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असमिया फिल्म दर्शकों को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है

यह तो सच है कि सिनेमा के दर्शकों को समझने का कोई टूल्स अभी तक खोजा  नहीं जा सका है । एक फिल्म को देखकर दर्शक क्या सोचता है इस पर भी कई विरोधाभाष हमें देखने को मिल सकते हैं। उदाहरण से समझे तो खुद सेंसर बोर्ड के अधिकारी जिन फिल्मों को देखते हुए यह तय करते हैं कि यह दर्शक वर्ग के लिए सही है या नहीं, उन फिल्मों का उन पर कोई असर पड़ता हुआ आज तक नहीं दिखा। तो कैसे मान लिया जाए कि एक फिल्म आपके लिए सही है दूसरों के लिए नहीं ? यह दर्शक पर निर्भर करता है कि वह क्या देखे और किसे पसंद करे । हालांकि दर्शकों की पसंद को लेकर ही अगर बात करें तो क्षेत्रीय सिनेमा का स्वभाव पूरी तरह भिन्न हमें दिखता है। पूर्वोत्तर भारत के ही एक राज्य असम का सिनेमा का सबसे बड़ा उदाहरण है ।

असमिया सिनेमा की शुरुआत तो सन 1935 से फिल्म जोयमती से होती है लेकिन यह वही दौर था जब भारत में फिल्मों को आए महज़ कुछ वर्ष ही हुए और भारतीय सिनेमा ने अपनी आवाज़ पा ली थी। यानि फिल्मों में साउंड का पदार्पण हो चुका था। जोयमती असमिया संगीत जगत के प्रतिष्ठित नाम ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने निर्देशित की थी। स्वतन्त्रता सेनानी रहे ज्योतिप्रसाद अग्रवाल ने फिल्म कि पटकथा जेल में रहते हुए तैयार की थी। जिसमें उन्होने अपने सपनों और कल्पनाओं को मूर्त रूप देने की पुरज़ोर कोशिश की थी।

चित्रलेखा मूवी टोन के बैनर तले बनी इस  फिल्म को इस लिए भी याद किया जाता है क्योंकि इसमें निर्देशक ने ही लेखन, निर्देशन, नृत्य निर्देशन, वस्त्र सज्जा, गीत व संगीतकार कि भूमिका स्वयं वहां की थी। 10 मार्च 1935 को फिल्म रिलीज़ होती है और असम के फिल्म इतिहास का पहला पन्ना बनती है। लेकिन दर्शकों ने इसे पूरी तरह नकार दिया। 60 हज़ार के लागत में बनी फिल्म बुरी तरह बॉक्स ऑफिस पर परास्त हो गई थी। 4 वर्षों बाद ज्योतिप्रासाद ने अपनी दूसरी फिल्म इंद्र मालती (1939) का भी निर्माण किया दर्शकों ने उसे भी कोई खास तवज्जो नहीं दी। यह असमिया सिनेमा का दुर्भाग्य ही रहा कि ज्योतिप्रासाद अग्रवाल की मृत्यु हो गई। यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है कि असम से ताल्लुक रखने वाले प्रथमेश बरुआ ज्योति प्रसाद से पहले फिल्म निर्देशन कि दुनिया में कदम रख चुके थे लेकिन उन्होने भाषा बंगाली चुनी।

प्रथमेश ने प्रेम सम्बन्धों पर आधारित बंगाली फिल्म देवदास का निर्माण 1934 में ही कर लिया था। फिल्म सफल फिल्मों में से गिनी जाती है।
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि दर्शकों के मर्म को समझने में ज्योति प्रसाद अग्रवाल या तो नाकामयाब रहे या फिर उन्होंने सिर्फ फिल्म माध्यम को असमिया भाषा के विकास में स्थापित करना ही मुख्य ध्येय बना लिया था।

ज्योतिप्रसाद ने एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी में अपनी पढ़ाई के दौरान UFA स्टूडियो जर्मनी में फिल्म की तकनीकों के बारे में काफी कुछ सीखा था। वहीं उनकी मुलाकात हिमांशु राय से भी हुई थी। उसी दौर में भारत के फिल्म निर्देशकों कि फिल्मों पर अगर गौर करें तो पाएंगे कि प्रगतिशील निर्देशकों कि संख्या अत्यधिक थी, विषयों में खुलापन था। ऐसे में ज्योतिप्रासाद ने महिला विमर्श को अपना मुख्य बिन्दु बनाया। और दोनों ही फिल्मों में स्त्री चेतना को दिखाने का प्रयास किया। यह वही समय था जब भारतीय सिनेमा में महिलाओं कि स्थिति कमज़ोर थी। नगण्य भी कही जा सकती है।

