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भारतीय दूल्हों को फेमिनिस्ट दुल्हनों से डर क्यों लगता है?

दो दिन पहले फेसबुक पर ही एक महिलाओं के ग्रुप में किसी लड़की ने एक तस्वीर पोस्ट की। किसी समाचार पत्र के मैट्रिमोनियल सेक्शन से ली गई एक विज्ञापन की तस्वीर थी वह। विज्ञापन पढ़कर हो सकता है आप हंसेंगे। लेकिन अगर आप एक प्रगतिशील सोच के व्यक्ति हैं तो जिस मानसिकता से आपका सामना होगा वह थोड़ा तो बेचैन करेगी आपको।

विज्ञापन किसी उद्योगपति लड़के ने दिया है, जिसकी उम्र है सैंतीस वर्ष। उसने लिखा है कि उसकी आमदनी आठ अंकों में है और वह उन क्षत्रियों का वंशज है जिनसे जुड़ी जानकारी आपको वेदों में मिल जाएगी। विज्ञापन में लिखा है कि दुल्हन आकर्षक होनी चाहिए और उसकी उम्र छब्बीस वर्ष से कम हो, इससे बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं। आगे लिखा है कि लड़की को धुम्रपान की आदत ना हो, वह ‘फ़ेमिनिस्ट’ ना हो, उसे खाना अच्छा बनाना आता हो और उसने इससे पहले शादी न की हो। लड़के ने अंत में कहा है कि उसे दहेज नहीं चाहिए और जात-पात का भी कोई बंधन नहीं है।

किसी पढ़ी-लिखी सशक्त महिला को ऊपर लिखी मांगों में बहुत सारी मांगें अजीब लग सकती हैं। लड़के की सभी मांगों पर बहस हो सकती है और की भी जानी चाहिए। मगर मेरा ध्यान सबसे ज़्यादा जिस चीज़ ने खींचा वह था लड़की का एक ‘नॉन-फ़ेमिनिस्ट’ होना। मैंने इससे पहले गोरी एवं सुंदर, खाना बनाने में निपुण, गृह कार्य में निपुण, फलां-फलां जाति-वर्ग की, फलां उम्र सीमा तक की लड़कियों की चाहत वाले विज्ञापन देखे थे। लेकिन इससे पहले मैंने किसी भी विज्ञापन में यह लिखा नहीं देखा था कि लड़की फेमिनिस्ट नहीं होनी चाहिए। इस विज्ञापन को पढ़कर दो ही बातें ध्यान में आ सकती हैं।

1) पहला, उस लड़के को ‘फेमिनिस्ट’ होने का सही-सही मतलब नहीं पता।

यह कोई नई बात नहीं है। बहुत सारे लोग फेमिनिज़्म को समझने में असमर्थ हैं। कितनी ही महिलाएं खुद को फेमिनिस्ट कहलाये जाने से कतराती हैं। अभिनेत्री लीसा हेडन ने एक बयान में कहा था कि वह इसलिए फेमिनिस्ट नहीं हैं क्योंकि वह औरतों के मर्द बनने की कोशिश के खिलाफ हैं।

स्वतंत्रता का अधिकार हमें संविधान देता है। संविधान यह नहीं कहता कि सिर्फ मर्द स्वतंत्र हैं, सिर्फ उन्हें शिक्षा का अधिकार है, सिर्फ मर्दों को ही नौकरी का अधिकार है। संविधान यह भी नहीं कहता कि औरतें किसी भी मायने में मर्दों से हीन हैं। वह हमें बराबरी का अधिकार देता है। मगर हमारे घरों में, हमारे समाज में, हमारे दफ्तरों में हम औरतें बराबर नहीं हैं। हमें शिक्षा से लेकर नौकरी, शादी, गृहस्थी हर जगह कमतर समझा जाता है और उसी तरह बर्ताव किया जाता है।

