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मेरे कवि दोस्त वक्त आ चुका है कि कविता शेल्फ से आज़ाद होकर सड़क पर धरना दे

दुष्यंत जी कह गए हैं-

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

हर दौर की क्रांति गवाह रही है कि कवियों की रचनाओं ने कैसे इंधन की तरह काम किया है, हर खामोशी की दौर को तोड़ने में। सड़क पर उतरना जब एक मुश्किल रास्ता नज़र आता है तब कोई कविता किसी कवि द्वारा लिखी जाती है जो बन जाती है एक विद्रोह गान। शायद इस दौर के लिए वही कविता लेकर आए हैं रमनीक सिंह और नवाज़। नवाज़ मंटो की हैसियत से इस कविता में हैं और कह रहे हैं कि मेरे कवि दोस्त वक्त आ चुका है। वक्त आ चुका है जब कविता बुक शेल्फ से गिरकर लड़खराते ही सही सड़क पर आ पहुंचे और हुक्मरानों  से सवाल करें।

रमनीक ने शुरुआत में एक पंक्ति पढ़ी है-

मेरे कवि दोस्त तुम्हारी कविता महबूब से मिलने उससे बिछड़ने और उसके जाने पर खाली हुए मकान की कहानी कह-कह कर थक चुकी है। देश मूल्यों से खाली हो रहा है। 

और इसलिए मेरे कवि दोस्त वक्त आ चुका है। सत्ता जो पत्रकारों को खरीदना चाहती है, सवाल उठाओ तो विकास का भोंपू बजा देती है उनके लिए आओ अब ऐसी कविता लिखी जाए और ऐसे पढ़ी जाए कि जवाब देना कुर्सी की फितरत हो जाए।

और हां दुष्यंत की तू किसी रेल सी गुज़रती है की पंक्ति तो मशहूर हो चुकी है वक्त है मेरे कवि दोस्त कि आग भी जलनी चाहिए

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