भारत की पहली ऐसी फिल्म जिसमें डबिंग और रिकॉर्डिंग तकनीक का प्रयोग किया गया हो महिला नायक की कहानी हो, वास्तविकता और राजनीतिक सिनेमा के करीब रही हो, उसे दर्शकों द्वारा उन दिनों पसंद ही नहीं किया गया। साथ ही स्वतंत्रता सेनानी रहे ज्योति अग्रवाल जिन्होंने असम की संस्कृति और समाज को पहली बार संकलित करने का प्रण लिया उसे भारत सरकार सहेजने में नाकामयाब रही।

आज़ादी के बाद देश की सरकारों ने फिल्म को लेकर जिस तरह कि उपेक्षा की वह शोध का प्रश्न ज़रूर है। जिस सिनेमा ने आज़ादी में अपनी भूमिका का स्पष्ट निर्वहन किया उसे सहेजने की नीतियों में देरी भी की गई। फिल्म संग्रहालय अगर आज़ादी के बाद तुरंत बना होता तो हमें आज उन फिल्मों को देखने का अवसर ज़रूर मिलता जिनका इतिहास तो है लेकिन भूगोल पूरी तरह गायब हो चुका है।

असमिया सिनेमा के इतिहास की पहली फिल्म के बाद का इतिहास और भी रोचक है। जोयमती के मुख्य किरदारों में से एक फानी शर्मा ने, ब्रिटिश शासन का विरोध करने वाले सेनानी पियाली फुकन पर आधारित फिल्म ‘पियाली फुकन’ बनाई जिसे पहली बार प्रेसिडेंट मेरिट सर्टिफिकेट मिला था। इसी के साथ असमिया सिनेमा के इतिहास में एक नए दौर की भी शुरुआत होती है। जहां क्षेत्रीय भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का चुनाव होने लगा वहीं फिल्मों के विषयों में भी विविधता आने लगी। व्यक्ति विशेष पर केन्द्रित फिल्मों के अलावा अब सामाजिक मुद्दों को भी फिल्मों के विषय के केंद्र में लाया जाने लगा था।

यह वही दौर था जब छोटे बजट की फिल्मों को लेकर स्वतन्त्र निर्माता आ रहे थे। यह नेहरू मॉडल के विभिन्न प्रयासों में से एक था। लेकिन एक चीज़ जो बिलकुल नहीं बदली वो थी दर्शकों की पसंद। दर्शक क्या पसंद कर रहा था इसे समझ पाना तत्कालीन निर्देशकों की समझ से परे था। फिर भी उन्हें उनकी फिल्मों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जा रहे थे। आखिर दर्शक वर्ग जिन फिल्मों को पसंद नहीं करता उसे किस आधार पर राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता रहा है यह भी सोचने वाली बात है।

आखिर क्या वजहें रही है कि राष्ट्रीय पुरस्कारों की चयन समिति और दर्शकों के फैसलों में हमेशा से विरोधाभाष रहें हैं? क्या यह भी एक कारण मान लिया जाए कि दर्शकों को सिनेमा देखने के प्रति ज़रूरी तत्व बतलाए जाने चाहिए थे वे नहीं मिल सके। क्या असम के दर्शकों में फिल्म संस्कृति को लेकर जागरूकता का अभाव हमेशा से रहा है? क्या निर्देशकों ने सिर्फ पुरस्कारों के लिए ही फिल्मों का निर्माण किया? दर्शकों की चाह को हमेशा से नज़रंदाज़ किया ?

हम देखते हैं कि प्रभात मुखर्जी, ब्रजेन बरुआ, भावेंद्र नाथ सैक्या आदि फिल्मकारों ने फिल्में तो राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली बनाई लेकिन दर्शकों ने उन्हें सिरे से नकारा। यहां तक कि 9 राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके जाहनु बरुआ को अपनी मूल भाषा में फिल्म निर्माण प्रक्रिया से हिन्दी की तरफ रुख मोड़ना पड़ा। आखिर असम का दर्शक अपनी फिल्मों में देखना क्या चाहता है ? यह प्रश्न प्रासंगिक बना रहेगा।

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