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कविता: “भूख का भूख से सौदा हुआ”

शाम को चूल्हे की ओर

देखना ही गैरज़रूरी लगता है

चूल्हे की बुझी हुई राख

और बढ़ाती है

सीने की तल्खियां

वो और उसकी औरत

दोनों समझ जाते हैं

एक दूजे की खामोशियां

 

औरत एक घूंट खून का

और एक पानी का

गले से उतारकर

अश्क आंखों से पोंछकर

अपने तीन साल के लाल को

सुनाने लगी लोरियां

 

उधर तो वो देखता भी नहीं

जिस तरफ बैठी है

फटे कपड़ों से बदन ढकती

ग्यारह और तेरह साल की बेटियां

 

रात गुज़र गई सिसकते-सिसकते

दिन भी ढल ही गया हांफते-हांफते

भूख मगर वहीं है

चूल्हे में अब भी रौशनी नहीं है

 

मगर आज आदमी

चूल्हे की ओर देखता है

हाथ पेट पर फेरता है

औरत भी उम्मीद ले आती है आंखों में

 

आज आदमी तन्हा ना आया था

साथ उसके एक साहब बिन बुलाया था

 

आदमी देखता है उस ओर

बेटियां बैठी हैं जिस ओर

औरत ज़रा सहम सी गई

सांसें उसकी थम सी गईं

 

औरत की सिसकियां

दब रही थी

कमरे से आती सिसकियों तले

 

आदमी तो समझदार था

उसको सुनने की ज़रूरत नहीं थी

वो घर से बाहर चला गया

 

बच्चा ज़मीन पर बैठा बेचैन था

भावहीन चेहरे से मां को देख रहा था

पर औरत की हिम्मत नहीं थी

उस मासूम से आंख मिलाने की

 

छोटी कोने में सहमी बैठी थी

समझने में अभी छोटी थी

पर तेरह साल वाली भी तो कहां बड़ी थी

 

घर में राशन आया

औरत ने चूल्हा जलाया

सबने खाना खाया

एक को छोड़कर

 

आदमी औरत को देखता है

औरत आदमी को देखती है

सपाट दो चेहरे जैसे कहते हो

एक दूसरे से

इतना भी क्या बुरा हुआ

भूख का भूख से सौदा हुआ।

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