Site icon Youth Ki Awaaz

सेक्स हो या गर्भपात, अपने शरीर को लेकर महिलाओं का फैसला उनका अधिकार है

लेखक और निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म “गैंग्स ऑफ वासेपुर” के पहले भाग के एक दृश्य में फ़ैजल खान अपनी प्रेमिका के हाथों पर अपना हाथ बिना पूछे रख देता है, तो प्रेमिका बोलती है -“ई का है? का है, मुस्कुरा काहे रहे है, ई का है? ऐसे अच्छा थोड़े लगता है, आपको परमिशन लेना चाहिए ना।”

फ़ैजल खान- “नहीं हमको लगा कि…”

प्रेमिका, “का लगा? आपको लगा कि जो मर्ज़ी करेंगे, मतलब हाथ लगा लेंगे हमको, जो सोचेंगे वहीं करेंगे, पूछना चाहिए आपको, परमिशन लेना चाहिए, किसी के घर जाते हैं तो पूछते हैं ना अंदर आए कि ना आए”।

गैंग्स ऑफ वासेपुर में यह दृश्य और संवाद महिलाओं की अस्मिता और उस आत्मसम्मान की वकालत करता है, जो हर एक महिला समाज और किसी भी पुरुष से चाहती है। महिलाओं की अस्मिता की यही इच्छा #MyBodyMyChoice के बैनर तले एक नहीं कई सवालों के साथ जुड़कर नई-नई परिभाषा के रूप में हमारे सामने उभरकर आ रही है जो परंपरा और आधुनिकता के मूल्यबोध में बंटे समाज से टकराती है कभी आहट होती है तो कभी मुखर होती है।

नारीवादी आंदोलनों ने विश्व ही नहीं अपने देश में भी लंबे और कठिन संघर्षों से महिलाओं की अस्मिता, समानता और स्वतंत्रता का सवाल हर समाज में स्थापित किया है। भारतीय संदर्भ में महिलाओं के यह सवाल शोषण और आत्मवंचना के उस कठोर धरालत से निकलकर सामने आते हैं, जिसकी शुरुआत मानवतावादी विचारधारा से होती है।

जहां एक तरफ, पुरुष समाज सुधारकों ने महिलाओं के जीवन को सामाजिक कुरीतियों से निकालने का प्रयास किया, तो दूसरी तरफ बाद के दिनों में शिक्षित महिलाओं ने अपने जीवन से जुड़े सवालों को परिभाषित करने की कोशिश की। इसके दायरे को लेकर अलग से बहस की जा सकती है पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन तमाम प्रयासों ने महिलाओं के एक वर्ग-समूहों में आत्मचेतना का विकास तो ज़रूर किया है।

एक तथ्य यह भी है, जो उस दौर में भी था और आज के दौर में भी मौजूद है वह यह कि उस दौर की तरह आज भी महिलाओं के सवाल परंपरा और आधुनिकता के मध्य पेंडुलम की तरह खंडित चेतना में बंटे हुए हैं, कभी इधर तो कभी उधर डोल रहे हैं।

महिलाओं के तमाम सवाल पंरपरा और आधुनिकता की संस्कृति की बहस में उलझते रहते हैं। महिलाओं की स्वतंत्रता, समानता और अस्मिता के हर सवालों की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि वह अपनी भूमिका हमेशा स्वयं की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर तय नहीं कर पाती है, हालांकि इसमें कुछ अपवादों को भी शामिल किया जा सकता है।

परंपरा और आधुनिकता की संस्कृति के मूल्यबोध से हम अगर #MyBodyMyChoic के संदर्भ में 1972 में लागू गर्भपात के कानूनी अधिकार (प्रेग्नेंसी डिस्क्रिमिनेशन एक्ट 1972) को देखें तो स्पष्ट रूप से दिखता है कि एक वर्गीय चेतना इसे अपनी आज़ादी का अधिकार मानती है तो दूसरी वर्गीय चेतना इस तक महिलाओं की पहुंच को ही रोकती है।

