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“हैदराबाद यूनिवर्सिटी में हमें मुक्तिबोध की कविता पढ़ने से रोकने के लिए बिजली काट दी गई”

आज कल लोगों से खैरियत पूछने के बाद अगला सवाल यही होता है, क्या कर रहे हो? खासतौर पर उन लोगों से जो शहर में कई दिनों से ना दिखे हों। तकरीबन पांच सालों के बाद एक मित्र से मिलने पर ये लाज़िम सा प्रश्न मुझसे भी पूछा गया, क्या कर रहे हो? एमए कर रहा हूं हैदराबाद यूनिवर्सिटी से मैंने कहा। वही रोहित वाला हैदराबाद यूनिवर्सिटी ना?

एक खास विचारधारा से संबंध रखने की वजह से उसकी नज़र में मैं देशद्रोही तो था ही, इस घटना के बाद उसके ज़हन में इस बात की पुष्टि भी हो चुकी थी। मगध विश्वविद्यालय के खंडहरनुमा कॉलेज से बीए करके देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में पढ़ने का अवसर मेरे लिए एक अनदेखे सपने की तरह ही था।

हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय (जिसे दक्षिण का जेएनयू कहा जाता है) में 17 जनवरी 2016, को रोहित वेमुला की अकाल मृत्यु ने देशभर में चल रहे छात्रों के आंदोलन की भट्ठी में जल रहे आग को तेज़ कर दिया। दिल्ली, पटना, कोलकाता तथा अन्य राज्यों में छात्र-छात्राओं ने इस सांस्थानिक हत्या के खिलाफ पुरज़ोर तरीके से अपनी आवाज़ को मुखर किया। इन सबके बीच नेपथ्य के गुनाहगारों का तो पता नहीं लेकिन कुलपति महोदय को देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने पुरस्कृत ज़रूर किया।

मैं पिछले एक बरस से HCU में हूं, इस एक साल में कई रूपांतरण हुए। इस रूपांतरण में कोई प्राकृतिक हस्तक्षेप नहीं था बल्कि एक डर है जो एक बड़े परिवर्तन के होने की आशंका से आतंकित तो नहीं लेकिन सहमा ज़रूर है। एक “रंग” है जिससे वो विश्वविद्यालय की चारदीवारी पर एक भयानक छवि उकेर देना चाहते हैं।

मुक्तिबोध, निराला और त्रिलोचन जैसे कवियों की कविताओं को सार्वजनिक रूप से पढ़ा जाना विद्यार्थियों को एक गुनहगार की श्रेणी में डाल देता है। नाटक में किस रंग के कपड़े का प्रयोग होगा उसके संवाद में कही सत्ता की बखिया तो नहीं उधेड़ी गयी है, इन शर्तों पर अगर नाटक ना हो तो आपको देशद्रोह होने का गौरव प्राप्त हो सकता है।

साहित्य में इस तरह का हस्तक्षेप एक गहरे खतरे की तरफ ले जाता है, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे कुठाराघात का दैनंदित खेल चल रहा है। दरअसल, ये घटना तब की है जब M.A (हिंदी) द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों द्वारा प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों को फ्रेशर पार्टी का न्यौता मिला, जिसमें प्रथम वर्ष के विद्यार्थी मुक्तिबोध, निराला और त्रिलोचन जैसे प्रगतिशील चेतना के कवियों की कविता की संगीतात्मक प्रस्तुति तथा कृष्णचंदर की एक कहानी का मंचन करना चाहते थे लेकिन इसी बीच छात्रसंघ के चुनाव नज़दीक होने की वजह से विभाग के चंद पूर्वाग्रह से पीड़ित साथ-ही-साथ एक खास पार्टी विशेष के अनुयायियों ने इस बात पर बवाल काटना शुरू कर दिया। नाटक में इस्तेमाल हो रहे कपड़े का रंग काला क्यों है? उनका तर्क था कि काला विरोध का रंग है इसीलिए इस रंग का कपड़ा पहनकर नाटक नहीं करने देंगे।

