं। उसके पिता एक स्पोर्ट्समैन थे और यही खासियत महुआ को उसके पिता से विरासत में मिली।

खेल के लिए उसका प्यार इस हद तक था कि 5 साल की उम्र से ही वो छुप-छुपकर अपने घर की छत पर बैम्बू स्टिक से वेट लिफ्टिंग का अभ्यास किया करती थी, बिलकुल अपने पिता की तरह। जब उसके पिता को इस बात का एहसास हुआ तो उन्होंने महुआ को इस दिशा में प्रोत्साहित किया। वे निरंतर उसका हौसला बढ़ाते और उसका साथ देते। महज़ 7 साल की उम्र से ही वो अपने पिता के साथ स्टेडियम में जाकर अलग-अलग प्रकार के खेलों का अभ्यास करने लगी थीं।

उसके पिता ने उसे बिल्कुल एक लड़के की तरह पाला लेकिन यह बात महुआ को अच्छी नहीं लगती थी। वो कहती है, “मैं लड़की होकर भी बहुत कुछ कर सकती हूं, मुझे लड़का बनने की ज़रूरत नहीं”।

बड़े हो जाने पर अपने इस हुनर की वजह से उसने स्कूल में कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया और जीत भी हासिल की। महुआ को पता था कि उससे खेल जगत में ही अपना करियर बनाना है लेकिन उसमें दम ज़रूर था, पर तकनीक नहीं। जैवलिन थ्रो और डिसकस थ्रो में अच्छा अभ्यास होने के बावजूद भी वो एलिजिबिलिटी टेस्ट को पास ना कर पाती थी। तकनीकी बारीकियों को सीखने के लिए उसे एक कोच की ज़रूरत थी परंतु आर्थिक तंगी की वजह से वो और उसके पिता कोच की फीस दे पाने में असमर्थ थे। यहां तक कि प्रतियोगिताओं में पहनी जाने वाली स्पोर्ट्स ड्रेस के लिए भी उसके पास पैसे नहीं थे। एक बार ड्रेस ना होने की वजह से महुआ ने स्पोर्ट्स ग्राउंड में फेंकी हुई फटी पुरानी पैंट से ही अपनी स्पोर्ट्स ड्रेस तैयार की।

वो रोज़ सुबह 5 बजे उठती और प्रैक्टिस करती। बाकी प्रतिभागी और उनके कोच, महुआ की इन कमियों का मज़ाक उड़ाते। इसमें सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात ये थी कि उसकी अंग्रेज़ी की खिल्ली उड़ाई जाती। महुआ एक छोटे से गांव से थी और एक बंगाली स्कूल में पढ़ी थी जिसके कारण उसकी अंग्रेज़ी भाषा पर पकड़ बहुत कमज़ोर थी। ना जाने कितनी बार उसे इस कमी के चलते हास्य का पात्र बनाया जाता।

अंग्रेज़ी भाषा के बढ़ते प्रचलन की वजह से महुआ को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता था। अपनी माली हालत से निजात पाने के लिए जब उसने नौकरी करने की सोची तो इंटरव्यू के दौरान भी उससे अंग्रेज़ी में ही सवाल किये जाते थे। महुआ तब छोटी ही थी। वो कई बार निराश हो जाती और कमज़ोर भी पड़ती। वो आज भी कहती है, “अंग्रेज़ी इस तरह से हर जगह समाई हुई है कि ऐसा लगता है कि किसी की आंतरिक खूबियों के लिए कोई जगह ही ना हो”।

महुआ ने तब तय किया कि अंग्रेज़ी ना बोल पाने की इस बाधा को वो कभी अपनी सफलता के रास्ते में नहीं आने देगी। उसने अपने उन सभी दोस्तों के साथ बाहर जाना बंद कर दिया जो उसका उपहास करते थे। महुआ अपने लक्ष्य की ओर मेहनत करने लगी और अपने खेल को मज़बूत करने पर ज़ोर देती रही। इसी दौरान उसके पिता को दिल का दौरा पड़ा और सालों की जमा पूंजी उनके इलाज में खर्च हो गई।

अब वो कॉलेज में थी और दिन रात ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी चैंपियनशिप की तैयारी कर रही थी। उसकी मेहनत रंग लाई और उसने पूरे देश में छठा स्थान हासिल किया। उसी यूनिवर्सिटी में कुछ दिनों बाद एक कोच की नियुक्ति की जानी थी और अपने अच्छे प्रदर्शन और स्पोर्ट्स सर्टिफिकेट्स के चलते उसे ये नौकरी भी मिल गयी। आज महुआ अपने कॉलेज की टीम को प्रतियोगिताओं में लेकर जाती है, एक कोच की तरह। वही कोच जिसकी उसे कभी कितनी ज़रूरत हुआ करती थी।

