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“नीचा नगर” कामगार व बुर्जुआ वर्गों के संघर्ष की असली कहानी कहती फिल्म

विश्व सिनेमा के रियलिस्टिक फिल्मों से प्रेरणा लेते हुए भारत में भी यथार्थवादी फिल्मों का निर्माण हुआ। हमारे सिनेमा में सामानांतर प्रवाह की आवश्यक धारा शुरुआती ज़माने से ही बनी रही। बाबूराव पेंटर की ‘साहूकारी पाश’ एक मायने में ऐतिहासिक थी। शासक वर्ग की दमनकारी नीतियों के संदर्भ में ‘साहूकारी पाश’ दस्तावेज से कम नहीं थी। इस मिज़ाज की फिल्में सामानांतर प्रवाह का उदगम बनीं। व्यवसायिक सिनेमा के बाज़ार में नई धारा का परचम लेकर चलने वाले फिल्मकारों की विरासत की प्रशंसा करनी चाहिए।

आज का सिनेमा व्यवसायिक एवं नवीन धाराओं का मंथन कर रहा है। अलग करने के जुनून में नई पीढ़ी सकारात्मक विकल्प बनाने में सफल रही है। नई पीढ़ी का एक खेमा चीज़ों को अलग ढंग से ट्रीट कर रहा है। अलग फिल्में बनाने का जज्बा लेकर चल रहा। दूसरे व्यवसायिक विषयों को उठा रहा है लेकिन चालीस का दशक किस तरह का रहा होगा? उस ज़माने में भी सामानांतर का चिराग जला हुआ था। कहना चाहिए कि चिराग वहीं से आज को पहुंचा है। प्रगतिशील आंदोलन ने कला के हर प्रारूप से जुड़ें लोगों को प्रभावित किया था।

लेखक फिल्मकार व फनकारों की एक जमात ने प्रगतिशील विचारों का ज़िम्मा उठा रखा था। प्रगतिशील हलचल के प्रांगण में भारतीय जन नाट्य संगठन अथवा इप्टा के आशियाने से बहुत से फनकार व अदीब जुड़े रहें। समाज हित का जज्बा लेकर चलने वाले इस संस्था ने ‘नीचा नगर’ सरीखी वैचारिक फिल्में उस समय दी। सामाजिक यथार्थ की इस तस्वीर को रिलीज़ के अगले साल ही ख्यातिनाम कान फिल्म महोत्सव में ग्रैंड प्रिक्स अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।

क्रांतिकारी व सामाजिक संवाद की मुखर इस फिल्म को व्यवसायिक रिलीज़ कभी नहीं मिल सकी। फिल्म सामारोहों में बेशक खूब प्रशंसा मिली। कान फिल्म सामारोह में मिली प्रतिष्ठा को याद रखना चाहिए। ‘नीचा नगर’ को भारतीय सिनेमा की बड़ी उपलब्धि माना जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति ने फिल्मकार चेतन आनंद व लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास समेत कलाकार व तकनीशियनों को मशहूर कर दिया। ‘नीचा नगर’ की कामयाबी के बाद खुद की स्वतंत्र पहचान बनाने वालों में ख्वाजा अहमद अब्बास व चेतन आनंद एवं मोहन सहगल फिर पंडित रविशंकर तथा कामिनी कौशल का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।

विषय को सामने लाने वाली समकालीन कहानियों की तरह अब्बास की यह कहानी समकालीन वर्ग संघर्षों को व्यक्त कर रही थी। अमीरी के अकेलेपन में डूबा ज़मीनदार पहाड़ों पर शासक की ज़िन्दगी गुज़ार रहा। जबकि पहाड़ों के आरामों से दूर समतल ज़मीनों पर गरीब कामगार लोग ज़िन्दगी के आधारभूत चीज़ों के लिए कड़ा संघर्ष कर रहें।

