प्रेम अपने मूल में निर्भीक, उन्मुक्त और स्वच्छंद होता है। प्रेम का इतिहास विविध अनुभवों का इतिहास है। कभी प्रेम किसी अभिजात्य की विलासिता से पीड़ित रहा, कभी पितृसत्ता के पैरों तले रौंदा गया और कभी किसी मजलूम की आवाज़ बना। ऐसी हज़ारों कोशिशें हुईं जब प्रेम को कुछ खुदगर्ज़ लोगों ने अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया।
एक दौर वो भी आया जब प्रेम और उसके सुखद अनुभव को एक समुदाय ने अपने हित और नैतिकता को संतृप्त करने का माध्यम बना लिया। प्रेम का अधिकार जो शायद मानव इतिहास के वजूद की प्राथमिक कड़ी है वो किसी ताकतवर समुदाय की परिभाषा के मानकों पर बड़ा होने लगा।
प्रेम की बहुत सारी परिभाषाएं और प्रारूप तय किये गए और इसे सामान्य-असामान्य, विकृत-स्वाभाविक, पुरुष-महिला जैसे मानकों पर भी बांटा गया। होमोसेक्शुअलिटी को भी एक ऐसी ही विकृत मानसिकता की उपज बताया गया। कई विद्वानों ने तो इसे पूंजीवाद का प्रतिफल तक बता दिया। हालांकि इस देश में खजुराहो में रखी मूर्तियां होमोसेक्शुअलिटी के वजूद को स्पष्ट रूप से दिखाती हैं पर हमारे समाज का पाखंड अपना जु़ल्म जारी रखता है उन तमाम लोगों के खिलाफ जो प्रेम में किसी जेंडर बाइनरी का हिस्सा नहीं थे।
आज ये बातें इसलिए प्रासांगिक हो जाती हैं क्योंकि हम एक समाज के तौर पर समलैंगिकता के अधिकार (आर्टिकल 377) पर शीर्ष न्यायालय के आदेश की सराहना कर रहे हैं। निश्चित तौर पर यह आदेश सराहनीय है पर अंतर्मन में एक वेदना है जो शायद इसे सराहने से डरती है। वो उल्लास के करीब है पर वो इस बात की तसदीक करने से डरती है कि ये बदलाव कहीं सिर्फ सांस्थानिक और प्रतीकात्मक ना रह जाए।
यह डर बेवजह नहीं है, क्योंकि इस डर के पीछे एक पृष्ठभूमि है जो यह बताती है कि हम उसी देश के नागरिक हैं जहां सहमतिजन्य प्रेम को हमारा सुप्रीम कोर्ट (लता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य), निर्णय के दौरान संविधान की धारा 21 के मुताबिक मौलिक अधिकार मानता है पर इस फैसले के कई साल बीत जाने के बाद आज भी जब एक प्रेमी युगल सारी वर्जनाओं को दरकिनार करने के बाद एक दूसरे से आलिंगनबद्ध होता है तो उसके मन में एक अजनबी सा खौफ होता है। एक ऐसा खौफ जिसमें सिर्फ भीड़ है और अपराधी का कोई चेहरा नहीं है। ये भीड़ नैतिकता के नाम पर किसी को रौंद सकती है।
संवैधानिक रूप से स्वीकृत प्रेम जो सामाजिक प्रेम की परिपाटी के खिलाफ भी नहीं जाता क्योंकि वो पुरुष-महिला के दायरे तक ही खुद को सीमित रखता है परंतु फिर भी अपनी अंगडाई लेने से पहले खौफजदा महसूस करता है। फिर, समलैंगिकता के अधिकार ने तो बस अपनी पहली पहर देखी है और इसे अभी इस देश की तमाम जड़ताओं से लड़ना है, जीतना है और एक हसीन ख्वाब को मुकम्मल करना है।
पोलैंड ने 1932 के दौरान समलैंगिता के अधिकार को न्यायिक तौर मंज़ूरी दी थी पर इतिहास गवाह है कि न्यायालयों के बाहर एक नैतिकता है जिसके खुद के हुक्मरान हैं और वो अपना फैसला सुनाते हैं और फिर ऐसे आदेश सरेआम झुठलाए जाते हैं और उनका माखौल बनाया जाता है।
पोलैंड भी अपवाद नहीं था और वहां इस फैसले के बावजूद सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर होमोसेक्शुअल समुदाय का उत्पीड़न और दमन होता रहा। आज अगर हमें प्रेम को मुकम्मल बनाना है और उसके दायरों को तोड़ना है तो यह अपरिहार्य है कि सामाजिक लोकतंत्र की भी कवायद की जाए वरना यह बदलाव सिर्फ कानून की किताबों तक सीमित रह जायेगा।
एक ऐसा देश जहां प्रेम एक शोषित भावना रही है और एक तबके के प्रेम को हमेशा जैविक और सामाजिक असंगति के तौर पर देखा गया है वहां पर आज सबसे बड़ा प्रवाद है उस परिवेश का होना जहां न्याय सिर्फ किताबो में नहीं सामाजिक सरोकार, रवायत में भी लाया जा सके। जहां प्रेम किसी जाति, मज़हब और शरीर के दायरे में ना बंधा हो क्योंकि दायरों में पनपने वाली भावना कुछ भी हो सकती है पर प्रेम नहीं, प्रेम तो समतामूलक समाज और क्रांति का पर्याय है। इस बदलाव को सहर्ष नमन है, पर उत्सव की घड़ी अभी कोसों दूर है।
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Subhash Mehta
Wonderfullly written by an able scholar of JNU. My best wishes Mr. Azad. Hope to read some more you. cheers!!!