महुआ की शादी हो चुकी है और एक बहुत अच्छी बात यह है कि उसके पति उसके पिता की तरह ही उसका हौसला बढ़ाते हैं और उसे प्रेरित करते हैं। महुआ के विवाह के कुछ ही महीनों बाद उसके पिता का देहांत हो गया था, जिसकी वजह से उसके ऊपर अपनी मां की देखभाल की दोहरी ज़िम्मेदारी आ गयी है। महुआ रोज़ सुबह 7 बजे घर से निकलती है और डेढ़ घंटे का सफर तय करके अपनी मां से मिलने जाती है। वहां से यूनिवर्सिटी और फिर ये सिलसिला रोज़ रात 10 बजे उसके घर पहुंचने पर खत्म होता है।

महुआ का मानना है कि बिना संघर्ष के कुछ नहीं मिलता। लगन और मेहनत से असंभव को संभव किया जा सकता है। वो सिर्फ काम करना चाहती है। जितनी मेहनती है उतनी ही स्वाभिमानी भी। वो कहती है, “अब मुझे पैसे जमा करके एक स्पोर्ट्स कोर्स करना है, वो भी बिना किसी की मदद लिए”। बहुत से सपने हैं महुआ के, जिनको पूरा करने के लिए वो निरंतर अग्रसर है।

महुआ ने जब मुझसे पहली बार बात की तो सबसे पहले यही कहा कि शीरोज़ ही एकमात्र ऐसी जगह थी जहां उसे कभी उसकी खराब अंग्रेज़ी के चलते आंका नहीं गया और जब महुआ ने पहली बार अपने बारे में शीरोज़ में लिखा तो कितनी महिलाओं को उससे प्रेरणा मिली और उन्होने अंग्रेज़ी ना आने की अपनी दिक्कतों को उसके साथ बांटा।

उसने कहा, “मुझे लगा कि अगर कुछ भी उल्टा सीधा लिख दिया तो पूरी दुनिया हंसेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सभी ने मेरे पोस्ट पर लाइक और कॉमेंट किया, जिससे मुझे थोड़ा कॉन्फिडेंस भी मिला, बहुत अच्छा लगा मुझे”। सभी ने उसकी और उसके मेडल्स की सरहाना की। इसी के साथ बहुत लोगों ने उसका हौसला बढ़ाया, जो उसके लिए किसी मेडल से कम ना था।

सच है ना? हमारे बीच भी कितनी सारी ‘महुआ’ हैं जो अपनी प्रतिभा को बाहरी दुनिया के दबाव में कहीं किसी कोने में दबाकर रह जाती हैं। हमें महुआ जैसी महिलाओं की ज़रूरत है जो अपनी कमियों को कमी ना समझकर, अपने हुनर से दुनिया में नाम बनाने का माद्दा रखती हैं। शीरोज़ का सभी महिलाओं से यही आवेदन है कि बाहर निकलें अपने पंखों को उड़ान दें क्योंकि छोटे से छोटा हुनर भी मायने रखता है।

शीरोज़-

शीरोज़ एक महिला प्रधान मंच है जहां बिना किसी झिझक या डर के महिलायें अपने विचार और ज्ञान को व्यक्त कर सकती हैं। यहां पर महिलाओं से सम्बंधित सभी तरह की कम्युनिटीज़ जैसे स्वास्थ्य, करियर, पर्यटन, फैशन, कुकिंग हैं, जिनमें आप अपने पसंद के अनुसार भाग ले सकती हैं। अगर आप भी अपना हुनर या विचार दूसरी महिलाओं से साझा करना चाहती हैं या किसी समस्या, मानसिक परेशानी से ग्रस्त हैं और उसका उपाय ढूंढना चाहती हैं, तो शीरोज़ आपके लिए है। यह आप गूगल प्लेस्टोर से शीरोज़ एप्लीकेशन डाउनलोड करके कर सकती हैं। तो अगर आप भी एक महिला हैं जो अपने साथ-साथ दूसरी महिलाओं की तरक्की में विश्वास रखती हैं तो शीरोज़ आपका स्वागत करता है।

लेखिका निधि थवल के बारे में –

एक कंपनी सेक्रेटरी, पर्यटन की शौकीन और दिल से एक लेखिका हूं। शीरोज़ में एक करियर कम्युनिटी प्रबंधक के पद पर कार्यरत, मुझे महिलाओं की अनकही कहानियां सुनने में बेहद दिलचस्पी है। उनसे बात करने और उन्हें अपने सपने पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करने में मुझे बहुत खुशी मिलती है।

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