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कविता: “सीवर में दम घुटकर मरते दलित”

समंदर की ये हसीन लहरें,

जिनके अनंत प्यार में डूबकर

आलिंगन करतीं

मेरी खूबसूरत कविताएं,

तट पर लेटकर

स्विमसूट में

अपने भीगे बदन को सुखाती

मेरी कविताएं

गले लगा चुकी हैं

इस भ्रम को

कि हमेशा सुखद एहसास देता है

तरलता में उतरना।

 

मत तोड़ो उनका प्यारा भ्रम,

मत उतारो उस गंदी नाली में

मेरी कविताओं को

सदियों से जिसे साफ करते-करते

दम घुटकर मर रहे हैं दलित।

 

नीच नहीं है जात

मेरी कविताओं की,

दलित हैं तो ज़िंदा

तुम्हारे मैल को खाने, पीने, ओढ़ने,

उन्हीं में अपनी ज़िन्दगी गुज़ार कर

मर जाने के लिए।

 

हवाएं भी ज़िंदा लौटकर नहीं आती जिस नाले से,

मेरी कविताएं ज़िंदा निकल भी गईं

तो मैली हो जाएंगी

मेरी खूबसूरत कविताएं।

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