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नशे से अपनी दोस्त की मौत पर एक पत्रकार का खत

नशे की मार से पंजाब की हालत बद से बदतर होती जा रही है। सामर्थ्य और ऊर्जा से भरपूर युवाओं में नशे की लत ना सिर्फ उनके लिए बर्बादी का पैगाम बनकर सामने आ रही है बल्कि यह उनसे उनकी ज़िंदगी तक छीन लेने पर आमादा है। इसी तरह के नशे के क्रूर जबड़े की गिरफ्त में आए अपने दोस्त की मौत की खबर जब पत्रकार यदविंदर को लगी तब वो खुद को संभाल नहीं पाएं।

अपने दोस्त के ज्ञान, सामर्थ्य और ऊर्जा को याद करते हुए वह उसके नशे का शिकार बन जाने की बड़ी ही भावुक, सामाजिक और राजनैतिक पड़ताल करते हैं कि आखिर वो कौन सी वजह रही होगी जिसने ज्ञान और राजनीति के प्रति जागरूक प्रीतपाल को नशे की ओर जाने को मजबूर कर दिया।

इसी संदर्भ के इर्द-गिर्द पत्रकार यदविंदर ने अपने मृत दोस्त को पंजाबी में एक पत्र लिखा है, जिसका हिंदी अनुवाद नीचे लिखित है। इसे पढ़ना चाहिए कि यह कहानी अकेले प्रीतपाल की नहीं है। इससे आप नशे की चपेट में बुरी तरह फंसे पंजाब की अधिकांश युवाशक्ति की स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते हैं।

अपने एक दोस्त के साथ मैं बड़े ही अच्छे मूड में बैठा था। व्हाट्सएप्प चेक किया। गांव से दोस्त गुरमीत का एक सुनेहा था। पिर्थी अलविदा कह गया यार।

सुनेहे में लाश की तस्वीरें और खबर थी। ऐसा लगा जैसे किसे ने मुझसे कुछ छीन लिया हो। खबर बनाने वाले का दोस्त खबर बन गया। खबर थी “नशे की ओवरडोज़ से एक नौजवान की मौत”।

पिछले 15-20 दिनों में उसने 2 बार फोन किया। एक बार दारू पीकर और एक बार बिना पीए। दोनों बार उत्साह और निराशा से एक जैसा भरा हुआ। मौत के बाद लगा वो मेरे साथ अपने हिस्से की आखिरी बातों का कोटा पूरा कर रहा था। बातें वही, बचपन से अब तक की यादों की।

मैंने हर बार की तरह कहा, “यार, दारू कम कर दे। इसमें कुछ नहीं रखा।” पर गांव से अब मेरा राब्ता कम होने की वजह से मुझे यह नहीं पता था कि वो और भी ड्रग्स तक पहुंच गया है।

गांव में दोस्तों से बात हुई। प्रीतपाल की मौत किसी के लिए भी झटका नहीं थी। सबने बड़ी सहजता से कहा, “ये आज नहीं तो कल होना ही था”। खुद मेरी मां ने कहा कि परिवार भी दुखी था। सबकुछ बेचने लग गया था। लड़के के तौर तरीके ठीक नहीं थे बेटा। अब तो सरिंज-सरुंजा भी लगाता था।

मुझे प्रितपाल की मौत, मेरे घरवालों और गांव के दोस्तों की असंवेदनशीलता ने बेहद दुखी किया। वो बुरा था। नशे करता था। मेरे साथ-साथ सबसे लड़ता-झगड़ता रहता था।

पर क्या उसकी मौत के प्रति ऐसी नासमझी ठीक है? क्या हमें प्रितपाल के झगड़ालू और नशे की गिरफ्त में होने की वजह के पीछे नहीं जाना चाहिए? मैं भी उसकी मौत को सहज मानकर सारा दोष सरकार, नशा तस्करों और खुद उसके सर मढ़कर अपना पल्ला झाड़ सकता हूं लेकिन, अगर मैं भी ऐसा ही करता हूं तो बचपन की दोस्ती का कोई मतलब नहीं रहेगा।

इसमें कोई शक नहीं कि तस्कर और सियासतदान पंजाब की जवानी बर्बाद कर रहे हैं। प्रीतपाल से मेरी दोस्ती पहली क्लास से थी। मैं सीबीएसई बोर्ड के स्कूल में और वो सरकारी विद्यालय में पढ़ता था। मेरे पिता को इस यारी से ऐतराज़ था। वो कहते तुम्हें अच्छे स्कूल में ऐसे दोस्त बनाने को लगाया है? कोई शक नहीं प्रीतपाल बहुत शरारती था। कई बार हम दोनों ने एक साथ मार खाई थी। हमारी डाकू-पुलिस खेलने वाली लकड़ी की बन्दूक तोड़ दी गई। एक साथ पतंग चढ़ाते और गोले खेलते पीटे गए। सबकुछ के बावजूद हम ‘ये दोस्ती नहीं तोड़ेंगे’ जैसे बने रहें।

