फिल्म ‘स्त्री’ के अंत में श्रद्धा कपूर ”स्त्री” की कटी हुई चोटी को अपने बालों में समाहित कर लेती हैं। फिर रहस्यमयी तरीके से देखती हैं और चलती हुई बस से गायब हो जाती हैं। इससे पहले के दृश्य में वो विक्की (राजकुमार राव) से कहती हैं कि ये खंजर स्त्री के सीने में उतार दो, वो मर जाएगी। मैं तीन साल से उसे मारने की कोशिश कर रही हूं, पर मार नहीं पाई। विक्की खंजर ले कर जाता तो है पर चला नहीं पाता। तब श्रद्धा कपूर (फिल्म में ये बेनाम हैं) कहती हैं कि चोटी काट लो इसकी, ये कमज़ोर हो जाएगी, विक्की चोटी काट लेता है।
ऐसा प्रतीत हुआ कि श्रद्धा कपूर भाजपा हैं और स्त्री काँग्रेस। राजकुमार राव एक राजनीतिक भक्त। भाजपा ने शहर को काँग्रेस-मुक्त करना चाहा, पर भक्त अंत में सिहर गया, मार नहीं पाया, तो भाजपा ने उसकी चोटी काटकर स्वयं में समाहित कर ली। काँग्रेस को खत्म करने का प्रयास तो वो कई सालों से कर रही थी, कर नहीं पा रही थी। भक्तों की मदद से ये संभव हुआ, राजकुमार राव भक्त इसलिए हैं, क्योंकि वो श्रद्धा कपूर की उपस्थिति मात्र से ही सम्मोहित हो जाते हैं, वो कुछ सोच ही नहीं पाते। कहते हैं कि बात इतनी ही होती है कि लड़की (श्रद्धा कपूर) ने कहा, लड़का करेगा। पार्टी कहेगी, भक्त करेगा, सोचेगा नहीं।
उनका दोस्त बिट्टू (अपारशक्ति खुराना) जब उन्हें समझाता है तो वो नाराज़ हो जाते हैं। यहां पर बिट्टू एक इंटेलेक्चुअल की भूमिका में है। वो लगातार अपने दोस्त को बचाना चाहता है, उसे श्रद्धा कपूर (भाजपा) पर शक है, पर वो कुछ कठोर निर्णय भी नहीं ले पाता। श्रद्धा कपूर के बारे में कुछ कहने के बाद ये भी कहता है कि उसे बताना मत।
श्रद्धा कपूर (भाजपा) और स्त्री (कांग्रेस) का रोल आपस में बदला भी जा सकता है। कहीं पर भाजपा ही काँग्रेस हो जाएगी और कहीं काँग्रेस ही भाजपा हो जाएगी। मूलतः ये दोनों चरित्र सत्ता को निरूपित कर रहे हैं।
ये फिल्म हॉरर-कॉमेडी के तौर पर प्रचारित की गई थी। फिल्म के कुछ संवादों में आज के राजनीतिक हालात पर व्यंग्य किये गये हैं। पर आश्चर्यजनक रूप से इस फिल्म में राजनीतिक तत्व कई स्तरों पर शामिल हो गए हैं। चूंकि ये फिल्म आज के राजनीतिक परिदृश्य में ही बनी है, जाने-अनजाने राजनीतिक बातें स्वतः ही उभर के सामने आ जा रही हैं।
विक्की और बिट्टू का तीसरा दोस्त जना (अभिषेक बनर्जी) कहता है कि वो हर स्थिति में कुछ करने से पहले गहराई में अध्ययन करता है और तब बोलता है। इसके पहले वो इतना उदार है कि विक्की को जज नहीं करता और हर काम में उत्साहित करता है। पर जब उसे स्त्री का डर लगता है तो वो बिट्टू को झिड़क देता है और कहता है कि स्त्री तुझे उठा ले जाए पर स्त्री जना को ही उठा ले जाती है। यहां पर जना अर्बन नक्सल की तरह है। सोचता-समझता तो है, पर अपने साथ के लोगों से जो उसके जितना नहीं सोचते, चिढ़ जाता है। फिर उसे सरकार उठा ले जाती है। अर्बन नक्सल को काँग्रेस या भाजपा, दोनों ही उठा सकती हैं।