कार्यक्रम के दिन इस तरह की घटनाक्रम मेरे मन में एक अज्ञात डर पैदा कर रही थी। यह वो समय था जब एक विश्वविद्यालय को लेकर मेरे मन में कई नकारात्मक छवि बनती जा रही थी। इस डर ने जितना डराया उससे कहीं ज़्यादा मेरे मित्रों अग्रजों ने मेरा साथ दिया। हमारा कार्यक्रम शुरू हुआ, मुक्तिबोध की कविताओं से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। कार्यक्रम शुरू होने के साथ ही प्रेक्षागृह (ऑडिटोरियम) की बिजली काट दी गयी और ऐसा करने के पीछे वाजिब सी बात है कि वो हर हाल में इस कार्यक्रम को बाधित और हमारे आत्मविश्वास तो तोड़ना चाहते थे। मुक्तिबोध अपनी कविता में लिखते हैं,

सभी कुछ ठोस नहीं खंडेरों में।

हज़ारों छेद, करोड़ों रन्ध्र,

पवन भी आता है।

संसार के इस घने अंधेरे जंगल में से प्रकाश का आना ठीक उस उम्मीद की तरह है, अगर एक रास्ता बंद है तो दूसरा ढूंढेंगे क्योंकि रास्तों की तादाद बहुत है। प्रेक्षागृह में बैठे लगभग सभी लोगों ने अपने मोबाइल का फ्लैश ऑन कर दिया। इस घटना ने हम सबके भीतर की चिंगारी को आग में बदल दिया। इसके बाद बिजली की कुछ खास आवश्यकता भी नहीं पड़ी।

कैंपस में सिक्योरिटी गार्ड की संख्या और चहलकदमी बढ़ गयी है। अगर आप रात के 1-2 बजे साउथ कैंपस की तरफ नाइट वॉक पर निकले हैं तो गार्ड्स के द्वारा पहचान-पत्र की मांग की जा सकती है। मेन गेट के पास पहचान-पत्र ऐसे चेक किये जाते हैं मानो अभी तुरंत विदेशी सीमा में प्रवेश हुआ हो। यानी कि जितने भी केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं, सब में इसी तरह की रोक-टोक लागू है, ये सबकुछ विश्वविद्यालय को जनता की दुनिया से अलग करने का प्रयास है।

HCU आने के बाद सामान्यतः फर्स्ट सेमेस्टर के सभी विद्यार्थी मशरूम रॉक घूमने ज़रूर जाते हैं। यहां तक पहुंचने में लगभग 3.5 किलोमीटर का रास्ता तय करना होता है जिसे आमतौर पर पैदल ही तय किया जाता है। मशरूम रॉक तीन चट्टानों का एक प्राकृतिक डिज़ाइन है देखने में कुकुरमुत्ता जैसा लगता है। मैं जब आया था तो यहां कई जोड़े आसपास की चट्टानों पर बैठकर बातें और शायद प्रेम भी करते थे लेकिन जिस जगह पर जातीय भेदभाव की वजह से इतनी बड़ी घटना घटित हो जाए वहां प्रेम प्रसंग और मित्रता जैसे शब्द कानों में शूल की तरह गड़ते हैं। तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने वहां भी अपनी चतुराई का परिचय देते हुए वहां आने-जाने की समय सीमा तय कर दी है।

पिछले कुछ समय से जो शैक्षणिक संस्थानों पर सत्ता के हमले हो रहे हैं वो जेएनयू से होते हुए HCU तक आएं लेकिन HCU में रोहित के बाद की जो आग तमाम विश्वविद्यालय में फैली उससे सत्ता को कदम पीछे करना पड़ा। इसी जज़्बे का प्रदर्शन अभी हाल में ही अलीगढ़ विश्वविद्यालय ने दिखाया।

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