मैं पढ़ता रहा और प्रीतपाल छठी क्लास में फेल हो गया। वो मिस्त्री का काम करने लगा पर दोस्ती वैसे की वैसी रही। पिताजी उसके लिए जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए कहते, “ये तो 300 रूपये में मज़दूरी कर लेगा पर तुम्हें किसी ने 40 रूपये पर भी नहीं लेकर जाना।”

मेरा कॉलेज का दौर शुरू हुआ। कॉलेज की छात्र राजनीति को मैं गांव लेकर आया। दोस्तों के साथ रात के 1 बजे तक पंजाब, देश-दुनिया और सियासत पर चर्चा होने लगी।

प्रीतपाल कम पढ़ा-लिखा होने के बावजूद हर विषय पर सबसे ज़्यादा रूचि दिखाता था। वो मेरे साथ खेती के काम भी करवाता रहा। मैंने उसका ज्ञान, उसकी जानकारी और उसकी मेहनत करने का सामर्थ्य बहुत करीब से देखा था।

वो जितना ज्ञान का आशिक था उतनी ही शिद्दत से मेहनत को प्यार करता था। किताबें तो पढ़ता ही था पर गेहूं की कटाई मुझसे तेज़ कर लेता था। कपास की खेती में मुझे हरा देता था। खेत में पानी वाली मोटर पर उसने कई बार कबूतरों का शिकार किया। उन्हें पकाया। एक बार तो नहर से कछुआ पकड़ लाया था। उसी नहर में उसने मुझे गिराकर तैरना सिखाया। नहर में अंधविश्वास से भरे लोगों के छोड़े नारियल वो सबसे पहले खा लेता और लोगों का अंधविश्वास तोड़ देता।

प्रीतपाल आम नहीं विलक्षण प्रतिभा, सामर्थ्य और ऊर्जा वाला शख्स था। हां, ज़िन्दगी में थोड़ा फिल्मी था। कमाल की अदाकारी करता था। अक्सर दो पैग लगाकर शोले का धर्मेंद्र और गदर का सनी देओल बन जाता।

दुनिया उसे पढ़ नहीं पाई और वो दुनिया को। वो बेस्वाद दुनिया में फिट नहीं बैठ पाया। वो कभी भी सेटल नहीं हुआ और ना ही होना चाहता था। सेटल हो गई दुनिया को ‘साहिर’ की तरह कुछ भी नहीं समझता था। उसको लगता था ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।’

शिव के कहने के मुताबिक प्रीतपाल जैसे स्लो सुसाइड कर रहा था। नशा उसको मुक्ति का साधन लगने लगा था। उसकी हालत ‘क्या पूछते हो हालत फकीरों की’ जैसी हो गई थी। वह समझने समझाने वाले खेल से बाहर हो गया था।

यीशु मसीह कहते हैं, “बच्चा धरती पर भगवन का रूप है।” मनोविज्ञानी फ्राइड कहते हैं, “बचपन की घटनाओं का असर मनुष्य पर ताउम्र रहता है”।

बचपन में पिता की मौत ने प्रीतपाल का “भगवान का रूप होना” चुरा लिया था। बचपन उसको ज़िंदगी भर तंग करता रहा। बचपन में उसको प्यार नहीं बल्कि ना देखे जाने लायक हिंसा मिली। हिंसा ने उसके अंदर हिंसा कूट-कूटकर भर दी थी। नशा इसी का नतीजा था।

बचपन में मां-बाप का प्यार नहीं मिला। जवानी में इश्क के रंग ना लगे। प्यार ने ही तो उसके बचपन के ज़ख्मों पर मरहम लगानी थी पर बदकिस्मती से उसकी पत्नी भी उसे समझ नहीं पाई। उसका भावुक पक्ष हमेशा असंतुलित रहा। ये असंतुलन ही उसे दारू से नशे तक और फिर झगड़े करने तक ले गया।

असंतुलित इमोश्नल आदमियों की ताकत कमज़ोरी और कमज़ोरी ताकत होती है। प्रीतपाल की ताकत ही कमज़ोरी बनती गई। हालांकि इमोश्नल होना कोई बुरी बात नहीं। इमोश्नल ना होने वाले प्रैक्टिकल लोग बहुत खतरनाक हो जाते हैं।

ऐसे लोग ज़िंदगी भर ‘अपने होने को प्रमाणित’ नहीं कर सकते। लोहा लोहे को खाता है। ज़हर ज़हर को मारती है। प्रीतपाल को ना तो अपने मुकाबले का लोहा मिला और ना ही ज़हर।

ऐसे ऊर्जावान और सामर्थ्यशाली लोगों को ‘मुहब्ब्ती परिवेश के सहारे’ की ज़रूरत होती है। सहारे उसके पास होने की जगह दूर होते गए। हमारा समाज अभी इतना समर्थ नहीं हुआ कि ऊर्जावान लोगों को संभाल पाए। कोशिशों के बावजूद हम सब उसको सबकुछ देने में असफल रहें। अब प्रीतपाल से रिश्ता शब्दों के पार का है। वह शब्दों से मुक्त हो गया है मगर मुझे उसके साथ बातें करने के लिए ‘शब्द’ ही चुनने पड़े।

मिलते रहना प्रीतपाल।

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