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राष्ट्रकवि के रूप में सत्ता की आलोचना करने वाले राष्ट्रवादी कवि ‘दिनकर’

साथियों, समर शेष है…

“संस्कृति के चार अध्याय” रामधारी सिंह “दिनकर” से मेरा परिचय कराती हुई, मेरी पहली किताब थी, जिसने “दिनकर” से मेरा परिचय राष्ट्रकवि के रूप में भी कराया। वो राष्ट्रकवि जिसने आपातकाल के दौरान “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” लिखकर उस सरकार और काँग्रेस पार्टी से रार ठान ली जिन्होंने उनको तीन बार राज्यसभा भेजा।

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” बाद के दिनों में चुनावी मौसमों में मशहूर गीत बन गया, जिसका इस्तेमाल कमोबेश हर राजनीतिक दल करती है। पर “दिनकर” तक कभी भी राष्ट्रीय सम्मान नहीं पहुंच सका जिसकी मांग कई बार हो चुकी है।

राजनीतिक पार्टियां उनका इस्तेमाल भूमिहार जाति का वोट अपने पक्ष में पाने के लिए ज़रूर कर लेती है, उनको खुद “दिनकर” की लिखी पंति याद नहीं रहती है,
“मूल जानना बड़ा कठिन है
नदियों का, वीरों का
धनुष छोड़कर और गोत्र
क्या होता है रणधीरों का?
पाते है सम्मान तपोबल से
भूलत पर शूल
जाति-जाति का शोर मचाते हैं कायर क्रूर।”

ज़ाहिर है, उनको इस संवेदना का भान नहीं होता है कि कवि पूरे देश का होता है, जिस भाषा में वो पढ़ा जाता है उस भाषा का होता है। “दिनकर” देश के उन चंद कवियों में शुमार हैं, जो 137 मनोनीत राज्यसभा सदस्यों में से हैं। इनमें से अब तक केवल 22 सदस्य ही साहित्य की दुनिया से रहे हैं । इसमें मात्र छह कवि हैं इन छह कवियों में मैथिलीशरण गुप्त और “दिनकर” राज्यसभा सदस्य के रूप में अपनी बात केवल कविता में कहा करते थे। 12 वर्ष लगातार राज्यसभा सदस्य रहकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। राज्यसभा के सदस्य के रूप में वो हमेशा याद दिलाते रहे कि साथियों समर शेष है….

अटका कहां स्वराज?
बोल दिल्ली!
तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी
वेदना जनता क्यों
सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे
है किसने अपने
कर में?
उतरी थी जो विभा,
हुई बंदिनी बता किस
घर में….

हिंदी के लिए सदन में 20 से अधिक भाषण देने वाले “दिनकर” ने यहां तक कहा –“जिस भाषा में नेता फाइल पर नोट लिखते हैं, उस भाषा में वोट मांगकर देखें, पता लगेगा कि नतीजा क्या होता है।” अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नेहरू के राय के साथ अपनी राय नत्थी करते हुए उन्होंने कहा था –

“अगर हम प्रजा सत्ता चलाना चाहते हैं सच्चे मन से, तो पहला काम यह होना चाहिए कि लेखकों और अखबारों को अधिक से अधिक स्वाधीनता दी जाए। उचित रूप से वे जिसकी पगड़ी चाहें उछाल सकें। तब तो प्रजा सत्ता बढ़ेगी।”

मौजूदा सरकार की सबसे बड़ी असफलता नोटबंदी कही जा रही है, छिपकर नोट जमा करते है उन्होंने साठ साल पहले संसद के सेंट्रल हांल में पढ़ी थी। चीन के आक्रमण के समय, पंडित नेहरू की उदारता और विदेश नीति से आहत उनकी कविता जिसका पाठ उन्होंने राज्यसभा में किया और नेहरू ने भी सिर झुका लिया, मुझे बहुत पसंद है, जो वीर रस में डूबी हुई है।

रे, रोक युधिष्ठिर को ना यहां,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा
लौटा से अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूंज उठे,
हर-हर-बम का फिर महोच्चार।
ले अगड़ाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुंकार भरे
फट जाए कुहा,भागे प्रमाद।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल।…

देशभक्त और राष्ट्रवादी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह “दिनकर” को नहीं जानने वाली युवा पीढ़ी को उनकी किताब “संस्कृति के चार अध्याय” और कविता “समर शेष है” जरूर पढ़नी चाहिए। छद्म राष्ट्रवादियों और भारतीय संस्कृति की पहचान “दिनकर” की ये दोनो रचनाएं कराती है। “संस्कृति के चार अध्याय” जहां राष्ट्र के रूप में भारत की विविध संस्कृति से परिचय कराती है तो “समर शेष है” यह सिद्ध करती है कि “दिनकर” राष्ट्रकवि के रूप में सत्ता के गुणगाण नहीं आलोचक थे जो कविता की ओज से सत्ता को सर्तक कर रहे थे।

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