फिल्म में चोटी काटकर खुद में लगा लेना वर्तमान भाजपा सरकार द्वारा कांग्रेस की योजनाओं को अपने नाम करने के तौर पर भी समझा जा सकता है। फिल्म में ये भी दिखाया गया है कि स्त्री ज़बरदस्ती नहीं करती। पर मर्दों को ले तो जाती है, छोड़ती नहीं। उसकी आवाज़ इतनी मदहोश करनेवाली है कि लोग खुद को रोक नहीं पाते। ‘गरीबी हटाओ’ और ‘अच्छे दिन आएंगे’ जैसे नारे लगने पर कहां लोग कुछ समझ पाते हैं, मदहोश हो जाते हैं।
सरकार की ही तरह स्त्री जनता से पूछकर ही उनका सब कुछ हड़प लेती है। वो अपने भक्तों से मंदिर में ही मिलती है। विक्की से श्रद्धा कपूर हमेशा संध्या आरती के वक्त ही मिलती हैं पर वो खुद कभी मंदिर नहीं जातीं। उनको मंदिर से कोई मतलब नहीं है, कहती हैं कि भगवान से उनकी बनती नहीं है। पर विक्की भगवान के नाम पर ही उनसे मिलने पहुंच जाता है। श्रद्धा को राम मंदिर से कोई लेना-देना नहीं है, वो तो बस राजकुमार राव को मंदिर पहुंचाकर आश्वस्त करना चाहती हैं कि सब ठीक है।
श्रद्धा को भक्त से अपना घाघरा ही सिलवाना है, वो सिल भी देता है आधे घंटे में। यही नहीं, श्रद्धा की उलजलूल मांग जैसे कि छिपकली की पूंछ, सफेद बिल्ली के बाल इत्यादि भी वो बिना कुछ सोचे ले के आता है। वो मीट भी ले आता है।
फिल्म के राजनीतिक होने का प्रमाण विक्की (राव) के घर में भी मिलता है। विक्की के पिता (अतुल श्रीवास्तव) ने अपनी पुरानी सिलाई मशीन की कब्र बनवा रखी है। उसपर लिखा है- 1964-1983। 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की मौत हुई थी और 1984 में इंदिरा गांधी की। इसके बीच तक देश में इंदिरा-इंदिरा ही रहा। इसके बाद के एक दृश्य में पिताजी विक्की को समझाते हैं कि स्वयंसेवी बनो, ऊर्जा मत बर्बाद करो। ये सीन अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।
इस दौर को एक और सीन से समझा जा सकता है। फिल्म में विजय राज (लेखक) इमरजेंसी के दौर से बाहर ही नहीं निकल पाए हैं। उनके मुताबिक आज भी देश में इमरजेंसी ही है। ये 1975 के इमरजेंसी से लेकर उसके बाद की सरकारों द्वारा अपने हिसाब से देश में इमरजेंसी जैसी स्थिति बना लेने पर गहरा व्यंग्य है।
फिर श्रद्धा कपूर और स्त्री दोनों ही सालाना पूजा के चार दिनों के दौरान ही आती हैं। इसके बाद वो कहीं नज़र नहीं आतीं। ऐसा लगता है कि ये वोट मांगने के दिन होते हैं। दोनों ही अपना जाल बिछाती हैं, अपना काम करती हैं और निकल लेती हैं। दोनों हर जगह हैं, उनको सब दिखाई देता है। लोगों के बीच जाकर रहती हैं, पर कोई उन्हें पकड़ नहीं पाता।
