टीचर्स डे आते ही तरह-तरह के टीचर्स को लोग शुक्रिया कहने लगते हैं, मतलब कोई ज़िन्दगी को सबसे बड़ा टीचर मानता है तो कोई वक्त को। इसी तरह कोई अपने दोस्त को सबसे बड़ा टीचर कह रहा होता है तो कोई अपनी बीवी को। इस टीचर्स डे भी लोग अपने मां-पापा, दादा-दादी, नाना-नानी से लेकर बहन-भाई को टीचर मानते हुए दिनभर फोटो और पोस्ट शेयर करते रहें।
हद तो तब हो गई जब लोग गूगल, व्हाट्सएप और फेसबुक को भी अपना टीचर बताने लगे। मतलब हो सकता है कि हम बहुत कुछ सीखते हैं इन सबसे लेकिन टीचर होने की उपाधि ऐसे ही किसी वर्चुअल चीज़ को देकर निपटा देना बहुत ही गज़ब लगता है।
जब हम छोटे थे तो पोलियो ड्रॉप पिलाना हो या जनगणना तक का काम टीचर्स से कराया जाता था और आज भी बिहार गवर्मेंट के स्कूलों में टीचर्स को अतिरिक्त कार्यभार के रूप में कई ज़िम्मेदारियां दी जाती हैं। मिड-डे मिल के खाना बनवाने से लेकर, राशन और साग-सब्जी खरीदना और बच्चों को खिलवाने तक का काम हमारे बिहार में टीचर्स से ही कराया जा रहा है। अगर किसी भी सरकारी स्कूल की व्यवस्था को देखें तो हम पाएंगे कि बच्चों के लिए चलने वाली सारी योजनाओं का क्रियान्वयन रुक जाएगा अगर टीचर्स अपनी भागीदारी ना दें। टीचर्स के बिना साइकिल से लेकर पोषाक योजना सबसे बच्चों को जोड़ना सरकार के लिए चुनौती बन जाएगी। मतलब पढ़ाई-लिखाई छोड़कर बिहार सरकार दुनियाभर के कार्यों में टीचर्स को उलझाए हुए है।
पिछले कुछ वर्षों से बिहार बोर्ड के गिरते रिज़ल्ट के स्तर को देखते हुए मेरी इच्छा हुई कि सरकारी स्कूलों के शैक्षणिक-स्तर को जाकर देखा जाए। मुझे राज्य की राजधानी पटना के सबसे मशहूर सरकारी स्कूलों में जाकर करीब से जो नज़ारा देखने को मिला वो देखकर ऐसा लगा कि राम भरोसे ही इन बच्चों की शिक्षा रह गयी है।
मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में टीचर्स की बहाली करने के बावजूद पटना के सरकारी स्कूल अब भी टीचर्स की कमी से बाहर नहीं निकल पाए हैं। बहाल हुए टीचर्स में हज़ारों ऐसे हैं, जो अनट्रेंड थे और पात्रता परीक्षा पास होने के बाद उनकी बहाली कर दी गई। बहाल हुए इन अनट्रेंड टीचर्स का बाकी टीचर्स की तुलना में वेतनमान भी कम है और उन्हें सैलरी भी कई-कई महीनों तक नहीं मिल पाती है। इन सबके अलावा एक विडम्बना ये है कि लगभग 35% सीटों पर महिला टीचर्स की बहाली हुई। इतनी बड़ी संख्या में फीमेल टीचर्स की बहाली तो हो गई लेकिन माहवारी लिव तो भूल ही जाएं, मैटरनिटी लिव लेने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती है और किसी भी स्कूल में क्रेच फैसिलिटी भी नहीं देखने को मिली। ऐसी स्थिति में कई स्कूलों में मैडम को अपने बच्चों के साथ क्लास में देखा जाना सामान्य-सी बात है।
इतनी विपरीत परिस्थितियों में टीचर्स क्या, कितना और कैसे पढ़ाते होंगे यह हम और आप अनुमान लगा सकते हैं। हमारे देश की ये विडम्बना रही है कि भविष्य निर्माण करने वाले टीचर्स को समाज में भी वो सम्मान आज भी पूर्णतः प्राप्त नहीं है जो उनको मिलना चाहिए। इसका प्रमाण हम चारों तरफ देख सकते हैं कि नौवीं-दसवीं हो या कॉलेज में पढ़ रहे बच्चे कोई भी ये कहते नहीं दिखता कि उसे स्कूल टीचर बनना है। अधिकांश बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर, बैंकर बनना चाहते हैं या दुनियाभर की सरकारी परीक्षाओं में फेल हो जाने के बाद युवा सेफ करियर के चक्कर में बीएड करके स्कूलों में टीचर बनने चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में टीचिंग फील्ड से जुड़ने के बाद टीचर्स में ना तो टीचिंग के लिए सही डेडीकेशन देखने को मिलता है और ना बच्चों के जीवन में ऐसे टीचर्स आइडियल पर्सन बन पाते हैं।
ले देकर मेरा यही मानना है कि सरकार को दोबारा टीचर्स की बहाली से लेकर उनको दिए जाने वाले कार्यभार तक के बारे में सोचने समझने की ज़रूरत है क्योंकि कितना भी डिजिटलाइजेशन कर लें साहब “गुरू बिना ज्ञान” कहां है। ज़रूरी है कि आत्मसम्मान के साथ हमारे टीचर्स आत्मविश्वासी होकर टीचिंग प्रोफेशन में शामिल हों तब ही सही मायने में देश का भविष्य उज्जवल हो पाएगा।
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नोट- फोटो प्रतीकात्मक है।