फेमिनिज़्म एक विचारधारा है जिसमें औरतों को मर्दों के बराबर समझने और उन्हीं के समान अवसर प्रदान करने की बात की जाती है। फेमिनिज़्म कहता है कि औरतों को भी वह सारे हक मिलने चाहिए जो मर्दों को मिलते हैं। मर्द जैसे मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं, वे औरतों के साथ भी कंधे से कंधा मिलाकर चलें। हक भी बराबर, जवाबदेही भी बराबर।

अब यह सवाल लीसा से होना चाहिए कि क्या वह खुद को अपने पति से कमतर मानती हैं? क्या वह वही आज़ादी नहीं चाहतीं जो उनके पति को मिली हुई है? और अगर वही आज़ादी वह खुद भी भोगती हैं तो क्या ऐसा करते हुए वह मर्द बन रही हैं?

इसी तरह एक बार टीवी सीरीज़ द बिग बैंग थ्योरी की अभिनेत्री केली क्वाकोह (जो पेनी का किरदार निभाती हैं) ने कहा था कि वह फ़ेमिनिस्ट नहीं हैं। केली ने इसी वर्ष कार्ल कुक से अपनी दूसरी शादी रचाई है। इससे पहले उनकी शादी टेनिस प्लेयर, रायन स्वीटिंग, से हुई थी। उनका बयान तब का है जब रायन उनके पति थे। उन्होंने उस बयान में कहा था कि वह रायन के लिए सप्ताह में पांच दिन खाना बनाती हैं। उन्हें रायन का ख़याल रखना पसंद है। उन्हें औरतों द्वारा मर्दों का ख़याल रखा जाना पसंद है। और उन्होंने कभी भी, किसी तरह की कोई असमानता नहीं झेली।

केली का किसी भी तरह के जेंडर सेंट्रिक भेदभाव से सामना नहीं हुआ, इसका यह मतलब नहीं कि दुनियाभर में महिलाएं असमानता नहीं झेल रहीं। बस उसी असमानता से यह लड़ाई है, बराबरी हमारी मांग है। बराबरी में फिर चाहे केली के पति उनके लिए खाना बनाएं या केली अपने पति के लिए, हमें फर्क नहीं पड़ता। पर इतना ज़रूर हो कि ‘खयाल रखने’ का खयाल केली के पति के दिमाग में भी आना चाहिए। ‘औरतें मर्दों का ख़याल रखें’ एक पितृसत्तात्मक सोच है। बराबरी में सब एक दूसरे का खयाल रखते हैं। किसी एक पर खयाल रखने का बोझ नहीं होता।

इसी बीच शैलेन वूडली (द फॉल्ट इन आर स्टार्स की नायिका) के बयान का भी ज़िक्र करना चाहूंगी। उन्होंने खुद को फेमिनिस्ट कहे जाने से इसलिए इंकार कर दिया था क्योंकि वह ‘मर्दों के हाथ से सत्ता छीनकर औरतों के हाथ में दे दी जाए’ इसमें विश्वास नहीं रखतीं। वह बैलेंस अॉफ पावर में यकीन रखती हैं।

शायद शैलेन मैट्रीआर्की को फेमिनिज़्म से कंफ्यूज़ कर बैठी हैं। फेमिनिज़्म बैलेंस अॉफ़ पावर के ही सिद्धांत पर आधारित है। इसमें मर्दों के हाथ से सत्ता छीनकर औरतों को देने की बात नहीं होती। बल्कि उसी सत्ता पर मर्दों के साथ काबिज होने की बात होती है। बैलेंस अॉफ़ पावर वहीं होगा जहां एक से ज़्यादा पावर सेंटर्स होंगे।

जब ये महिलाएं ख़ुद फ़ेमिनिज़म समझने में अक्षम हैं, तो इस विज्ञापन देने वाले लड़के की समझ के फेरे को तो समझा जा ही सकता है।
लीसा, केली और शैलेन अथवा उस लड़के, जिसकी आमदानी आठ अंकों में है, को फेमिनिज़्म पर कुछ अच्छी किताबें पढ़नी चाहिए, अच्छी फिल्में देखनी चाहिए और फेमिनिस्ट आंदोलनों के बारे में जानकारी इकट्ठा करनी चाहिए। और हो सके तो फेमिनिस्ट औरतों एवं मर्दों के साथ दोस्ती करनी चाहिए।