पंकज त्रिपाठी (रुद्र भैया) कहते हैं कि स्त्री के पास सबका आधार लिंक है, ये तो सच है सरकार के पास सब है। यहां रुद्र भैया एक चालाक व्यापारी हैं। ये व्यापारी पहले अश्लील किताबें बेचता था और बाद में वेद-पुराण का पुस्तक भंडार खोल लिया है इसने। भक्ति-भाव का माहौल बनाकर रखा है पर फोन पर बात शमा से करता है। ये उन नेताओं की तरह है जो जनता के सामने हिंदू बने रहते हैं पर शादी मुस्लिम स्त्री से करने में कोई गुरेज़ नहीं है। यही नहीं, इस व्यापारी ने मायाजाल फैला रखा है कि इसे सब पता है। ये लोगों को बैठा के ‘स्त्री से बचने के चार निम्नलिखित नियम’ भी बताता है। कहता है कि चप्पल उठा के चुपचाप चलो, ये नहीं कहता कि भाग भी सकते हो या लड़ सकते हो। बस सिर झुकाकर चलने की बात करता है। चौथा नियम बताता भी नहीं।
जब लोग कहते हैं कि ‘ओ स्त्री, कल आना’ के बजाय ‘ओ स्त्री, कभी मत आना’ क्यों नहीं कह सकते तो ये व्यापारी लोगों को बहका देता है कि ऐसा थोड़ी कहा जाता है। जबकि बात तो सही थी। चुनाव के दौरान लोग कह सकते हैं, कि नेताजी अब अपना मुंह मत दिखाना पर ये व्यापारी लोगों को ऐसा नहीं करने देगा। चाहे कुछ भी हो, चाहे किसी घर से लोग किडनैप हों, ये बुलाएगा ज़रूर। यही कहेगा- ओ नेताजी, कल आना।
ये व्यापारी राजकुमार राव (विक्की) को तैयार करता है शहर की रक्षा के लिए। हर दौर में सरकारें युवकों को सुपरमैन बनाने का ही दावा करती हैं। सैनिक मरते हैं, बॉर्डर पर जांबाज़ी से लड़ते हैं, ऐसी बातें की जाती हैं। एक कर्मकार जो हाथों की मेहनत से कमाई करता है, वो खुद को शहर का रक्षक समझने लगता है। डिजिटल होने से भक्त स्त्री के चक्कर में फंस गया है और भूतहा जगह की लाइव लोकेशन भी व्यापारी को भेज रहा है। जबकि व्यापारी और स्त्री का क्या संबंध है, कोई नहीं जानता, वो उसको पकड़ती भी नहीं है।
वहीं फिल्म में होमलेस मैन (संभवतः फिल्म डायरेक्टर अमर कौशिक) को स्त्री दिखाई नहीं देती। यहां होमलेस मैन एक आम गरीब जनता है, जिसे सरकार कभी दिखाई नहीं देती। उससे विक्की देखने को कहता है, वो देखेगा। वोट देने को कहेगा, वो वोट दे देगा। फिल्म में बिट्टू बार-बार पचास रूपये का ही पेट्रोल डलवाता है। रेट तो रोज़ बदल रहे हैं, पर वो पचास का ही डलवा कर खुश है। उसे लगता है कि महंगाई का क्या फर्क पड़ रहा है, वो तो पचास का तेल डलवा ही रहा है।
सबसे ज़बर्दस्त है- विक्की, प्लीज़। श्रद्धा कपूर के ‘विक्की, प्लीज’ बोलने पर ही राजकुमार राव सुध-बुध खो देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि साक्षात मोदीजी जनता से आकर कह रहे हैं- विक्की, प्लीज़। और जनता के पास कोई चारा नहीं है, वो मदहोश होकर वोट दे ही देगी। कोई आश्चर्य नहीं कि 2019 के चुनाव में मोदीजी ‘विक्की, प्लीज़’ बोलकर ही काम चला लें। बाकी सब तो 2014 में ही बोल दिया था, विक्की प्लीज़ मोदीजी का जुमला है।
फिल्म के आखिरी सीन में स्त्री अपनी मूर्ति देखकर खुश हो जाती है। यही नहीं, जनता ने उसी को अपना रक्षक भी चुन लिया है। लिखा है- ओ स्त्री, रक्षा करना। ये दृश्य हमारी सरकारों के मूर्ति प्रेम को दर्शाता है। चाहे सरकार कांग्रेस की हो, भाजपा की हो या मायावती की हो, मूर्ति ही इन्हें खुश करती है।