इन हालात को शोषित तबकों ने अपनी तकदीर सा मान लिया था क्योंकि उन्होंने विरोध नहीं करना सीखा था। ज़िन्दगी की कठोरता उन्हें उतनी नहीं तकलीफ देती जितनी अपनी ज़मीन व घर की फिक्र। आज की दयनीय हालात पर अफसोस करने से अधिक उन्हें जीवन की जमा पूंजी की चिंता थी। घोर गरीबी व शोषण के हालातों के मद्देनजर गरीबों का एक टुकड़ा सुख बेशकीमती था। ज़मीन के लोगों की पीड़ा को शासक ज़मीनदार ने घोर गंभीर बना दिया ।

पहाड़ोंं पर रहने वाला मालिक पानी छोड़ने वक्त नहीं सोचता कि समतल इलाके के गरीब लोगों की पूंजी बर्बाद हो जाएगी। पहाड़ों से निकली पानी की बड़ी मात्रा गरीबों को मिटा देने के लिए पर्याप्त थी। यहां तबाही महामारी के रूप में ज़िंदगियों को लील रही थी। शोषण के इस प्रारूप का एकजुट विरोध कमज़ोर करने के लिए ईमान की खरीद फरोख्त काम नहीं आई।

शोषितों की गहराती पीड़ा व असंतोष कब तक खामोश रह सकती थी? मुखर क्रांति हुक्मरान को शोषित से भी कमज़ोर कर देने के लिए पर्याप्त होती है। संगठित विद्रोह के सामने शासक मजबूर हो गया। पटकथा लेखक अब्बास ने मैक्सिम गोर्की की एक कथा को आधार बनाया था। यह कामगार व बुर्जुआ वर्गों के संघर्ष की कहानी थी। यथार्थ की कड़वाहट के साथ पेश की गयी इस कहानी में सहज चिन्हों व प्रतीकों को कथन में शामिल किया गया।

यह क्लासरूम में मिली फिल्म शिक्षा के बहुत समीप अनुभव था। बहुत कुछ फ्रिट्ज लैंग की महान पेशकश मेट्रोपोलीस किस्म की फिल्म। वहां वर्ग संघर्ष अत्यंत स्पष्टता के साथ निरूपित हुए थे। मेट्रोपोलीस की कथा में शासक खुली ज़मीन के टुकड़े पर अमीर ज़िन्दगी गुज़ार रहा जबकि निर्धन मज़दूर भूमिगत बदतर घरों में जीने को मजबूर थे। नीचा नगर में बुर्जआ व कामगार के दो वर्गों के ताने-बाने में कहानी कही गयी। दुखद बात यह रही कि फिल्म से कामगार वर्ग का संघर्ष व एकजुटता परोक्ष रूप से ना जाने क्यों कमज़ोर हो गया। समय के साथ सिनेमा में बाज़ार की शक्तियां अधिक प्रखर हो गयी हैं।

फिल्म में सदियों के ज्वलंत संदर्भ शासक व शोषित वर्ग को विषय बनाया गया। समकालीन वर्ग परिस्थितियों की यथार्थ स्थिति को सेल्युलाइड पर लाने की सार्थक पहल थी। परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़े देश के आम लोगों पर मालिक का शोषण व अत्याचार को व्यक्त किया गया। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में ज़मींदारों के हांथों गरीब व वंचित पर अत्याचार होते थे। ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी में समाज के दुखों को व्यक्त करने का जज्बा था।

समाजवाद की गहरी टीस से उपजी कहानी में शोषण पर विमर्श था। फिल्म की वैश्विक स्वीकृति ने यह बताया कि शोषण को प्रकाश में लाकर ही उसे खत्म किया जा सकता है। चेतन आनंद का विषय अनुकूलन व प्रस्तुत छायांकन का उत्तम दर्जा तथा अब्बास की सीधी सच्ची कहानी फिल्म की खासियत थी। याद करें दृश्य जिसमें प्यास की शिद्दत से तड़पता बालक जो गंदे बदबूदार पानी पीने को मजबूर था। अब्बास ने कहानी में केवल अत्याचार अथवा शोषण व पीड़ा ही नहीं अपितु इंसानियत के फूलों को गुंथा था। लीनियर तकनीक से लिखा गए कथाक्रम में विषय को पूरी शिद्दत से रखा गया। यथार्थ से अवगत करने का कड़वा किंतु सादा सच्चा व दिलों को जीत लेने वाला तरीका।

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