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स्लम की लड़कियों को वापस से पढ़ाई शुरू कराने वाली 19 साल की सलेहा

भारत के ग्रामीण, सुदूर और यहां तक कि कुछ शहरी इलाकों में भी लड़कियों को लेकर लोगों की सोच आज भी रसोई घर में घुसकर भोजन पकाने और घर के काम-काज करने तक ही सीमित है। लड़कियों का ऊंचे सपने देखना पुरुषवादी विचारधारा से ग्रसित समाज को कतई नहीं सुहाता।

घर की बंदिशें और समाज की कानाफूसी से ऊपर उठकर जब लड़की कामयाबी की सीढ़ियों के शीर्ष पर काबिज़ होकर मिसाल पेश करने लगती है, तब यही समाज जयकारे भी लगाने लगता है।

कुछ ऐसी ही मिसाल पेश कर रही हैं मुंबई के गोवन्दी स्लम में पली-बढ़ी 19 वर्षीय सलेहा खान, जिन्होंने 2018 में दिल्ली के अंबेडकर इंटरनैशनल सेंटर में हुए Youth Ki Awaaz सम्म्मिट में बतौर काफी मुखर होकर अपनी बात रखी।

YKA सम्मिट में इतनी कम उम्र की वक्ता के तौर पर जब सलेहा मंच पर युवाओं को संबोधित कर रही थीं तब ऑडिटोरियम में मौजूद युवाओं में जोश की लहर दौड़ पड़ी।

सलेहा बच्चों के अधिकारों, स्वास्थ्य और स्वच्छता के अलावा जगह-जगह जाकर लड़कियों में जागरूकता भी फैलाने का काम करती हैं। वे लड़कियों में मासिक धर्म और उनसे जुड़ी स्वच्छता को लेकर ट्रेनिंग सेशन्स भी चलाती हैं। उन्हें महाराष्ट्र सरकार द्वारा सावित्रीबाई फुले पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है।

आर्थिक तंगी और सामाजिक दवाब के कारण सलेहा ने दसवीं की परीक्षा देने के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी लेकिन ‘Save The Children’ ने सलेहा की पढ़ाई में आ रही दिक्कतों के बीच काफी मदद की। सलेहा अपनी बस्ती के बारे में बात करते हुए बाताती हैं कि मैं जिस बस्ती में रहती हूं वो कचड़ों के ढेर के बीच में है और मैं कभी-कभी ये सोचती हूं कि कचड़ों के बीच में रहना मेरी खुशकिस्मती है या बदकिस्मती, क्योंकि आज भी कुछ फैमिली ऐसी हैं जो कचड़ा चुनकर ही पेट भरती हैं।

मैं जिस बस्ती में रहती हूं वो एक मुस्लिम बहुल इलाका है, जहां लड़कियों के लिए काफी बंदिशें होती हैं। जैसे-स्टोल लेकर बाहर निकलना, नकाब में रहना, किसी लड़के से बात करने की मनाही वगैरह-वगैरह। इस वजह से वहां ज़्यादातर पेरेन्ट्स अपने बच्चों को घर से निकलने ही नहीं देते।

मैं जब भी जींस पहनकर घुमती हूं तब मेरे गली की बहुत सारी औरतें मुझपर तंज कसते हुए कहती हैं कि अरे लड़का बनने चली है। मेरे पेरेन्ट्स को बोला जाता है कि क्यों लड़की को जींस पहना रहे हो, सलवार-कमीज़ पहनाओ।

सलेहा बताती हैं कि नौंवी कक्षा के बाद कैसे उनकी दीदी की पढ़ाई छूट गई और फिर कम उम्र में ही उनकी शादी करा दी गई। वे कहती हैं कि एक साल में उनकी दीदी ने बच्चे को जन्म दिया और फिर उन्हें कुछ प्रॉब्लम्स होनी शुरू हो गईं। तब जाकर सलेहा ने अपने पापा से कहा कि पापा मुझे शादी के इन चक्करों में नहीं पड़ना, मुझे पढ़ाई करनी है।