2) दूसरा, उसे इसका मतलब मालूम है और वह एक स्वतंत्र महिला को अपने जीवन में स्वीकार करने को तैयार नहीं।

रेप जैसे जघन्य अपराधों पर आए अपने नेताओं के बयान तो आपको याद ही होंगे? ‘महिला को घर में रहना चाहिए था’, ‘अपराधी के सामने गिड़गिड़ाना चाहिए था’, ‘लड़कों से गलती हो जाती है’ जैसे तमाम बयान यह दर्शाते हैं कि हमारा समाज औरत को मर्दों के समान मानने को तैयार ही नहीं। लोग देवी शक्ति की पूजा करते हैं, पर अपने घर में एक औरत के हाथों को शक्तिशाली देखने के इच्छुक नहीं हैं। वे उस शक्ति की उपासना अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए करते हैं। इसलिए नहीं कि उनके जीवन की देवियां शक्ति का स्वरूप हो जाएं और एक मर्द के बराबर में बैठने लगें।

फेमिनिस्ट्स पर बनाए जा रहे मीम्स और जोक्स से आपको पता चल जाएगा कि फेमिनिज़्म कुछ लोगों के लिए मज़ाक भर है। ज़ाकिर खान की कॉमेडी मुझे भी पसंद है मगर जब वह कहते हैं कि उन्होंने अपनी मां को बताया नहीं है कि ‘फेमिनिज़्म आ गया है’, वह बराबरी की एक ऐसी लड़ाई का मज़ाक उड़ाते हैं जिसका फ़ायदा उनके अपने जीवन की औरतों को भी होगा। एक मनुष्य के रूप में खुद वह भी बेहतर होंगे, अगर वह इसकी संजीदगी समझ जाएंगे तो। और उनकी इस बात पर ठहाके लगा रहे लोगों को भी थोड़ा सोचने की ज़रूरत है। मज़ाक में बोली गई बात को हम जाने दे सकते हैं, मगर दर्शकों में बैठे कई लोग ऐसे भी होंगे जो निहायती मर्दवादी होंगे और ज़ाकिर की यह बात उनकी इस सोच, कि महिलाओं को फेमिनिस्ट नहीं बनने देना चाहिए, पर उनका विश्वास और भी तगड़ा करेगी।

शादी के उस विज्ञापन में लिखी गई और भी कई बातों से यह साफ़ समझ आ रहा है कि लड़का दूसरी श्रेणी का है। मतलब वह एक सशक्त महिला नहीं, एक गुलाम चाहता है। उसने अपने हिसाब से उसकी उम्र से लेकर उसके व्यक्तित्व तक की सीमा तय कर रखी है। इस सीमा से बाहर उसे कोई भी स्वीकार नहीं। और सीमाएं तो गुलामों की ही तय की जाती हैं। जिसे हम अपने बराबर समझेंगे उसकी सीमाएं कैसे रेखांकित कर पाएंगे? वह फ़ेमिनिस्ट्स को अपनी सत्ता के लिए ख़तरा समझता है। बस इसी वजह से उसे एक नॉन-फ़ेमिनिस्ट लड़की चाहिए। ऐसी लड़की जो उसका ख़याल रखे। उसके लिए खाना बनाए। जो किसी भी तरह की आज़ादी न मांगे। बिना उससे पूछे कोई फैसला न ले। और जिसका अपना कोई जीवन न हो, ख्वाहिशें ना हो। वह सिर्फ अपने पति और बाद में बच्चों की देख-भाल में अपनी ज़िन्दगी गुज़ार दे।

वह एक फेमिनिस्ट महिला को काबू नहीं कर पाएगा, इसी डर से उसने ऐसा विज्ञापन दिया है। ऐसी महिलाएं उसके लिए खलनायक हैं। और फेमिनिस्ट्स को खलनायक समझना उसकी पितृसत्तात्मक सोच का मुजाहिरा है।

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