आज भी डाक्टरों को जैसे पता चलता है कि गर्भपात करवाने आई लड़की शादीशुदा नहीं है तो उसका रवैया अचानक से बदल जाता है। लड़की को अपराधी मान लेने की प्रवृत्ति और लड़कियों के ऊपर लोकलाज का दबाव और डॉक्टरी व्यापार सब एक साथ शुरू हो जाते हैं। 

परंपरा और आधुनिकता में बंटी आधी आबादी की दुनिया को #MyBodyMyChoice के अधीन गर्भपात के अधिकार के प्रति जागरूक करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इसके साथ जुड़े मूल्यबोध किसी महिला के शरीर मात्र से नहीं, उसकी भावनाओं और आत्मविश्वास के साथ भी खेल रहे हैं। जिस तरह सेक्स करना किसी भी महिला का अपना फैसला है, ठीक उसी तरह गर्भपात करना भी किसी महिला का अपने शरीर, जीवन और भविष्य को लेकर उसका अपना ही फैसला है। इस फैसले के आधार पर महिला के चरित्र, संस्कार या व्यक्ति पर सवाल करना मूर्खतापूर्ण है।

परंपरा और आधुनिकता की संस्कृति में जी रहे भारतीय समाज को इसके बारे में जागरूक करने की आवश्यकता अधिक है क्योंकि खंडित मानसिकता की संस्कृति में जीवन जीने के चयन का अधिकार भी हमने आधी आबादी को नहीं लेने दिया है। हमेशा से यही लगता है कि परंपरा में महिलाओं ने अपनी सुरक्षा की कीमत अपनी आज़ादी से चुकाई है और आधुनिकता में अपनी आज़ादी की कीमत सुरक्षा से।

परंपरा और आधुनिकता ने महिलाओं को जो जगह दी है, उसमें अगर कोई फर्क है तो बस यह कि परंपरा में ना औरतें दिखती थी, ना उनकी पीड़ा। आधुनिकता में पीड़ा है तो पीड़ा से मुक्ति के लिए #टैग के साथ पीड़ा की खुदमुख्तारी का संघर्ष और साहस।

परंपरा और आधुनिकता में खंडित मानसिकता आधी आबादी के सवालों को विविधतापूर्ण तरीके से अभिव्यक्त करती है, जहां एक तरफ आधुनिकता की संस्कृति आधी आबादी के सवालों को वर्गीय चेतना के आधार पर देखने की मुखालफत करती है, वही दूसरी तरफ परंपरा की संस्कृति आधी आबादी के तमाम वर्गीय सवालों का दमन ही नहीं करती है उसको दूसरी पीढ़ी तक आनुवांशिक तरीके से थोपने की कोशिश भी करती है।

ज़ाहिर है इस तरह वह आधी आबादी की स्वतंत्रता और समानता के विचार को वर्चस्वशाली मूल्यबोध से पीछे की तरफ ढकेलती है। बीसवीं सदी के अस्सी-नब्बे के दशक में जब स्त्री यौनिकता के प्रश्न नारीवादी आंदोलनों के केंद्र में आए, मध्यवर्गीय शिक्षित और कामकाजी महिलाओं के बीच “मेरे शरीर पर मेरे अधिकार” का नारा चर्चित हुआ, जो कहीं ना कहीं “व्यक्तिगत ही राजनीतिक है” से अपनी प्रेरणा लेता है।

अस्सी-नब्बे के दशक में “मेरे शरीर पर मेरे अधिकार” से जुड़े महिलाओं के सवाल विशेष वर्ग-समूह में ही अपनी प्रासंगिकता बना सके क्योंकि पब्लिक स्पेस या स्फीयर में महिलाओं की मौजूदगी उस तरह से नहीं थी, अगर थी भी तो वह सांस्कृतिक दबावों में मुखर नहीं थी। बाद के दिनों में यौनिकता से जुड़े कई सवाल धीरे-धीरे जुड़ते चले गए, जो आज सोशल मीडिया के दौर में कभी #MyBodyMyChoice के रूप में तो कभी “साढ़ा हक ऐथे रख” के रूप में हमारे सामने है।

Exit mobile version