सलेहा आगे कहती हैं कि काफी मुश्किल से पापा को मनाने के बाद मैंने अपनी पढ़ाई शुरू की। अब मुझे लगने लगा कि जिस तरीके से मैंने अपनी पढ़ाई शुरू की वैसे ही अब मैं अपनी कम्युनिटी की लड़कियों को पढ़ने के लिए प्रेरित करूंगी लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था, कई तरह के सवाल थे जो लड़कियों के पेरेन्ट्स के मन में उठते थे। जैसे कि पढ़ाई के बहाने कहीं दूसरे चक्करों में तो नहीं जा रही हैं या फिर हमारी सुरक्षा को लेकर भी उन्हें फिक्र होती थी और फिर मुझे समझाना होता था कि आंटी हम गैंग बनाकर स्कूल जाएंगे और पढ़ाई करेंगे, फिर कोई दिक्कत नहीं होगी।

सलेहा आगे कहती हैं कि जब हम बाहर जाते हैं तब मसला सिर्फ पढ़ाई का नहीं होता है बल्कि हम अलग-अलग विषयों पर परिपक्व होने लगते हैं। जैसे कि ट्रैवेल की नॉलेज होती है, अलग-अलग जगह देखने को मिलती है। मेरे ग्रुप में 10 लड़कियां हैं जिनकी मैंने पढ़ाई शुरू कराई है।

इसके इतर हमारी गोवन्दी बस्ती की आबादी 6 लाख है और हम जहां रहते हैं वहां 2000 लोग हैं। मगर वहां सिर्फ 20 टॉयलेट हैं। गोवन्दी के हालात आज भी काफी गंभीर हैं, वहां कुछ ऐसी बस्ती है जहां पीले पानी का यूज़ किया जाता है। लोग पैसों की दिक्कत की वजह से पीले पानी का प्रयोग करते हैं।

इन हालातों को देखकर मैं काफी दुखी होती थी। धीरे-धीरे मैंने अपनी कम्युनिटी के साथ कुछ कार्यशालाएं शुरू की। हमने पहले फोटोग्राफी का सेशन शुरू किया और एग्ज़िबिशन लगाया जहां पर नगर सेवक, बच्चों और उनके पेरेन्ट्स को बुलाया। जो तस्वीरें हमने खींची थी वो हमारी बस्ती की ही थी, जिन्हें देखकर लोगों को यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसी हालत है हमारी बस्ती की। हम अलग-अलग तरीकों से लोगों को जागरूक करने का प्रयास करते हैं। जनप्रतिनिधियों के सामने हम गानों के ज़रिए अपनी बात रखते थे जैसे कि “सुन लो सुन लो बात हमारी सुन लो, आए हैं जानकारी देने”।

युवाओं को संबोधित करते हुए सलेहा कहती हैं कि ज़िन्दगी में कभी किसी को पाने की तमन्ना मत करो, बल्कि खुद को इस काबिल बना लो कि लोग तुम्हें पाने की तमन्ना करने लगे।

हमारी बस्ती में सड़क पर रहने वाले बच्चों को छोटू, मुटकू, मोटू, पतलू जैसे नामों से पुकारा जाता था। हमने सोचा कि क्यों ना इनकी भी कोई पहचान हो। हमने मुंबई के मेयर के अलावा और भी कुछ लोगों से बात की और फिर 150 बच्चों का आधार कार्ड बनवाया। हम सब मिलकर ये प्रण लें कि हमारे देश में कोई भी ऐसा बच्चा ना हो जिसे सड़कों पर ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़े। हम सपने देखना ना छोड़ें, क्योंकि इसमें कोई पैसा नहीं लगता।

सड़क किनारे रहकर जीवन गुज़ारने वाली मनीषा का ज़िक्र करते हुए सलेहा कहती हैं कि सुबह से लेकर शाम तक वो रास्ते में रहती थी। रोज़ गाड़ियों की आवाज़ें सुनाई देने के अलावा आते-जाते लोग कुछ भी बोल देते थे लेकिन उसने अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी और 12वीं में 59 प्रतिशत के साथ उत्तीर्ण हुई। अभी उसका चयन अशोका यूथ वेंचर में हुआ है।

19 वर्षीय सलेहा मिसाल हैं इस देश के उन तमाम बच्चे और बच्चियों के लिए जिन्हें बुरे हालातों के आगे घुटने टेकने पड़ते हैं। सलेहा के संघर्षों की कहानी इस देश के उस सिस्टम पर करारा तमाचा जड़ती दिखाई देती है जो सड़क पर जीवन व्यतीत करने वाली मनीषा जैसी और भी तमाम लड़कियों के लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित कराने में विफल रही है।

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